सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की संसदीय पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने बहुत दो टूक अंदाज में कहा है कि सदन के अंदर सांसदों को जो विशेषाधिकार मिले होते हैं उनमें रिश्वत लेने की छूट शामिल नहीं है। अदालत ने कहा कि विशेषाधिकार इसलिए दिया गया है ताकि सांसद किसी भी विषय पर खुल कर अपनी राय रख सकें।
बहस और विचार विमर्श में किसी तरह की बाधा नहीं आए, वह बेबाक हो, हर पहलू को समेटे हुए हो इसके लिए विशेषाधिकार का प्रावधान किया गया है। इस टिप्पणी के साथ ही सर्वोच्च अदालत ने 26 साल पहले हुई एक गलती को सुधार दिया। अदालत का यह फैसला दूरगामी असर वाला साबित होगा और इससे संसद के दोनों सदनों के साथ साथ राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही को भी स्वच्छ, स्वतंत्र और पारदर्शी बनाने में मदद मिलेगी।
अदालत के इस फैसले को समझने के लिए 1993 के जेएमएम रिश्वत कांड और 1998 में आए फैसले के साथ साथ 2012 के मुकदमे के बारे में जानने की जरुरत है। तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की अल्पमत सरकार पर आरोप लगे थे कि उसने 1993 में बहुमत साबित करने के लिए झारखंड मुक्ति मोर्चा के सांसदों को रिश्वत दी थी। पार्टी सुप्रीमो शिबू सोरेन सहित कई सांसद इसमें शामिल पाए गए थे। लेकिन उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई थी क्योंकि सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) की व्याख्या करते हुए तीन-दो के बहुमत से फैसला सुनाया था कि संसद के अंदर सांसदों को हासिल विशेषाधिकार के तहत इस मामले में सांसदों पर आपराधिक मुकदमा नहीं चल सकता है।
तब से यह स्थिति बनी हुई थी कि विशेषाधिकार के तहत रिश्वत लेना भी शामिल है। यानी कोई सांसद या विधायक अगर रिश्वत लेकर वोट करता है या सवाल पूछता है या बहस में हिस्सा लेता है तो उसके खिलाफ संसद या विधानसभा से बाहर मुकदमा नहीं चल सकता है।
इतिहास कैसे त्रासदी के रूप में अपने को दोहराता है वह इस मामले में दिखा, जब 2012 के राज्यसभा चुनाव में शिबू सोरेन की बहू सीता सोरेन के ऊपर रिश्वत लेकर निर्दलीय विधायक को वोट देने का आरोप लगा। जब उनके ऊपर मुकदमा कायम हुआ तो उन्होंने अपने ससुर के मामले में आए 1998 के फैसले का हवाला दिया और अपने लिए मुकदमे से छूट मांगी। इसी मामले में 2014 से नए सिरे से 1998 के फैसले की समीक्षा शुरू हुई। पहले तीन जजों की बेंच ने सुनवाई की।
फिर मामला पांच जजों की बेंच के पास गया और अंत में तय हुआ कि जब पहला फैसला पांच जजों की बेंच का है तो उससे बड़ी बेंच को इस पर विचार करना चाहिए ताकि स्पष्टता आ सके। चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में सात जजों की बेंच ने दो दिन यह मामला सुना और फैसला सुरक्षित रख लिया। अब अदालत ने एक राय से पुराने फैसले को पलट दिया है और कहा है कि घूस लेना विशेषाधिकार नहीं है।
अदालत ने कहा है कि घूस लेना अपने आप में एक आपराधिक मामला है। घूस लेने के बाद इस बात का कोई मतलब नहीं रह जाता है कि आपने जिस काम के लिए घूस लिया वह काम किया या नहीं। अगर किसी सांसद ने वोट देने के लिए रिश्वत ली है तो इससे मुकदमे की गुणवत्ता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि रिश्वत लेने के बाद उसने वोट दिया या नहीं या रिश्वत देने वाले के हिसाब से उसने संसद में बात की या नहीं। रिश्वत लेते ही अपराध का मामला बन जाता है।
