इस अर्थव्यवस्था का अब क्या औचित्य?

आर्थिक गैर-बराबरी एक दशक से अधिक समय से दुनिया भर में चर्चा में है। इसलिए गैर-सरकारी संस्था ऑक्सफेम ने अपनी ताजा रिपोर्ट- सरवाइवल ऑफ द रिचेस्ट में जो बातें कहीं हैं, वे चौकाने वाली नहीं हैं।

दरअसल गैर-बराबरी का मुद्दा 2008 में अमेरिका से शुरू होकर दुनिया भर में फैली आर्थिक मंदी के बाद बने हालात में नए सिरे से उठा था। इसकी पृष्ठभूमि उसी मंदी से बनी थी। मंदी की शुरुआत आवासीय कर्ज का बबूला फटने से हुई। उसके पहले के वर्षों में अमेरिका में बिना कर्ज चुकाने की योग्यता का परीक्षण किए बैंकों और वित्तीय संस्थानों ने लाखों लोगों को आवासी ऋण दे दिए थे। इससे रियल एस्टेट बबल (बबूला) बना। जब बड़ी संख्या में लोग कर्ज चुकाने में असमर्थ हो गए, तो ये बबूला फटने लगा। उससे बैंकिंग सेक्टर संकट में फंस गया। उधर कर्ज चुकाने में अक्षम लोगों के मकान नीलाम होने लगे।

धीरे-धीरे इस परिघटना से पूरी अर्थव्यवस्था ही मंदी का शिकार हो गई। चूंकि दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी विश्व अर्थव्यवस्था के केंद्र में अमेरिकी अर्थव्यवस्था रही है, इसलिए उसका संकट धीरे-धीरे यूरोप से होते हुए सारी दुनिया में फैल गया। अनेक अर्थशास्त्रियों की राय है कि दुनिया अभी भी तक उसके असर से पूरी तरह नहीं उबरी है।

साल 2008 के राष्ट्रपति चुनाव में बराक ओबामा ने बैंकिंग व्यवस्था की गैर-जिम्मेदारी और तत्कालीन जॉर्ज डब्लू बुश प्रशासन की नाकामियों को मुद्दा बनाया और भारी बहुमत से जीते। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद उन्होंने बैंकों को तो बेलआउट पैकेज देकर संकट से निकाल लिया, लेकिन लाखों लोगों के हाथ से उनके नए बने मकान निकल गए। इससे लोगों में पैदा हुई नाराजगी 2011 में ‘Occupy Wall Street Movement’ (अमेरिका का प्रमुख शेयर बाजार न्यूयॉर्क के वॉल स्ट्रीट पर है) के रूप में सड़कों पर जाहिर हुई। Occupy Movement धीरे-धीरे यूरोप के विभिन्न देशों तक फैल गया। इस आंदोलन ने 99 बनाम एक प्रतिशत की बहस छेड़ी। इस बहस का सार यह था कि नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था ने समाज में ऐसी गैर-बराबरी पैदा की है, जिसकी वजह से सबसे धनी एक प्रतिशत लोगों के पास बाकी 99 फीसदी लोगों से अधिक संपत्ति इकट्ठी हो गई है।

इस बहस को फ्रांस के अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने 2013 में अपनी मशहूर किताब- ‘कैपिटल इन ट्वेंटीफर्स्ट सेंचुरी’ में आंकड़ों, सारणी और ग्राफ के साथ ठोस आधार प्रदान किया। इस किताब में पिकेटी ने r>g का अपना सिद्धांत पेश किया। यहां r का मतलब rent से मुनाफा (return) और g का अर्थ ग्रोथ है। पिकेटी ने कहा कि जब अर्थव्यवस्था में return rate (संपत्ति और जायदाद से होने वाली आमदनी की दर) ग्रोथ रेट (आर्थिक वृद्धि दर) से अधिक हो जाती है, तब उसका स्वाभाविक परिणाम गैर-बराबरी बढ़ने के रूप में सामने आता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि श्रम से होने वाली आमदनी का संबंध ग्रोथ से है, जबकि रेंट का संबंध पहले अर्जित की जा चुकी संपत्ति से है। ऐसे में संपत्तिवान लोगों का धन बढ़ता जाता है, जबकि श्रम आधारित लोगों की आय या तो स्थिर हो जाती है, या वास्तविक रूप में घटने लगती है।

बाद में ब्रिटेन में जेरमी कॉर्बिन के लेबर पार्टी का नेता बनने और उनके राजनीतिक कार्यक्रम- For the many not the few- तथा अमेरिका में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी पाने के बर्नी सैंडर्स के अभियान से यह बहस और आगे बढ़ी।

