फ़िल्मी विमर्श में पिछले साल की छाया

फ़िल्मी विमर्श में पिछले साल की छाया

श्रीराम राघवन का कमाल देखिए कि कटरीना कैफ़ जो अब तक केवल हीरोइन हुआ करती थीं, पहली बार एक अच्छी अभिनेत्री लगी हैं। ध्यान रहे, छह साल पहले ‘अंधाधुन’ ने बॉक्स ऑफ़िस पर साढ़े चार सौ करोड़ की कमाई की थी और लगभग सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में उसके रीमेक बने थे। फ्रेंच लेखक फ़्रेडरिक दा के उपन्यास ‘ला मोंटे चार्ज’ पर बनी ‘मैरी क्रिसमस’ उतनी चले या नहीं, लेकिन श्रीराम राघवन इससे अपनी निर्देशकीय यात्रा में एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं।

परदे से उलझती ज़िंदगी

बेहतर होता कि ‘मैरी क्रिसमस’ 25 दिसंबर के आसपास रिलीज़ की जाती। वैसे श्रीराम राघवन इसी तैयारी में थे, लेकिन तब तक वे इसके पोस्ट प्रोडक्शन का काम पूरा नहीं कर पाए। अगर कर लेते तो हम यह नहीं जान पाते कि वे जनवरी के लगभग मध्य में पहुंच कर भी क्रिमसम का एक थ्रिलिंग तिलिस्म बुन सकते हैं। राघवन ‘एक हसीना थी’, ‘जॉनी ग़द्दार’ और ‘एजेंट विनोद’ पहले बना चुके थे, लेकिन चर्चा में आए ‘बदलापुर’ और फिर ‘अंधाधुन’ से। ‘मैरी क्रिसमस’ उनकी छठी फ़िल्म है जिसकी केंद्रीय भूमिकाओं में उन्होंने कटरीना कैफ़ के साथ विजय सेतुपति को लिया है। तीस-पैंतीस साल पहले, मुंबई जब बंबई हुआ करता था, तब क्रिसमस की एक रात कहीं बाहर से आया एक पुरुष और अपनी बेटी को गोद में लिए एक महिला अचानक मिलते हैं। दोनों अजनबी हैं, लेकिन क्रिसमस है और दोनों पार्टी करना चाहते हैं। इसके लिए महिला उसे अपने घर ले जाती है, लेकिन वहां उसके पति की लाश मिलती है। यहीं से सनसनी शुरू होती है। गिने-चुने पात्र और सब कुछ एकदम सहज। मगर इसी सहजता के बीच कहीं कोई धोखा है।

धीमी, पर कसी हुई रोमांचक कहानी। आधी कहानी परदे पर चलती है और आधी आपके दिमाग में। मगर आपके ज़्यादातर पूर्वानुमान व्यर्थ जाते हैं। यह फ़िल्म विजय सेतुपति को हिंदी में और ज़्यादा स्थापित करेगी। संजय कपूर, राधिका आप्टे और विनय पाठक पहले भी अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं, लेकिन श्रीराम राघवन का कमाल देखिए कि कटरीना कैफ़ जो अब तक केवल हीरोइन हुआ करती थीं, पहली बार एक अच्छी अभिनेत्री लगी हैं। ध्यान रहे, छह साल पहले ‘अंधाधुन’ ने बॉक्स ऑफ़िस पर साढ़े चार सौ करोड़ की कमाई की थी और लगभग सभी दक्षिण भारतीय भाषाओं में उसके रीमेक बने थे। फ्रेंच लेखक फ़्रेडरिक दा के उपन्यास ‘ला मोंटे चार्ज’ पर बनी ‘मैरी क्रिसमस’ उतनी चले या नहीं, लेकिन श्रीराम राघवन इससे अपनी निर्देशकीय यात्रा में एक कदम आगे बढ़ने वाले हैं।

