भारत और जापान को नजदीक लाने में चीन का भय एक महत्वपूर्ण कारक है।जापानी विदेशमंत्री ने हाल ही में कहा है-जापान, भारत के साथ मिलकर वैश्विक चुनौतियों का मुकाबला करना चाहता है।
पंद्रह साल पहले, सन् 2007 में, जापान के तत्कालीन प्रधानमंत्री आबे शिनजो ने मुगल शहजादे दाराशिकोह की पुस्तक ‘मज़मा-उल-बहरीन’ (दो समुद्रों का संगम), जो हिन्दू धर्म और इस्लाम की आध्यात्मिक एकता के बारे में थी और जिसे लिखने की कीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी, का हवाला देते हुए भारत की संसद में एक जोरदार भाषण दिया था। उन्होंने कहा था-हिन्द और प्रशांत महासागरों को संयुक्त सामरिक क्षेत्र के रूप में देखा जा सकता है और इन दोनों में जापान और भारत के साझा हित हैं।
और उसके बाद प्रधानमंत्री आबे शिनजो और प्रधानमंत्री डा मनमोहनसिंह ने दोनों देशों का जो साझा सफर बनाया तो अब कह सकते है कि हमसफर को मालूम है साझा दुश्मन! उससेभूराजनीति और सामरिक-सुरक्षा का साझा बहुत गहरा हो गया है।दुनिया के सबसे बड़े दो लोकतांत्रिक देशों, सबसे बडा भारत और सबसे अमीर जापानी लोकतंत्रके परस्पर रिश्तों में कूटनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा सरोकारों में परस्पर विश्वास तथा सम्मान की रियलिटी भी है। शीतयुद्ध के समयऐसा नहीं था। भारत और जापान तब विरोधी शिविरों में थे।हालांकि वैसा मौजूदा यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में लग सकता है। क्योंकि भारत का स्टेड जापान जैसा नहीं है। मगर रूस भले भारत के लिए पुराने रिश्तों के कारण मतलब है। मगर चीन तो भारत और जापान दोनों के लिए स्थाई संकट है। इसलिए विश्व राजनीति की मौजूदा खींचतान में यह कम दिलचस्प नहीं जो जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ठीक उसी समय भारत की 24 घंटे की यात्रा पर हैं जब चीन के राष्ट्रपति शी जिंन पिंग, पुतिन से मिलने के लिए दो दिन की रूस यात्रा पर हैं।
किशिदा, यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के खिलाफ मुखर हैं। वे लगातार पूर्वी और दक्षिण चीन सागर के घटनाक्रम को लेकर चिंता में हैं। कुछ माह पहले किशिदा ने जापान के रक्षा खर्च को अगले पांच सालों में दोगुना करने का ऐलान किया था ताकि जापान जवाबी हमला करने की क्षमता विकसित करके चीन के विस्तारवादी इरादों से निपट सके।इधर भारत भी सीमा को ले कर चिंता में है। भारत-चीन सीमा पर तनाव स्थायी हो गया है।इसलिए किशिदा की भारत यात्रा के पहले जापानी विदेशमंत्री योशिमासा हयाशी का यह कहा अंहम है कि जापान, भारत के साथ मिलकर वैश्विक चुनौतियों का मुकाबला करना चाहता है।
संदेह नहीं कि भारत और जापान को नजदीक लाने में चीन का भय एक महत्वपूर्ण कारक है।जापान दो दशक से भारत को निवेश मदद और तकनीकी सहायता उपलब्ध करवाने में सक्रिय रहा है। मेट्रो, रेलवे, उत्तर-पूर्व में इंफ्रास्ट्रक्चर विकास और संयुक्त सैन्य अभ्यास दोनों देशों के बीच बढ़ते सहयोग के उदाहरण हैं।
बावजूद इसके क्या जापान और भारत के संबंध क्या गहरे है?उतने नहीं जितने होने चाहिए। यों कहने को दोनों देशों ने अनेक रक्षा उपकरण हस्तांतरण समझौते किए हैं परंतु रक्षा क्षेत्र में जमीनी स्तर पर कुछ खास आदान-प्रदान नहीं हुआ है। जापान, भारत को धरती और पानी दोनों पर उतरने में सक्षम हवाईजहाज बेचना चाहता था। सौदा नहीं पटा क्योंकि भारत को वे महंगे लगे। भारत, जापान से पनडुब्बियां खरीदना चाहता था परंतु बात इसलिए नहीं बनी क्योंकि जापान तकनीकी ट्रांसफर को ले कर दुविधा में था।
जापान के पूर्व प्रधानमंत्री आबे से मौजूदा प्रधानमंत्री किशिदा अलग मिजाज के है। किशिदा यूक्रेन मसले पर भारत के रूख से हैरान है। इसलिए किशिदा की दिल्ली यात्रा भी भारत को चीन-रूस की धुरी से दूर रखने के मिशन में होगी। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और किशिदा की बातचीत में द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाने पर फोकस नहीं होगा। ध्यान रहे जापान अभी अमीरतम जी-7 देशों कीबैठक का मेजबान है वही भारत जी-20 का मेजबान। इन महत्वपूर्ण बैठकों की तैयारी भी इस यात्रा के एजेंडा में होगी। मोटा मोटी माना जा सकता है कि भारत और जापान दोनों क्योंकि चीन से सुरक्षा की गंभीर चिंता में हैतो किशिदा की दिल्ली यात्रा से भारत और जापान का साझा और मजबूत नहीं हो, यह संभव ही नहीं है।(कॉपी: अमरीश हरदेनिया)