राहुल का अशोक वाजपेयी से सहमत नहीं होना अच्छा!

राहुल का अशोक वाजपेयी से सहमत नहीं होना अच्छा!

वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी राहुल के साथ चले तो वाजपेयी ने अपने कॉलम में बताया कि उन्होंने राहुल से कहा कि समाजवाद के बदले समता और धर्मनिरपेक्षता के बदले सर्वधर्मसमभाव का प्रयोग करना चाहिए। वाजपेयी कातर्क था कि सवर्ण हिन्दु इन दोनों शब्दों को पसंद नहीं करते हैं। हालांकि राहुल इससे सहमत नहीं थे। यह राहुल की दृष्टि और उनकी सही समझ दिखाता है। दोनों शब्द संविधान में हैं। भाजपा इनके खिलाफ है। मगर भाजपा और संघ कोराजनीतिक रूप से पसंद नहीं करने वाले भी उसके दक्षिणपंथी यथास्थितिवादीरुझान का समर्थन करते हैं।

 राहुल की यात्रा के कई रंग हैं। इसमें एक सबसे खूबसूरत लेखक, कवियों को आमंत्रित करना है। यह तो हमें पता नहीं कि कितने साहित्यकारों को आमंत्रित किया गया। और सच तो यह है कि पत्रकारों को यह भी नहीं पता था कि आमंत्रित किया जा रहा है! कई लेखक संपादक राहुल के साथ चलना चाहते थे।उसके लिए उन्होंने कोशिश भी की मगर शायद उन्हें मौका नहीं मिला। खैर तोवरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने लिखा कि उन्हें राहुल की तरफ से आमंत्रण मिलाथा और वे यात्रा में शामिल हुए।

बहुत अच्छी बात है। कोई भी देश, समाज बिना साहित्यकारों के सभ्य औरसुस्संकृत नहीं हो सकता। साहित्य जैसा कि प्रेमचंद ने कहा था राजनीति औरसमाज के आगे चलने वाली मशाल है। उसके आलोक में ही राजनीति सही मार्ग परचलती है। लेकिन यह बात प्रगतिशील दृष्टि वाले साहित्य की मशाल पर लागूहोती है। यथास्थितिवादी, प्रतिक्रियावादी या कलावादी चलते नहीं हैं। वेतो रुके रहते हैं। और मौका मिलने पर पीछे की तरफ ही लौटते हैं।

तो खैर भारत जोड़ो यात्रा में कुछ लेखक अलग-अलग जगहों पर शामिल हुए।हिन्दी के साहित्यकारों में पुरुषोत्तम अग्रवाल, अशोक वाजपेयी, कवि नरेशसक्सेना, इतिहासकार अशोक कुमार पान्डेय, कवि पंकज चतुर्वेदी, ओम थानवी केनाम फिलहाल हमें याद आ रहे हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार इरफान हबीब भी अभीशामिल हुए। और भी लोगों को शामिल होना चाहिए था। मगर यह पता नहीं किआमंत्रित करने की व्यवस्था क्या थी। जैसा राजनीतिक दलों को बुलाने की बातमीडिया में बताई जाती है। वैसे ही साहित्य, कला आदि क्षेत्रों से जुड़ेलोगों को आमंत्रित करने की बात भी बताई जा सकती थी। कांग्रेस को याद रखनाचाहिए की आज राहुल जिन मुद्दों नफरत और विभाजन को लेकर राष्ट्रव्यापीयात्रा पर निकले हैं उन सवालों को सबसे पहले पत्रकारों, लेखकों ने ही उठाया था।

उस वक्त इसका नाम असहिष्णुता था। नफरत, विभाजन असहिष्णुता से ही उपजतेहैं। तो 2015 में प्रेस क्लब आफ इंडिया ने दिल्ली में असहिष्णुता केखिलाफ एक बड़ी सभा की थी। उस समय साहित्यकारों ने असहिष्णुता के खिलाफपुरस्कार वापसी अभियान चलाया था। साहित्यकारों की उस पहल का  राजनीति परभी असर हुआ था। प्रेमचंद की वह बात वास्तव में सही साबित हो गई थी किसाहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है। प्रेस क्लब में सफल सभा केबाद लेखकों, पत्रकारों ने साहित्य अकादमी पर प्रदर्शन किया। उसका महत्व