नए साल की यह पहली अहम फ़िल्म है, हालांकि अभी भी हम पिछले साल की फ़िल्मों की चर्चा से बाहर नहीं आ सके हैं। हर नये साल पर यही होता है। बीते साल की परछाईं हफ़्तों तक आपका पीछा नहीं छोड़ती। धीरे-धीरे अपने मन और यादों की श्रृंखला में कुछ एडजस्टमेंट करने के बाद आप उससे मुक्त हो पाते हैं। तब धुंध छंटती है और तस्वीर साफ़ होती है कि किस चीज़ को किस खाते में रखा जाए और किस साल के हवाले किया जाए। लेकिन मुश्किल यह है कि आप घटनाओं को तो तारीख़ों में बांट सकते हैं। उनके प्रभाव को कैसे बांटेंगे? वह तो दूर तक जाता है। उससे भी ज़्यादा मुश्किल यह है कि अच्छी चीज़ों का असर शायद साल के साथ समाप्त हो जाता है जबकि उस साल जो कुछ बुरा घटा था वह आपकी तमाम सदिच्छाओं को भेद कर और नए साल के जश्न के पार जाकर भी आपको परेशान करता है। निजी और सार्वजनिक, दोनों फलक पर यही होता है। मसलन, आप यह नहीं कह सकते कि देश की राजनीति में इन दिनों जो कुछ चल रहा है उसमें पिछले साल के विधानसभा चुनावों के नतीजों का कोई हाथ नहीं है। टीम इंडिया लगातार खेल रही है, पर पिछले साल के वर्ल्ड कप की हार के बाद की उधेड़बुन अभी ख़त्म नहीं हुई है। तो ‘बीत गया सो रीत गया’ हर जगह लागू नहीं होता। यह बात राजनीति, न्यायपालिका, अर्थव्यवस्था और मीडिया के विमर्श के लिए भी सही है और फ़िल्मों के लिए भी।

इसीलिए अभी भी उन फ़िल्मों की चर्चा ख़त्म नहीं हुई है जो पिछले साल के अंतिम दौर में रिलीज़ हुई थीं। जैसे ‘सालार’ और ‘बारहवीं फ़ेल’ की पर्याप्त और ‘डंकी’ की कामचलाऊ सफलता का ज़िक्र अभी चल ही रहा है। लेकिन उनसे भी पहले रिलीज़ हुई ‘एनीमल’ ने बहस में बने रहने के सभी रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। इन्हीं के आसपास रिलीज़ हुई ‘जोरम’ और ‘थ्री ऑफ़ अस’ पर उतनी चर्चा नहीं हो रही जितनी ‘एनीमल’ की हो रही है। और वह भी केवल उसकी कामयाबी की वजह से नहीं, बल्कि इस बात पर हो रही है कि यह कामयाबी क्या दिखा कर हासिल की गई।

पिछले साल अपनी तीनों फ़िल्मों के हिट होने से प्रसन्न शाहरुख खान भी इस बहस में कूद पड़े हैं। हाल में उन्हें एक टीवी चैनल की तरफ़ से सम्मानित किया गया। इसी कार्य़क्रम में उन्होंने कहा कि मैं एक आशावादी व्यक्ति हूं जो सुखद कहानियां सुनाता है। मैं अच्छे काम करने वाली भूमिकाएं निभाता हूं जो उम्मीद और खुशी देती हैं। आगे उन्होंने कहा कि अगर मैं किसी बुरे आदमी की भूमिका करता हूं तो यह भी तय करता हूं कि उसे बहुत तकलीफ़ सहनी पड़े और वह कुत्ते की मौत मरे, क्योंकि मेरा मानना है कि अच्छाई से ही अच्छाई पैदा होती है। उन्होंने कहीं भी ‘एनीमल’ का नाम नहीं लिया, लेकिन जिस बात की ज़माने भर को ख़बर हो उसे कहने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

शाहरुख ने अपनी बात व्यंग्यात्मक लहज़े में बिना नाम लिए कही थी। मगर जावेद अख़्तर ने इस बारे में कोई परदा नहीं रखा। परदा रखते हुए आप किसी बहस का कोई मुद्दा तैयार भी नहीं कर सकते। छत्रपति संभाजीनगर (जो पहले औरंगाबाद था) में नौवें अजंता-एलोरा इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टीवल में जावेद ने कहा कि अगर किसी फ़िल्म में कोई आदमी किसी महिला से जूते चाटने को कह रहा है या एक आदमी किसी महिला को थप्पड़ मारने को सही जताता है और वह फ़िल्म सुपरहिट होती है तो यह ख़तरनाक बात है। उन्होंने कहा कि लोग कमर्शियल सिनेमा को बहुत कम करके आंकते हैं, मगर यह अपने समाज का सच्चा प्रतिबिंब है। उन्होंने आगाह किया कि फ़िल्मों में बेतहाशा हिंसा दिखाए जाने पर गहराई से सोचा जाना चाहिए, क्योंकि इससे लगता है कि आज लोगों में भारी फ्रस्टेशन है जो कि हिंसक फ़िल्मों के जरिये बाहर आ रहा है। वह भी बेमतलब हिंसा के जरिये। जावेद ने आगे कहा कि एक शांत समाज जो अपने आप से इत्मीनान रखता है, वह इतनी हिंसक फ़िल्में नहीं देखेगा।

