भक्तगण नवरात्रि के दूसरे दिन अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए साधना करते हैं। जिससे उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।
10 अप्रैल- नवरात्र दूसरा दिन, ब्रह्मचारिणी पूजन दिवस
शक्ति पूजन के लिए प्रख्यात नवरात्रि का द्वितीय दिन देवी ब्रह्मचारिणी के पूजन के लिए समर्पित है। ब्रह्मचारिणी देवी पार्वती के यौवन रूप को प्रतिष्ठित करती हैं। इस वर्ष 2024 में 10 अप्रैल दिन बुधवार को वासन्तीय नवरात्रि का द्वितीय दिन है। देवी ब्रह्मचारिणी के दुर्गा के नौ रूपों में से दूसरा स्वरूप होने के कारण नवरात्रि के दूसरे दिन ब्रह्मचारिणी की पूजा व अर्चना की जाती है। ब्रह्मचारिणी शब्द संस्कृत के दो शब्दों से मिलकर बना है- ब्रह्म और चारिणी।
इसमें ब्रह्म का अर्थ है -तपस्या, एक स्वअस्तित्व वाली आत्मा, पूर्ण वास्तविक व पवित्र ज्ञान, और चारिणी का अर्थ है -आचरण करना, अनुसरण करना, व्यवहार करना। इस प्रकार ब्रह्मचारिणी का अर्थ हुआ तप का आचरण करने वाली। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार देवी ब्रह्मचारिणी ने भगवान शिव को पति के रूप में पाने के लिए सहस्त्रों वर्ष तक सिर्फ बेल-पत्र और फिर निर्जल व निराहार रहकर घोर तपस्या की थी।
जिसके कारण माता को ब्रह्मचारिणी कहा जाता है। ब्रह्मचारिणी माता के हमेशा तप में लीन रहने के कारण इनका तेज बढ़ गया। इसलिए इनका रंग सफेद अर्थात गौर वर्ण बताया गया है। नवशक्तियों का दूसरा स्वरूप तप का आचरण करने वाली अर्थात तप की चारिणी, देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यंत भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बाएँ हाथ में कमण्डल है।
भक्तगण नवरात्रि के दूसरे दिन अपनी कुंडलिनी शक्ति को जागृत करने के लिए साधना करते हैं। जिससे उनका जीवन सफल हो सके और अपने सामने आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा का सामना आसानी से कर सकें। इस दिन साधक का मन स्वाधिष्ठान चक्र में शिथिल होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है। जीवन के कठिन संघर्षों में भी उसका मन कर्त्तव्य पथ से विचलित नहीं होता। माता ब्रह्मचारिणी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय प्राप्त होती है। दुर्गा का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्त फल देने वाला है।
इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। उल्लेखनीय है कि मानव के विकास के दूसरे स्तर का द्योतक स्वाधिष्ठान चक्र तंत्र और योग साधना की चक्र संकल्पना का दूसरा चक्र है। स्व का अर्थ है आत्मा। यह चक्र त्रिकास्थि अर्थात पेडू के पिछले भाग की पसली के निचले छोर में स्थित होता है। इसका मंत्र वम (ङ्क्ररू) है। इसी में चेतना की शुद्ध, मानव चेतना की ओर उत्क्रांति का प्रारंभ होता है। यह अवचेतन मन का वह स्थल है, जहां हमारे अस्तित्व के प्रारंभ में गर्भ से सभी जीवन अनुभव और छायाएं संग्रहीत रहती हैं। स्वाधिष्ठान चक्र की जाग्रति स्पष्टता और व्यक्तित्व में विकास लाती है। स्वाधिष्ठान चक्र का प्रतीकात्मक चित्र छह पंखुडिय़ों वाला कमल है।
ये पंखुड़ियां छह मनोविकारों- क्रोध, घृणा, वैमनस्य, क्रूरता, अभिलाषा और गर्व के संकेतक हैं, जिन पर साधक को विजय पाना होता है। ये व्यक्ति के विकास में बाधक छः गुणों- आलस्य, भय, संदेह, प्रतिशोध, ईर्ष्या और लोभ के भी संकेतक हैं। स्वाधिष्ठान चक्र का प्रतीक पशु मगरमच्छ है। यह सुस्ती, भावहीनता और खतरे का प्रतीक है, जो इस चक्र में छिपे हैं। इस चक्र का अनुरूप तत्त्व जल है, यह भी छुपे हुए खतरे का प्रतीक है। इस चक्र की देवी दुर्गा और देवता विश्वकर्मा हैं। स्वाधिष्ठान का रंग संतरी है। सूर्योदय का यह रंग उदीयमान चेतना का प्रतीक है।
