कांग्रेस नेता राहुल गांधी का इन दिनों अन्य पिछड़ी जातियों पर प्रेम उमड़ा है। वे हर जगह जाकर पूछ रहे हैं कि पिछड़ी जातियों की आबादी कितनी है और शासन व प्रशासन में उनकी हिस्सेदारी कितनी है। यहां तक कि उन्होंने नई दिल्ली के कांग्रेस मुख्यालय में प्रेस कांफ्रेंस में पूछा कि यहां मौजूद पत्रकारों में से कितने ओबीसी हैं और कितने दलित हैं। इससे पहले उन्होंने बताया था कि भारत सरकार के 90 सचिवों में से सिर्फ तीन ओबीसी समुदाय के हैं।
इस बात को उन्होंने कुछ अलग प्रतीकों के साथ मध्य प्रदेश में कांग्रेस की जनसभा में लोगों को समझाया। उनके ओबीसी प्रेम की अचानक आई सुनामी में अनेक पत्रकार, यूट्यूबर्स, नेता और गैर सरकारी संगठनों से जुड़े लोग बह रहे हैं। कहीं न्यूज रूम की डायवर्सिटी पर बात हो रही है तो कहीं ब्यूरोक्रेसी में विविधता की चर्चा हो रही है तो कहीं राजनीतिक पदों पर पिछड़ों की भागीदारी बढ़ाने की बातें हो रही हैं।
अभी चुनाव हैं इसलिए ये सारी बातें चलती रहेंगी। लेकिन सवाल है कि जब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी तो पिछड़ों की क्या स्थिति थी और कांग्रेस पार्टी के अंदर अभी पिछड़े नेताओं की क्या स्थिति है, इसके बारे में राहुल गांधी ने कुछ सोचा है? अभी जिन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है वहां कितने सचिव किस जाति के हैं इसका कोई आंकड़ा राहुल गांधी के पास है? इससे भी बड़ा सवाल यह है कि पिछड़ों के अधिकारों को कम करने वाली जो नीतियां बनी हैं उनमें से कांग्रेस ने किस नीति का विरोध किया? भाजपा की सरकार जो नीतियां बना रही है और कांग्रेस, जिसका काम गुण-दोष के आधार पर उन नीतियों का आकलन करने का है उसने किस नीति का विरोध किया?
कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में यह संकल्प पास किया गया कि सरकारी नौकरियों और दाखिले में ओबीसी की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाई जाएगी। सवाल है कि क्या कार्य समिति के सदस्यों और कांग्रेस नेताओं को पता नही है कि आरक्षण की सीमा पहले ही बढ़ाई जा चुकी है? खुद सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि इंदिरा साहनी केस में उसने 50 फीसदी आरक्षण की जो सीमा लगाई थी वह इतनी पवित्र नहीं है कि उसे पार नहीं किया जा सके।
आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग यानी ईडब्लुएस के लिए केंद्र सरकार ने जब 10 फीसदी आरक्षण का कानून पास किया तो यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था और तब अदालत ने कहा था कि सरकारें जरूरत के हिसाब से इस सीमा को बढ़ा सकती हैं। सर्वोच्च अदालत ने अनुसूचित जाति, अनुसचित जनजाति और पिछड़ी जातियों के 49.5 फीसदी आरक्षण की सीमा के ऊपर 10 फीसदी ईडब्लुएस आरक्षण के कानून को संवैधानिक माना था।
तभी पहली बात तो यह है आरक्षण की अधिकतम सीमा पहले ही टूट चुकी है। उसे तोड़ने के लिए अलग से कोई कानून बनाने की जरूरत नहीं है। खुद कांग्रेस के शासन वाले राज्य छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल की सरकार ने आरक्षण की सीमा बढ़ा कर 76 फीसदी कर दिया है। अब इससे जुड़ा सवाल यह है कि ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाने की बात कर रही कांग्रेस का ईडब्लुएस आरक्षण पर क्या रुख था? कांग्रेस ने गरीब सवर्णों के आरक्षण का समर्थन किया था।
क्या तब राहुल गांधी को यह ख्याल नहीं आया था कि पूरे देश में 10 से 15 फीसदी आबादी वाली जातियों के लिए 10 फीसदी आरक्षण की व्यवस्था हो रही है और 50 फीसदी से ज्यादा आबादी वाले ओबीसी के लिए सिर्फ 27 फीसदी आरक्षण है? उस समय क्या राहुल गांधी को यह सवाल नहीं उठाना चाहिए था कि पहले ओबीसी आरक्षण में बढ़ोतरी की जाए और उसके बाद ही गरीब सवर्णों के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो? लेकिन तब कांग्रेस ने कुछ नहीं कहा और आरक्षण के इस बड़े नीतिगत फैसले का समर्थन किया।
