चुनावी मौसम में कैसे बना रहे सद्भाव

कर्नाटक के संदर्भ में अमित शाह लोगों से पूछ रहे हैं कि वे किसे चुनेंगे – राम मंदिर बनाने वालों को या टीपू सुल्तान का गुणगान करने वालों को। प्रज्ञा का बयान भी कर्नाटक चुनाव की पृष्ठभूमि में आया है। इस तरह के बयान शासक दल की चुनाव जीतने की टूल किट का हिस्सा हैं। पार्टी के लिए पहचान से जुड़े मुद्दे सबसे महत्वपूर्ण हैं।

जैसे-जैसे कर्नाटक विधानसभा चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे लोगों को बांटने वाले वक्तव्यों और भाषणों की संख्या भी बढ़ रही है। भोपाल से लोकसभा सदस्य साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने कर्नाटक के शिमोगा में बोलते हुए कहा कि हिन्दू खतरे में हैं। उन्हें आक्रामक बनना होगा और अपनी लड़कियों को लव जिहाद से बचाना होगा। हिन्दुओं को शांत नहीं रहना चाहिए। उन्हें दुश्मनों से अपनी रक्षा के लिए हथियार रखने चाहिए। कम से कम उन्हें रसोईघर में काम आने वाले चाकू की धार तो तेज करवा ही लेनी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि हिन्दू धर्म के शत्रु लव जिहाद तो कर ही रहे हैं वे अन्य तरीकों से भी हिन्दुओं के लिए खतरा बने हुए हैं।

इसके पहले उन्होंने कहा था कि महात्मा गांधी का हत्यारा देशभक्त है और रहेगा। प्रज्ञा भाजपा सांसद हैं।  गोडसे की तारीफ करते हुए उनके बयान की प्रतिक्रिया में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि वे अपने दिल से प्रज्ञा को कभी माफ नहीं कर पाएंगे। भाजपा ने उनके खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही नहीं की बल्कि जहरीली बातें करने वालों को पदोन्नत करने की पार्टी की परंपरा के अनुरूप उन्हें रक्षा संबंधी संसद की स्थायी समिति का सदस्य बना दिया गया। हालांकि अब भी मोदीजी ने उन्हें दिल से माफ नहीं किया है।

प्रज्ञा भाजपा के साध्वी कुल से आती हैं। उनकी ही तरह साध्वी उमा भारती, साध्वी प्राची और अन्य समय-समय पर जहर उगलते रहते हैं। इन साध्वियों के पुरूष समकक्ष भी हैं। यति नरसिम्हानंद और बजरंग मुनि उभरते हुए सितारे हैं। उनकी वाणी इतनी गंदी होती है कि उसे प्रकाशित करना भी संभव नहीं होता और अगर संवैधानिक मानकों का पालन किया जाता तो वे न जाने कब से सींखचों के पीछे होते। इन लोगों में से प्रज्ञा समेत कई अन्यों ने संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ ली है। संविधान और हमारे देश का कानून धार्मिक समुदायों के बीच नफरत फैलाने को गंभीर अपराध मानता है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 153(ए) के तहत ऐसा करने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान है। परंतु चूंकि हमारी न्याय प्रणाली के एक बड़े हिस्से पर साम्प्रदायिक तत्व काबिज हैं इसलिए नफरत की तिजारत करने वाले मजे में हैं। उनमें से एक को भी अब तक सजा नहीं हुई है। अगर इसी तरह की बातें अल्पसंख्यक समुदाय का कोई व्यक्ति करता तो पुलिस और कानूनी मशीनरी को सक्रिय होने में कुछ घंटे भी नहीं लगते।

एक दूसरे स्तर पर नफरत फैलाने के लिए परिष्कृत तरीके भी इस्तेमाल किए जा रहे हैं। हमारे प्रधानमंत्री यह करने वाली ब्रिगेड के मुखिया हैं। गुजरात में सन् 2003 में चुनाव के दौरान उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को अपने प्रतिद्वंद्वी के रूप में प्रस्तुत किया था। उद्धेश्य था पाकिस्तानी तानाशाह को भारत के मुसलमानों से जोड़ना। इसी तरह जब 2002 में तत्कालीन चुनाव आयुक्त लिंगदोह ने यह कहा कि यह समय चुनाव करवाने के लिए उपयुक्त नहीं है तब मोदी हर भाषण में उनका पूरा नाम जेम्स माईकल लिंगदोह लेते थे। लक्ष्य था उनके निर्णय को उनके धर्म से जोड़ना।

मोदी के अन्य कथन भी ध्यान देने योग्य हैं। इनमें शामिल हैं “वे अपने कपड़ों से पहचाने जा सकते हैं” और बीफ के निर्यात की तरफ इशारा करने के लिए “पिंक रेवेल्यूशन”। असम में उन्होंने कहा था “कि घुसपैठियों (बांग्लादेशी मुसलमानों) के लिए जगह बनाने के लिए गैंडों को मारा जा रहा है”। एक अन्य भगवाधारी, योगी आदित्यनाथ ने, एक समुदाय विशेष को निशाना बनाने के लिए ‘अब्बाजान’ शब्द का प्रयोग किया था और यह भी कहा था कि चुनाव “80 प्रतिशत बनाम 20 प्रतिशत के बीच है”।’हम दो हमारे दो, वो 5 उनके 25′ जैसे नारे भी इसी गिरोह की उपज हैं। चुनाव के पहले मानो इस तरह के बयानों की बाढ़ आ जाती है।

कर्नाटक के संदर्भ में अमित शाह लोगों से पूछ रहे हैं कि वे किसे चुनेंगे – राम मंदिर बनाने वालों को या टीपू सुल्तान का गुणगान करने वालों को। प्रज्ञा का बयान भी कर्नाटक चुनाव की पृष्ठभूमि में आया है। इस तरह के बयान शासक दल की चुनाव जीतने की टूल किट का हिस्सा हैं। पार्टी के लिए पहचान से जुड़े मुद्दे सबसे महत्वपूर्ण हैं। जहां गृहमंत्री राम मंदिर का गाना गा रहे हैं वहीं हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि नेहरू ने भाखड़ा नंगल को आधुनिक भारत का तीर्थ बताया था। नेहरू ने शिक्षा, उद्योग, विज्ञान एवं तकनीकी आदि जैसे क्षेत्रों में अनेक संस्थानों की स्थापना की थी।

आज जब हम भारत की स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ मना रहे हैं तब हम कहां खड़े हैं? जिस महान संघर्ष ने हमें स्वतंत्रता दिलवाई उसने हम सबको एक किया था। हमारे लिए उद्योग और शैक्षणिक संस्थाएं विकास का पर्याय थीं। आज हम केवल लोगों को बांट रहे हैं। उनके बीच नफरत के बीज बो रहे हैं।

इस संदर्भ में भारत जोड़ो यात्रा के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। यह यात्रा समाज के सामने उपस्थित वास्तविक समस्याओं पर बात कर रही है और उन मूल्यों की याद दिला रही है जिन्होंने हमारे स्वाधीनता संग्राम को परिभाषित किया था। टीपू को खलनायक और राममंदिर को ट्राफी बताने से कुछ नहीं होगा। हमें गांधी और नेहरू की बताई राह पर चलना होगा। हमें नफरत से दूर रहना होगा और पहचान की राजनीति से तौबा करनी होगी।

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