जावेद अख़्तर का तात्पर्य हमारी ज़्यादातर बड़ी और कामयाब फ़िल्मों में दिखाई जा रही हिंसा से था, लेकिन जूते चाटने वाली बात से सारा मामला ‘एनीमल’ पर जा टिका। संदीप रेड्डी वंगा की यह फ़िल्म ज़बरदस्त हिट रही है, हालांकि यह हिंसा के साथ ही महिलाओं के प्रति असम्मान को भी पुरुषत्व से जोड़ती और उसे ग्लैमराइज़ करती लगती है। उंगलियां उठने पर ‘एनीमल’ की टीम को बुरा लगा और उसने जावेद की इस आलोचना का बाकायदा जवाब दिया। जवाब में टीम ‘एनीमल’ ने लिखा कि अगर आपके स्तर का लेखक (किसी फ़िल्म में) प्रेमी के विश्वासघात को नहीं समझ सकता तो आपका सारा आर्ट फॉर्म झूठ है। इस जवाब में कटाक्ष करते हुए कहा गया कि अगर (फ़िल्म में प्यार के नाम पर धोखा खाने वाली) एक औरत ने ‘लिक माय शूज़’ कहा होता तो आप उसे फ़ेमिनिज़्म बताते। टीम ने आगे कहा कि प्यार को जेंडर और पॉलिटिक्स से दूर रखें। उन्हें सिर्फ प्रेमी कहें। प्रेमी जो धोखा देते हैं और झूठ बोलते हैं। और कहते हैं, ‘लिक माय शूज़’।

इससे पहले गीतकार व अभिनेता स्वानंद किरकिरे ने भी इस फ़िल्म में महिलाओं की गलत छवि पर आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था कि यह फ़िल्म बहुत पैसे कमा रही है और भारतीय सिनेमा का गौरवशाली इतिहास शर्मिंदा हो रहा है। उनके हिसाब से यह फ़िल्म अपने सिनेमा के भविष्य को नये सिरे से निर्धारित करेगी और उसे ख़तरनाक दिशा में ले जाएगी। तब स्वानंद किरकिरे को भी टीम ‘एनीमल’ ने करारा सा जवाब दिया था। वैसा ही आक्रामक जैसी यह फ़िल्म है। लेकिन शाहरुख को कोई जवाब नहीं दिया गया। केवल इसलिए कि उन्होंने सीधे ‘एनीमल’ का नाम नहीं लिया।

इस मामले में कंगना रनौत ने भी आवाज़ उठाई है। यह अलग बात है कि उन्होंने इस मसले की जिम्मेदारी दर्शकों पर डाली है। उनका कहना था कि महिला को पिटते दिखाने वाली फ़िल्म पर लोग टूटे पड़ रहे हैं। यह हताशाजनक है। उन्होंने आगे कहा, ‘एक ऐसी कलाकार के लिए यह ट्रेंड बहुत हतोत्साहित करने वाला है जो महिला सशक्तीकरण वाली फ़िल्मों के प्रति समर्पित रही है। वह आने वाले सालों में करियर बदल भी सकती है ताकि जीवन के बेहतरीन बरस किसी अर्थपूर्ण चीज़ में लगाए जा सकें।‘ ऐसा कह कर कंगना ने संकेत दिया कि यही हाल रहा तो वे अपना करियर बदल भी सकती हैं। वैसे उनके राजनीति में जाने के कयास तो काफ़ी समय से लगाए जा रहे हैं। फिर भी उनका विरोध एक सही मुद्दे पर है।

यह फ़िल्म महिलाओं का और पुरुषों का जैसा चित्रण करती है उस पर कंगना रनौत को छोड़ हमारी तमाम अभिनेत्रियों ने खुल कर प्रतिक्रिया नहीं दी है। यह अपने आप में हैरत की बात है। और शाहरुख को छोड़ दें तो हमारे अभिनेता भी कहां कुछ बोले हैं। साफ़ है कि मूल्यों और सामाजिक नैतिकता के साथ सफलता का जो द्वंद्व चलता है, उसे लेकर वे कन्फ़्यूज़न में हैं और अपनी वास्तविक भूमिका तय नहीं कर पाए हैं। या फिर वे सफलता के पक्ष में खड़े हैं।

Published by सुशील कुमार सिंह

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता, हिंदी इंडिया टूडे आदि के लंबे पत्रकारिता अनुभव के बाद फिलहाल एक साप्ताहित पत्रिका का संपादन और लेखन।

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