सरकार ने किसानों के आगे एक प्रस्ताव रखा है। उसने कहा है कि किसान इसे मान लें, तो जमीन के नीचे जलस्तर घटने की समस्या का समाधान हो जाएगा। मगर क्या किसान आंदोलन अब तक इस समस्या के समाधान के लिए चलता रहा है?
बात शुरू करने से पहले यह रेखांकित कर लेना चाहिए कि किसान आंदोलन चला रहा संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) विभाजित हो चुका है। जिस समय एसकेएम ट्रेड यूनियनों के साथ मिल कर 16 फरवरी के ग्रामीण बंद और औद्योगिक हड़ताल की तैयारियों में जुटा था, उस तारीख से पहले ही अपने को “गैर-राजनीतिक” कहने वाले उससे अलग हुए धड़े ने “दिल्ली चलो” अभियान शुरू कर दिया। खुद को किसानों का असली प्रतिनिधि दिखाने की कोशिश में इस धड़े ने अपेक्षाकृत अधिक उग्रता दिखाई। संभवतः केंद्र को भी इसमें किसान आंदोलन की चुनौती को कमजोर करने की संभावना नजर आई। उसने तुरंत एसकेएम (गैर-राजनीतिक) से बातचीत के लिए केंद्रीय मंत्रियों का उच्च-स्तरीय प्रतिनिधिमंडल नियुक्त कर दिया। इस प्रतिनिधिमंडल ने चौथे की दौर की वार्ता में रविवार को एक नया प्रस्ताव किसानों के सामने रखा। सार यह है कि पांच फसलों- तुड़, अरहर, उड़द, मक्का और कपास के घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर पांच वर्ष तक खरीदारी के लिए किसानों के साथ अनुबंध करेगी। इस अनुबंध में सरकारी एजेंसियों- नैफेड और सीसीआई के साथ-साथ राष्ट्रीय उपभोक्ता सहकारिता परिसंघ शामिल होगा।
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सरकार ने कहा है कि अगर किसान इस प्रस्ताव को मान लें, तो पंजाब में खेती धान और गेहूं पर ही केंद्रित नहीं रह जाएगी। इस तरह जमीन के नीचे जलस्तर घटने की समस्या का समाधान होगा। मगर प्रश्न यह है कि क्या किसान आंदोलन इस समस्या के समाधान के लिए चल रहा है? सरकार ने स्वामीनाथन फॉर्मूले के अनुरूप एमएसपी, किसान कर्ज माफी आदि जैसी मांगों पर कुछ नहीं कहा है। उलटे जो प्रस्ताव रखा है, उससे संकेत मिलता है कि इसके जरिए वह कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को प्रोत्साहित करना चाहती है। जबकि 2020 के किसान आंदोलन में इसका विरोध भी एक प्रमुख पहलू था। केंद्रीय प्रतिनिधिमंडल और मध्यस्थ पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने जो कहा, उससे साफ है कि उनकी तरफ से सारा समाधान पंजाब-हरियाणा को ध्यान में रखते हुए सुझाया गया है। अब सवाल यह है कि क्या किसान इसे स्वीकार करेंगे? इसकी संभावना कम है। अगर “गैर-राजनीतिक” धड़े ने ऐसा कर भी लिया, तब भी बाकी एसकेएम के लिए इसे मानना कठिन होगा।