पश्चिमी देशों के लिए मानव अधिकार जैसी बातें हमेशा विदेश नीति के मकसद साधने की औजार रही हैं। आज की बदलती भू-राजनीति और विश्व शक्ति संतुलन में भारत की जो हैसियत है, उसके बीच वे इस हथियार को चलाने में अनिच्छुक हैँ।
अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन नई दिल्ली में उन शर्तों के दायरे में रहे, जो भारत सरकार की तरफ से उन्हें बताया गया था। लेकिन जब वे वियतनाम पहुंचे, तो वहां बड़े गोलमोल अंदाज में बताया कि उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से बातचीत के दौरान ‘मानव अधिकारों के सम्मान और एक मजबूत एवं समृद्ध देश के निर्माण में नागरिक समाज और स्वतंत्र की भूमिका के महत्त्व’ पर चर्चा की, ‘जैसाकि वे हमेशा करते हैं’। इन निराकार बातों से मोदी के लिए कितनी असहज स्थिति पैदा हुई होगी, इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। आखिर विश्व मंचों पर ऐसी अमूर्त बातें मोदी भी दोहराते रहते हैं। दरअसल, भारत की अध्यक्षता में हुए जी-20 शिखर सम्मेलन के घोषणापत्र में भी धार्मिक सहिष्णुता और सामाजिक सद्भाव की आवश्यकता की भरपूर चर्चा की गई है। बहरहाल, यह अपेक्षा अपने-आप में गलत सोच पर टिकी है कि अमेरिका या किसी दूसरे देश के नेता को अपनी भारत यात्रा के दौरान ऐसे मसलों पर भारत सरकार के ऊपर दबाव डालना चाहिए।
इस सोच के पीछे यह परोक्ष समझ है कि पश्चिमी देश लोकतंत्र और मानव अधिकार के पहरेदार हैं। यह एक तरह से औपनिवेशक सोच में यकीन करने जैसी बात है। चूंकि ऐसी सोच का प्रभाव आज भी समाज में मौजूद है, तो हनोई में बाइडेन के दिए गए अहानिकर बयान से देश के एक हिस्से में उत्साह की लहर दौड़ गई है। यह एक तरह से भारतीय लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा में इस तबके की अपनी नाकामी को भी जाहिर करता है, जिसकी अब उम्मीदें अब विदेशी मदद पर जाकर टिक गई हैँ। लेकिन इससे कुछ हासिल नहीं होगा। पश्चिमी देशों के लिए लोकतंत्र और मानव अधिकार जैसी बातें हमेशा विदेश नीति के मकसद साधने की औजार रही हैं। आज की बदलती भू-राजनीति और विश्व शक्ति संतुलन में भारत की जो हैसियत है, उसके बीच वे इस हथियार को चलाने में न सिर्फ अनिच्छुक बल्कि अक्षम भी हो गए हैँ। इसलिए एक खास श्रोता वर्ग के लिए धीरे-धीरे कुछ ऐसा बोल जाते हैं, जिसे कोई सुन ना ले! जाहिर है, इन बातों का असल में कोई अर्थ नहीं होता।