वैसे पिकेटी से काफी पहले माइकल हडसन जैसे अर्थशास्त्री पूंजीवाद के वित्तीय दौर में प्रवेश की व्याख्या करते हुए यह बता चुके थे कि कैसे इस दौर में दुनिया में एक बार फिर से रेंटियर इकॉनमी (यानी स्टॉक, बॉन्ड, ऋण पर ब्याज, बीमा प्रीमियम, रियल एस्टेट से कमाई करने वालों) का वर्चस्व कायम हो गया है। 18वीं और 19वीं सदी में यूरोप और अमेरिका में पूंजीवाद ने सामंती रेंटियर वर्ग से अर्थव्यवस्था को मुक्त कराया था। 20वीं सदी के आखिरी दशकों में आकर ये कहानी पलटने लगी और 21वीं सदी आकर एक बार फिर से रेंटियर वर्ग का शिकंजा कस गया है।

बढ़ती आर्थिक गैर-बराबरी अर्थव्यवस्था के स्वरूप में आए इसी बदलाव का परिणाम है। बीते एक दशक या उससे कुछ अधिक समय से ऑक्सफेम, क्रेटिड सुइसे, हुरुन आदि जैसी एजेंसियां या संस्थाएं इस बदलाव से क्या लक्षण उभर कर सामने आए हैं, इसका विवरण दुनिया के सामने रख रही हैं। इन तमाम रिपोर्ट्स से दुनिया को महत्त्वपूर्ण सूचनाएं मिलती हैं। मसलन, इस वर्ष की रिपोर्ट में यह बताया गया है कि,

· भारत में सिर्फ 21 अरबपतियों के पास 70 करोड़ देशवासियों से अधिक धन है

· भारत के सबसे धनी पांच प्रतिशत लोगों के पास देश का 60 फीसदी से अधिक धन है

· जबकि नीचे की आधी आबादी के पास देश का सिर्फ सिर्फ तीन प्रतिशत धन है।

इसी तरह ऑक्सफेम ने बताया है कि

· कोरोना महामारी के बाद के काल में जितना धन दुनिया में पैदा हुआ, उसका 63 फीसदी हिस्सा दुनिया के सबसे धनी एक प्रतिशत लोगों की जेब में चला गया। यह रकम करीब 26 ट्रिलियन डॉलर के बैठती है।

· यानी बाकी 99 प्रतिशत लोगों के हिस्से कुल पैदा हुए धन का सिर्फ 37 प्रतिशत हिस्सा आया।

ऐसा कैसे हुआ, इसका उल्लेख भी ऑक्सफेम ने किया है। उसने बताया है कि कोरोना काल में विभिन्न देशों की सरकारों ने ब्याज दरों में कटौती की और नोटों की छपाई कर मुद्रा निर्मित (money creation) की। इसका ज्यादा लाभ धनी तबकों को हुआ, जिन्होंने कर्ज लेकर शेयर मार्केट में निवेश किया या जायदाद खरीदे। इससे प्रोपर्टी की कीमत चढ़ी। नतीजतन, जिनके पास प्रोपर्टी या शेयर हैं, उनकी संपत्ति का मूल्य बढ़ गया।

बहरहाल, ये वो तमाम बातें हैं, जो हाल में चर्चा में रही हैं। लेकिन इस रिपोर्ट में सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली बात यह है कि जिस समय धनी लोगों के धन में चरम वृद्धि हुई, उसी समय चरम गरीबी में भी बढ़ोतरी हुई। रिपोर्ट जारी करते हुए ब्रिटेन में ऑक्सफेम के प्रमुख डैनी श्रीकंदराजा ने कहा- ‘आज का आर्थिक यथार्थ मानव मूल्यों का अपमान है। 25 वर्षों में पहली बार चरम गरीबी बढ़ी है और तकरीबन एक अरब लोग भुखमरी का शिकार हो गए हैं, जबकि हर दिन अरबपतियों के लिए तोहफे लेकर आया है।’ उन्होंने कहा- ‘हम एक ऐसी व्यवस्था को कैसे स्वीकार कर सकते हैं, जिसके तहत कई देशों में सबसे गरीब लोगों को सबसे धनी लोगों की तुलना में अधिक टैक्स देना पड़ रहा है।’

यह पहलू सबसे अहम इसलिए है, क्योंकि नव-उदारवाद के पैरोकार तर्क के आधार पर इस अर्थव्यवस्था का औचित्य बताते रहे हैं कि इसमें पैदा होने वाले धन के कारण समाज के सभी तबकों का जीवन स्तर सुधर रहा है। यह कहने के लिए ये जुमला गढ़ा गया था कि जब नदी में पानी आता है, तो सबकी नाव ऊंची होती है। इस बात को साबित करने के लिए बीते तीन दशकों में दुनिया में घटी चरम गरीबी के आंकड़े पेश किए जाते थे। विश्व बैंक की तरफ से दी गई गरीबी अत्यंत न्यून परिभाषा के आधार पर ट्रिकल डाउन (ऊपर से रिस कर सब तक थोड़ा-थोड़ा धन पहुंचने) की कहानी बताई जाती थी। इसी प्रयास के तहत मध्य वर्ग का कथानक भी बुना गया और अमेरिकी जीवन स्तर का हवाला देकर बताया गया कि वहां मुक्त अर्थव्यवस्था कैसे खुशहाल मध्य वर्ग की श्रेणी में आबादी के सबसे बड़े हिस्से को शामिल करने में सफल रही।