इसी से समझा जा सकता है कि उस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को काउंटर करने के लिएअसहिष्णुता के पक्ष में लोगों को लाया गया। जो शांतिपूर्ण ढंग से वहां आएथे और अपना ज्ञापन देना चाहते थे। लेकिन साहित्य और पढ़ने लिखने से कोईसंबंध न रखने वालों की जो भीड़ लाई गई थी उसके साथ कुछ लेखक भी थे।जिनमें नरेन्द्र कोहली शामिल थे।

खैर, सहिष्णुता की बात करने वालों नेसंयम बरता। और विवाद करके मीडिया में सुर्खियां बनाने वालों को सफल नहींहोने दिया। योजना यह थी कि झगड़ा हो जाए ताकि खबर बने साहित्यकार आपस मेंभिड़े। गुटबाजी। साहित्य और साहित्यकार को डैमेज करने की कोशिश। उस सभाऔर फिर प्रदर्शन में मंगलेश डबराल , पंकज सिंह और प्रगतिशील लेखक संघ केकार्यकारी अध्यक्ष अली जावेद बहुत सक्रिय थे। तीनों का असामयिक निधन होगया। तीनों बहुत याद आते हैं।

इनके अलावा बहुत साहित्यकार उस समय हुएकार्यक्रमों में सक्रिय थे, शामिल हुए। वरिष्ठ लेखिका कृष्णा सोबती,आलोचक वीरेन्द्र यादव, आशुतोष कुमार, अशोक कुमार पान्डेय, अशोक वाजपेयीबहुत लोग थे। स्मृति के आधार पर ज्यादा नहीं लिख सकते। क्योंकि आजकल एकनया खतरा है कि जो नहीं था या अब उस होने को भूलाना चाहता है उसका नाम आगया तो परेशान हो जाएगा, नाराज हो जाएगा। पहले किसी का नाम गलती से आ जाएतो वह खुश हो जाता था कि हम आ रहे थे, हमारा समर्थन तो वहां था ही। मगरआज डर है।

खैर तो उस समय डर के माहौल को तोड़ने और जो बात आज राहुल कर रहे हैंप्रेम और सदभाव को बढ़ाने की उसके लिए लेखक पत्रकारों की पहल के बादतत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने संसद से राष्ट्रपति भवन तकमार्च निकाला था। असहिष्णुता के मुद्दे पर जिसमें विपक्ष के नेता भीशामिल थे। फिर इसके काउंटर में भी प्रदर्शन किया गया। अनुपम खेर केनेतृत्व में वे भी राष्ट्रपति से मिलने गए।

साहित्य का सफर राजनीति के साथ काफी पुराना है। जब दोनों के उद्देश्य एकहोते हैं। जनता के साथ जुड़ाव होता है तो दोनों को एक दूसरे से शक्तिमिलती  है। आजादी के आन्दोलन में हिन्दी, उर्दू साहित्य और पत्रकारिता कीभूमिका बहुत शानदार रही। आजादी के बाद नेहरू ने इस परंपरा को निभाया।उनके विचारों को निराला, दिनकर ने मजबूती दी। लेकिन अब बदलते समय मेंचीजों में भी बदलाव आया है। सबसे बड़ा बदलाव जो दिख रहा है वह हैप्रगतिशील मूल्यों को छोड़ने की बात। समाज को बदलने के बदले खुद उसकेअनुकूल हो जाने की बात। जनता के स्तर को उपर उठाने के बदले उसे वहीं रोकेरखने या पीछे ले जाने की बात।

अभी जब वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी राहुल के साथ चले तो वाजपेयी ने अपनेकॉलम में बताया कि उन्होंने राहुल से कहा कि समाजवाद के बदले समता औरधर्मनिरपेक्षता के बदले सर्वधर्मसमभाव का प्रयोग करना चाहिए। वाजपेयी कातर्क था कि सवर्ण हिन्दु इन दोनों शब्दों को पसंद नहीं करते हैं। हालांकिराहुल इससे सहमत नहीं थे। यह राहुल की दृष्टि और उनकी सही समझ दिखाता है।दोनों शब्द संविधान में हैं। भाजपा इनके खिलाफ है। मगर भाजपा और संघ कोराजनीतिक रूप से पसंद नहीं करने वाले भी उसके दक्षिणपंथी यथा स्थितिवादी रुझान का समर्थन करते हैं।