इसी तरह महिला आरक्षण का मामला आया तो कांग्रेस ने अपनी पूरी क्षमता से उसका समर्थन किया। यहां तक कि लोकसभा में बिल पेश हुआ तो सदन में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने बिल का श्रेय लेने की कोशिश की। कांग्रेस के लगभग सभी नेताओं ने कहा कि यह बिल कांग्रेस का है। सोचें, जिस बिल में ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान नहीं है उसका भी कांग्रेस ने समर्थन किया। कांग्रेस ने खुद भी ऐसा ही बिल बनाया था, जिसे मार्च 2011 में पास कराया गया था। उस बिल में भी आरक्षण के भीतर आरक्षण का प्रावधान नहीं था।
बिना ओबीसी आरक्षण के महिला आरक्षण बिल पास कराने में संपूर्ण सहयोग के बाद अब राहुल गांधी उस बिल में कमी निकाल कर उस पर सवाल उठा रहे हैं और कांग्रेस के पुराने बिल पर माफी मांगते हुए कह रहे हैं कि कांग्रेस को उस समय पिछड़ी जाति की महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान करना चाहिए था। ईडब्लुएस आरक्षण के बाद महिला आरक्षण दूसरा बड़ा नीतिगत मामला था, जिसका कांग्रेस ने समर्थन किया।
इसी तरह मेडिकल में दाखिले के लिए नेशनल इलिजिबिलिटी कम एंट्रेस टेस्ट यानी नीट की अखिल भारतीय परीक्षा का कानून 2012 में केंद्र की कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकार ने बनाया था। उसमें स्पष्ट दिख रही कमियों के बावजूद कांग्रेस ने इस बिल को आगे बढ़ाया। मई 2013 में पूरे देश में मेडिकल में दाखिले के लिए नीट की परीक्षा हुई। हालांकि तब यह मामला कानूनी पचड़े में फंस गया। अंत में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद 2016 से इसे संविधानसम्मत माना गया और अब पूरे देश में मेडिकल की पढ़ाई के लिए दाखिला नीट से होता है।
इसमें ढेर सारी कमियां और भेदभाव है, जिसके खिलाफ तमिलनाडु सरकार सबसे ज्यादा गंभीरता से लड़ रही है। अभी पिछले दिनों मेडिकल के पीजी कोर्स में दाखिले के लिए कटऑफ मार्क्स जीरो कर दिया गया। इसका सीधा फायदा अमीर लोगों को होगा। बहरहाल, नीट की परीक्षा में जो ऑल इंडिया कोटा है उसमें ओबीसी आरक्षण का प्रावधान केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है। जब कांग्रेस सरकार ने कानून बनाया था तब ऑल इंडिया कोटा में आरक्षण नहीं था।
अगर राजनीतिक मामले में देखें तो कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि उसके चार में से तीन मुख्यमंत्री ओबीसी हैं लेकिन ऐतिहासिक रूप से कांग्रेस ने बहुत कम ओबीसी मुख्यमंत्री बनाए हैं। आजादी के बाद से कांग्रेस ने ढाई सौ मुख्यमंत्री बनाए हैं, जिनमें से सिर्फ 43 ओबीसी थे, जबकि भाजपा के 68 मुख्यमंत्रियों में से 21 ओबीसी रहे हैं। अभी भी मल्लिकार्जुन खड़गे ने जो कार्य समिति बनाई है उसके 84 सदस्यों में से 43 यानी 50 फीसदी से ज्यादा सवर्ण हैं और पिछड़ी जातियों के सिर्फ 16 लोग हैं यानी पिछड़ों की महज 19 फीसदी हिस्सेदारी है। एकाध अपवाद छोड़ दें तो तमाम बड़े राज्यों में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सवर्ण हैं।
बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, केरल आदि राज्यों में सवर्ण अध्यक्ष हैं। कर्नाटक में वोक्कालिगा और तेलंगाना में रेड्डी अध्यक्ष हैं। पंजाब और दिल्ली में जाट सिख हरियाणा, उत्तराखंड में एससी और छत्तीसगढ़ व पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में एसटी अध्यक्ष हैं। बड़े राज्यों में ले-देकर एक महाराष्ट्र दिख रहा है, जहां पिछड़ी जाति का अध्यक्ष है। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि कांग्रेस के सुप्रीम लीडर राहुल गांधी खुद अपने को कौल ब्राह्मण बता चुके हैं और दूसरी ओर भाजपा के सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी खुल कर अपने को अति पिछड़ी जाति का बताते हैं। असली मामला तो सर्वोच्च नेता का ही होता है बाकी उसके मातहत कितने कर्मचारी किस जाति के हैं इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता है।
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