एक अहम सवाल क्या हमने शहीदों के सपने साकार किए….?

भोपाल। हमने अपनी आजादी का अमृत महोत्सव तो जोर-शोर के साथ मना लिया, किंतु क्या देशभक्तों के किसी भी कथित वर्ग ने इस सवाल पर आत्म चिंतन किया कि हमने आजादी के बाद के 75 सालों की लंबी अवधि में किस हद तक हमारे स्वतंत्रता संग्राम शहीद सेनानियों के सपनों को साकार करने की कोशिश कि? शायद… किसी ने भी नहीं… आजादी का अर्थ हमने हर तरह की आजादी समझा और उसी के अनुरूप आजादी भोगने की कोशिश की। देश की बागडोर संभालने वाले हमारे आधुनिक भाग्यविधाताओं से लेकर आम आदमी तक किसी ने भी इस अहम सवाल का उत्तर खोजने की कोशिश ही नहीं की, देश के आधुनिक कर्णधार शहीदों के सपनों को ध्वस्त करने में जुटे रहे और आम आदमी को अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक समस्याओं के कारण इस प्रश्न पर सोचने की फुर्सत ही नहीं मिली। कुल मिलाकर हर वर्ग अपनी अपनी आजादी को भोगने में व्यस्त रहा, किसी ने भी आजादी का सही अर्थ जानने की कोशिश नहीं की।

यह कितने अवसाद का विषय है कि नेहरू युग से आज तक जितने भी हमारे देश के शासक आए उनमें से किसी ने भी देश व देशवासियों के बारे में नहीं सोचा, वह या तो अपनी सुविधा अनुसार कानून को तोड़ने मरोड़ में व्यस्त रहे या अपने स्वार्थ के लिए लूट की योजनाएं बनाने में व्यस्त रहे, हां… बेचारे बुद्धिजीवियों ने इस दुरावस्था पर अवश्य चिंतन करने का प्रयास किया, किंतु उनकी आवाज नगाड़ों के बीच तूती की आवाज सिद्ध हुई और आखिर में वह बेचारे भी थक-हार कर बैठने को मजबूर हो गए।

अब यदि हम इस चर्चा को आगे बढ़ते हुए देश की सत्ता पर अब तक काबीज रहे वर्ग से ही चिंतन शुरू करें तो हमारी नजर हमारे कर्णधरो द्वारा समय-समय पर अपने स्वार्थ की सिद्धि हेतु किए गए संविधान संशोधनों पर जाकर टिक जाती है, हमारे संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर की आत्मा आज कितनी दुखी होगी, क्या इसकी किसी ने भी कल्पना की, इनके द्वारा निर्मित हमारे संविधान में अब तक हमारे सत्तारूढ़ कार्णधरो ने अपनी अपनी सुविधा अनुसार सवा सौ से अधिक संशोधन कर दिए हैं, अर्थात हमारे मूल संविधान का मसौदा काफी कुछ बदल दिया गया है, इसका सबसे ताजा उदाहरण मौजूदा सरकार द्वारा हाल ही में हमारे आदर्श दंड संहिता में किया गया, आमूल-चूल परिवर्तन है, यहां तक की इसका अब तक चला आ रहा नाम तक बदल दिया गया है। यह तो महज एक ताजा उदाहरण है यदि बदले गए कानून की पूरी फहरिस्त सामने आए तो और अधिक आश्चर्य होगा।

आजाद भारत की एक सबसे बड़ी दुर्भाग्यपूर्ण बात यह भी रही कि देश के किसी भी वर्ग ने आजादी की मूल संवैधानिक भावना को जानने समझने की कोशिश भी नहीं की, हर वर्ग ने इसका अपने हिसाब से अर्थ खोजा, चाहे वह राजनीतिक वर्ग हो या कि अन्य कोई सामाजिक वर्ग। राजनेताओं ने अपने हिसाब से आजादी के साथ देश को अपनी राह ले जाने की कोशिश की तो प्रशासनिक वर्ग ने अपने हिसाब से, यही नहीं जनता की सेवा के नाम पर कथित रूप से अपनी दुकानें चला रहे हैं, लोगों व संगठनों ने भी अपनी आजादी का लाभ अपने ढंग से उठाने की कोशिश की फिर वह सामाजिक संसाधन हो या व्यवसायिक। इसका ताजा उदाहरण हमारे देश का फिल्म उद्योग है जो धर्म व देवी-दवताओं को अपनी काली कमाई का साधन बना रहा है, ताजा उदाहरण फिल्मकार अक्षय कुमार की ताजा फिल्म “ओ माय गॉड-2” जिसमें भगवान शिव को कचोरी खरीदते हुए दिखाया गया है, जिस पर महाकालेश्वर के पुजारियों ने फिल्म निर्माता को कानूनी नोटिस भी दिया है। अब तक ऐसे दर्जनों उदाहरण सामने आए हैं। देश के साधु-संतों में भी धर्म को तोड़ने-मरोड़ने की स्पर्धा जारी है, जो अपने व्याख्यानों के दौरान सामने आती रहती है।

इस प्रकार कुल मिलाकर आज की सबसे बड़ी चिंता और उससे उपजे सवाल यही है कि आखिर हम हमारी आजादी का सही अर्थ जानने का प्रयास कब करेंगे, इसकी शताब्दी के बाद या फिर कभी नहीं?

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