लेकिन ऑक्सफेम की ताजा रिपोर्ट बताती है कि कोरोना काल के बाद के दौर में जिस समय अकूत धन पैदा हुआ, उसी समय चरम गरीबी बढ़ी है। उसी समय दुनिया में हर आठ एक व्यक्ति भुखमरी का शिकार हो गया है। इसके पहले अमेरिकी संस्था Pew Research यह बता चुकी है कि कोरोना काल के बाद किसी तरह विभिन्न देशों में मध्य वर्ग सिकुड़ा है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि बड़ी संख्या में मध्य वर्ग के लोग वापस गरीबी रेखा के नीचे चले गए। मसलन भारत के बारे में अपने अध्ययन से इस संस्था ने बताया था कि यहां की नौ करोड़ मध्यवर्गीय आबादी का एक तिहाई हिस्सा वापस गरीब हो गया है।

तो इससे नदी में पानी आने पर सबकी नाव ऊंची होने का दावा निराधार साबित हो गया है। असल में यह हुआ कि नदी में खूब पानी आया, जिससे विलासितापूर्ण क्रूज तो अकल्पनीय रूप से ऊंचे हो गए, लेकिन किसी तरह अपनी जीवन नैया को चला रहे लोगों की छोटी-मोटी नौकाएं डूब गईं।

तो यह सहज प्रश्न उठता है कि अब नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था का क्या औचित्य बचता है? क्या किसी तर्क के आधार पर अब इसे वैध व्यवस्था ठहराया जा सकता है? ऑक्सफेम या विषमता पर रिपोर्ट निकालने वाली दूसरी संस्थाएं यह सवाल नहीं उठाती हैं। इसकी वजह खुद उनकी अपनी संचरना और फंडिंग के स्रोतों में है। यह बुनियादी सवाल उठाने के बजाय वे ऐसे सुझाव देती हैं कि कितना वेल्थ, इनहेरिटेंस (उत्तराधिकार) या कैपिटल गेन्स (पूंजीगत लाभ) टैक्स लगाया जाए, तो उससे कितनी रकम प्राप्त हो सकती है और उससे स्वास्थ्य-शिक्षा जैसे जन-कल्याण के क्षेत्रों में क्या-क्या किया जा सकता है। संभव है कि सुझावों का गणित सही हो, लेकिन ये बातें पॉलिटिकल इकॉनमी (राजनीतिक अर्थव्यवस्था) की एक तरह की नासमझी या उस समझ से नजर चुराए रखने के नजरिए से निकलती हैं।

इसलिए कि मोनोपॉली (इजारेदारी) या रेंटियर इकॉनमी के दौर में व्यवस्था को संचालित सरकारें नहीं कर रही हैं। बल्कि वे खुद इजारेदार सरमायादारों (monopoly capitalists) और रेंटियर समूहों के हित साधने की एजेंसी बन गई हैँ। 20वीं सदी में तत्कालीन वैश्विक परिस्थितियों के बीच जरूर ही ऐसी धारणा या समझ प्रचलित हुई थी, जिसमें सरकारों को विभिन्न सामाजिक वर्गों के हितों के बीच तालमेल बनाने वाली एजेंसी माना गया था। लेकिन 1990 के बाद जिस तरह की FIRE (फाइनेंस, इश्योरेंस, रियल एस्टेट) economy उभरी, उसमें सरकारों की स्वतंत्र भूमिका संदिग्ध हो चुकी है।

इसलिए जो बात है, असल में बात को उसी जगह पर लाने की जरूरत है। बात यह है कि आर्थिक गैर-बराबरी की जड़ें नव-उदारवादी/पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अंतर्निहित हैं। जब तक ये जड़ें जमीन के अंदर थीं या उनसे निकले पौधे छोटे थे, तब तक असल कहानी को ढकने के लिए ‘नदी में पानी आने’ जैसे जुमले आकर्षक बने रहे। लेकिन अब जबकि वे पौधे पेड़ के रूप सामने आ चुके हैं, अर्थव्यवस्था के इस स्वरूप का औचित्य बता पाना किसी के लिए भी मुश्किल हो गया है।

तो असल मुद्दा अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका का है। ऑक्सफेम की ताजा रिपोर्ट का सीधा संदेश है कि अगर अर्थव्यवस्था राज्य नियोजित (planned by state), राज्य नियंत्रित (state controlled) और राज्य निर्देशित (directed by state) नहीं होगी, तो उसका वही परिणाम होगा, जो अब दिख रहा है। लेकिन आज की स्थिति में राज्य यह भूमिका अपने हाथ में लेने में अक्षम हो गया है। तो मुद्दा यह है कि राज्य को कैसे इजारेदार पूंजी के कब्जे से छीन कर श्रमिक वर्ग और आम जन अपने हाथ में लें। इस बात से अलग किसी चर्चा को असल में असल सवाल से ध्यान भटकाने की कोशिश ही माना जाना चाहिए।

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Published by सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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