भोपाल। विश्व के सबसे बड़े और प्राचीन लोकतंत्री देश भारत की आजादी के पचहत्तर वर्ष बाद आज विश्वस्तर पर यह चिंता व्यक्त की जा रही है कि क्या भारत में लोकतंत्र के प्रति आस्था में कमी आती जा रही है? क्या देशवासी लोकतंत्र की कथित राजनीतिक तानाशाही से परेशान होकर ‘अंग्रेज राज’ को याद कर रहे है? क्या लोकतंत्र की रीढ़ चुनाव प्रणाली के प्रति आम रूचि कम हो रही है? ये कुछ ऐसे सवाल है, जो आज मानव के सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में उठाए जा रही है, इसका सबसे मुख्य उदाहरण हर चुनाव के समय मतदान प्रतिशत में स्पष्ट हो रही कमी है, इसका ताजा उदाहरण लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण में हुआ मतदान है, जिसमें पूर्व चुनावों की तुलना में दस प्रतिशत से भी कम मतदान सामने आया है। इसलिए यदि लोकतंत्रीय नजरिये से देखा जाए तो यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़े खतरे का संकेत है।
वैसे भी आज कांग्रेस सहित करीब-करीब सभी प्रतिपक्षी दल यह गंभीर आरोप लगा रहे है कि 2024 का लोकसभा चुनाव हमारे लोकतंत्री देश का आखरी चुनाव होगा, अब प्रतिपक्ष किन संकेतों के आधार पर यह आशंका व्यक्त कर रहा है? यह तो वहीं जाने, किंतु वास्तविकता यह भी है कि आम भारतीय नागरिक की प्राथमिकताओं में मतदान प्राथमिकता नहीं रहा है, खासकर देश का भविष्य युवावर्ग तो इस लोकतंत्री प्रक्रिया से दिल दिमाग और देशभक्ति के साथ जुड़ने की कौशिश ही नही कर रहा है, देश का नौकरीपेशा मतदाता वर्ग जहां मतदान दिवस का अवकाश अपने परिवार के साथ मौजमस्ती के साथ मनाने को आतुर रहता है। वहीं युवा वर्ग की भी प्राथमिकता में मतदान नही है, उसकी सोच है कि ‘‘अवकाश की मौजमस्ती में यदि समय मिला तो वोट डाल आएंगें’’ और यदि वह इन क्षणों में मतदान केन्द्र पर जाता है और उसे वहां वोट डालने वालों की लम्बी लाईन नजर आती है तो वह बिना वोट डाले वापस अपनी मस्ती में शामिल हो जाता है, कुल मिलाकर मतलब यह कि मतदान अब युवाओं की प्राथमिकता नही रहा, और इस वर्ग के सदस्यों को परिवार के वृद्धजन कितना ही लोकतंत्री महत्व नागरिक कर्तव्य का ज्ञान दे, किंतु इस कथित अरूचिपूर्ण उपदेश को वह एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल बाहर करता है, मतदान प्रतिशत दिनों दिन कम होने का यह भी एक मुख्यकारण है।
भारत की इस अहम् समस्या के पीछे दोेषी युवा वोटर नहीं बल्कि हम सब है, जिन्होंने हमारी नई पीढ़ी को राष्ट्रीयता व राष्ट्रभक्ति का पाठ ही नही पढ़ाया, यदि उनकी प्रारंभिक घरेलु शिक्षा में इस विषय को भी शामिल कर लिया होता तो आज हमें यह दिन देखने को मजबूर नहीं होना पड़ता। वैसे यदि अपने दिल पर हाथ रखकर यदि हम यह आत्मचिंतन करें कि हम स्वयं कितने राष्ट्रªभक्त व नागरिक कर्तव्यों व अधिकारों के सही उपयोगकर्ता है? तो हम स्वयं अपने से ही निराश होगें, क्योंकि हम भी पारिवारिक व सामाजिक आपाधापी में देश और अपने कर्तव्यों के बारे में आत्मचिंतन-मनन करने का वक्त ही कहां मिल पाता है?
….पर अभी भी वक्त है, हमें अपनी नीजि चिंताओं के साथ राष्ट्र की चिंता के साथ भी जुड़ना पड़ेगा और आज की राजनीति देश को किस दिशा में ले जा रही है, इस पर गंभीर देशहित में आत्मचिंतन करना पड़ेगा, वर्ना फिर हमें भी वही घीसी-पीटी कहावत ‘‘अब पछतावत होत का, जब चिडि़या चुग गई खेत’’, बार-बार दोहराना पड़ेगा, इसलिए चुनावी लोकतंत्र की इस अहम् बेला में मेरा अनुरोध है कि पूरा देश इन संकेतों को गंभीरता से लेकर आत्मचिंतन कर देशहित में कुछ संकल्प लें।