सो, सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुत स्पष्ट और दो टूक है। उम्मीद करनी चाहिए कि इससे संसद और राज्यों की विधानसभाओं की कार्यवाही पहले से स्वच्छ होगी और ओवरऑल देश की राजनीति पर इसका सकारात्मक असर होगा। राजनेताओं की साख बेहतर करने में इस फैसले की अहम भूमिका हो सकती है।
इस सकारात्मक पहलू के बावजूद जेएमएम की विधायक सीता सोरेन की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करने वाले वकील राजू रामचंद्रन ने जो दलीलें दीं और जो सवाल उठाए उनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है। उन्होंने सांसदों के विशेषाधिकार की मौजूदा व्याख्या को अधूरा और एकपक्षीय बताया। उन्होंने कहा कि सिर्फ रिश्वत लेकर वोट डालने के मामले पर विचार करने की बजाय सांसदों के आचरण, भाषण आदि पहलुओं पर भी विचार करना चाहिए।
असल में अदालत के सामने मौका था कि वह अनुच्छेद 105 और अनुच्छेद 194 की व्यापक व्याख्या करती और घूस के साथ साथ दूसरे पहलुओं को भी शामिल करती। इसमें कोई संदेह नहीं है कि संसदीय विशेषाधिकार के तहत घूस लेने का अधिकार नहीं आता है। लेकिन क्या किसी सदन के अंदर किसी साथी सांसद को अपशब्द कहना या उसकी जाति या समुदाय को निशाना बना कर टिप्पणी करना संसदीय विशेषाधिकार के दायरे में आएगा?
गौरतलब है कि संसद की नई इमारत में आयोजित पहले सत्र में भाजपा के सांसद रमेश विधूड़ी ने बहुजन समाज पार्टी के सांसद दानिश अली को अपशब्द कहे थे। उनके मामले में लोकसभा के स्पीकर को फैसला करने वाला अंतिम प्राधिकर माना गया। तभी सवाल है कि क्या उस मामले में भी आपराधिक मुकदमा नहीं कायम होना चाहिए था?
और अगर अभद्र या असंसदीय टिप्पणी करने पर कार्रवाई का अधिकार सदन के पीठासीन पदाधिकारी को है तो घूस के मामले में भी कार्रवाई का अधिकार उसी को क्यों नहीं होना चाहिए? ध्यान रहे पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले में पहले लोकसभा ने कार्रवाई की थी। कोई 20 साल पहले 2005 में यह मामला आया था, जब लोकसभा के 10 और राज्यसभा के एक सांसद को पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले में बर्खास्त कर दिया गया था।
इसी तरह पैसे या उपहार लेकर लोकसभा में सवाल पूछने के आरोप में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा के खिलाफ आचरण समिति की सिफारिश पर कार्रवाई हुई और उनकी सदस्यता समाप्त कर दी गई। अब उनके खिलाफ आपराधिक मुकदमा भी चलेगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एक बड़ा सवाल यह है कि आगे जब किसी सांसद या विधायक पर रिश्वत लेकर सदन के अंदर कोई काम करने का आरोप लगेगा तो क्या दोहरी कार्रवाई होगी या एक बार ही कार्रवाई होगी?
क्या ऐसा हो सकता है कि आरोप लगते ही सदन का पीठासीन अधिकारी आचरण समिति को मामले भेजे और उसकी सिफारिश पर संबंधित सदस्य की सदस्यता खत्म कर दे और उसके बाद संसद से बाहर पुलिस या कोई दूसरी एजेंसी भ्रष्टाचार का मुकदमा कायम करे? अगर ऐसा होगा तो यह प्राकृतिक न्याय के उलट होगा।
कायदे से यह होना चाहिए कि आरोप लगने पर या तो संबंधित सदन कोई कार्रवाई करे या सदन से बाहर मुकदमा अदालत में ही चले। अगर दोहरी कार्रवाई होती है तो अन्याय की गुंजाइश रहेगी। ध्यान रहे महुआ मोइत्रा अगर जांच और अदालती कार्रवाई में बरी हो जाती हैं तो फिर उनकी खत्म की गई सदस्यता का क्या होगा? फैसले के इस पहलू पर स्पष्टता की जरुरत है।
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