समता में समाजवाद या समानता वाली बात नहीं है। समता समझी जा सकती है।समानता होना चाहिए। यह अनायास नहीं है कि भाजपा के सहयोगी रहे नीतीशकुमार, जार्ज फर्नांडिस की पार्टी का नाम समानता नहीं समता था। इसी तरहधर्मनिरपेक्षता का अर्थ बिल्कुल अलग है। सरकार का धर्मों के मामले मेंदूर रहना। जो करके पश्चिम ने हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त की है।सर्वधर्मसमभाव में सब धर्मों का बराबर कर दो। धर्म इसमें सरकार में शामिलकर लिया जाता है।

यह कहना और खतरनाक है कि समाज ऐसा है। राजनीति और लेखन दोनों का कामलोगों को जागरूक करना है। उन्हें वैसा ही छोड़ देना नहीं है। 75 साल पहलेनेहरू ने इसे समझ लिया था। आजादी के पहले भाषण ट्रिस्ट विद डेस्टिनी (नियति के साथ साक्षात्कार) में उन्होंने साइंटिफिक टेंपर ( वैज्ञानिकमिज़ाज) की बात कही थी। जनता के चेतना के स्तर को उपर उठाने की बात। आजयह कहना कि लोग ऐसा सोचते है तो ऐसा कर लिया जाए चाहे वह भ्रम फैलानेवाला हो, पीछे ले जाना वाला हो चिंताजनक बात है। चिंताजनक इसलिए किउन्हें वरिष्ठ साहित्यकार समझ कर बुलाया गया और वे आम जनता के बदलेमध्यमवर्ग मानसिकता की बात कर रहे हैं। इससे उन पर कही जाने वाली यह बातही सही साबित होती है कि उनका सारा नाम अर्जुन सिंह द्वारा बनाए भारत भवनकी वजह से ही बना। कवि, साहित्यकार ठीक ठाक ही हैं।

अगर कवि वह भी पढ़ा लिखा आईएएस ही नहीं जानता तो कौन जानेगा कि शब्दमासूम नहीं होते। उनके राजनीतिक अर्थ होते हैं। पहले भाजपा नेपंथनिरपेक्षता शुरू किया। उसे अनजाने में दूसरे भी लिखने बोलने लगे। ऐसेही समरसता, तुष्टिकरण, सबका विकास जैसे शब्द मुहावरे हैं जो राजनीतिकउद्देश्य से चलाए गए हैं। भ्रम फैलाने, प्रगतिशील मूल्यों को कमजोर करनेके लिए।

राहुल की यात्रा आगे बढ़ने वाली है। भविष्य के भारत की और। नए आधुनिक औरजनोन्मुखी मूल्यों के साथ। आम जनता क्या चाहती है इस  सोच के साथ।सुविधाजीवी मध्यमवर्ग क्या चाहता है उसके लिए नहीं बल्कि उसके विचारोंमें नए आधुनिक मूल्य जोड़ने के लिए। साहित्य का काम भी यही होता है। औरउसकी जिम्मेदारी ज्यादा है। क्योंकि उसे किसी से वोट नहीं लेना होता।राजनीति को तो कभी वोट के लिए समझौते भी करना पड़ते हैं। साहित्यकार कोक्यों जनता को अफीम देना चाहिए!

Published by शकील अख़्तर

स्वतंत्र पत्रकार। नया इंडिया में नियमित कन्ट्रिब्यटर। नवभारत टाइम्स के पूर्व राजनीतिक संपादक और ब्यूरो चीफ। कोई 45 वर्षों का पत्रकारिता अनुभव। सन् 1990 से 2000 के कश्मीर के मुश्किल भरे दस वर्षों में कश्मीर के रहते हुए घाटी को कवर किया।

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