संतरी रंग सक्रियता और शुद्धता का भी रंग है। यह सकारात्मक गुणों का प्रतीक है और इस चक्र में प्रसन्नता, निष्ठा, आत्मविश्वास और ऊर्जा जैसे गुण पैदा होते हैं। स्वाधिष्ठान चक्र देवी-देवताओं को रचने की महारत देता है। स्वाधिष्ठान वह केंद्र है, जिसका इस्तेमाल बच्चे पैदा करने के लिए या फिर देवी देवताओं को रचने के लिए किया जाता है।
स्व-अधिष्ठान का मतलब है स्व अर्थात आत्मा का घर या निवास। सातों चक्र अर्थात सात आयाम एक दूसरे में गुंथे हुए हैं, उन्हें अलग नहीं किया जा सकता है। स्वाधिष्ठान में मूलाधार भी है। इसी तरह से मणिपूरक में मूलाधार व स्वाधिष्ठान हैं। अनाहत में ये तीनों ही हैं। इसी तरह से हर आयाम में शेष सारे आयाम मौजूद होते हैं। लेकिन हर आयाम की जो विशेषताएं हैं, वे ही उसे एक आयाम विशेष का रूप देती हैं। मूलाधार शरीर का सबसे बुनियादी चक्र है। मू
लाधार साधना पीनियल ग्लैंड से जुड़ी है, और इस साधना से तीन बुनियादी गुण सामने आ सकते हैं। स्वाधिष्ठान और मूलाधार आपस में जुड़े हैं। अपने मूलाधार पर महारत हासिल कर लेने वाला व्यक्ति या तो एक स्थिर देह अर्थात शरीर पा लेता है, या एक खास तरह की मादकता अर्थात नशा या आनंद वाला अनुभव हासिल करता है, या फिर अपने बोध को ऊंचे स्तर पर ले जाता है। साधक के द्वारा इसका उपयोग सिर्फ स्थिरता के लिए किए जाने पर स्वाधिष्ठान पुर्नजनन अर्थात बच्चे पैदा करना और सुख का एक मजबूत स्थान बन जाता है।
व्यक्ति के द्वारा मूलाधार का उपयोग मादकता अर्थात नशे की अवस्था के लिए किए जाने पर स्वाधिष्ठान एक खास तरह से शरीर के न होने का भाव दिलाने वाला मजबूत स्थान बन जाता है। यहां शरीर के न होने का मतलब हल्की हवा की तरह होना नहीं है, अपितु शरीर से थोड़ी दूरी बनाना है।
चूंकि शेष शरीर की तुलना में स्वाधिष्ठान ऊंचे दर्जे के आनंद में स्थापित हो जाता है, इसलिए शरीर से थोड़ी दूरी बन जाती है। ऐसे में स्व को लेकर एक खास तरह की मिठास आ जाती है, और शरीर में एक तरह का हल्कापन आ जाता है। यह स्थिति लोगों को मनुष्यों में उपस्थित शारीरिक वासनाओं से मुक्ति दिलाती है। स्वाधिष्ठान साधना शारीरिक विवशताओं से मुक्ति दिलाती है। व्यक्ति के द्वारा मूलाधार साधना से प्राप्त पीनियल ग्लैंड का रस अर्थात अमृत का उपयोग अपने बोध को बढ़ाने के लिए किए जाने पर स्वाधिष्ठान भी उसी तरह से काम करता है, और आगे चलकर इस संभावना को और बढ़ाता है।
स्वाधिष्ठान चक्र के सक्रिय होने पर बच्चे को जन्म देने अथवा ईश्वर को रच सकने की क्षमता आ जाती है। क्योंकि ऊर्जाओं के स्वाधिष्ठान में प्रभावशाली हो जाने पर व्यक्ति अपने आस-पास के जीवन के प्रति कहीं ज्यादा सजग हो जाता है। स्वाधिष्ठान साधना किए जाने से यह एक विशेष प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान करती है। स्व का अर्थ है- अपना, और तंत्र का अर्थ है- तकनीक। अर्थात स्वतंत्र अर्थात आजाद होने की एक तकनीक। तन, मन और भावनाओं में बांधने वाली मनुष्य की प्रजनन की इच्छा मानव का सबसे बड़ा बंधन हैं।
स्वतंत्रता का अर्थ है कि साधक के द्वारा एक ऐसी तकनीक पा ली गई है, जो उसको इस तरह की बाध्याताओं (विवशताओं) से छुटकारा दिलाती है, क्योंकि अब साधक का स्व पूरी तरह से स्वतंत्र है, आजाद है। मानव शरीर में 112 चक्र होते हैं, लेकिन आदियोगी शिव ने इन्हें सात वर्गों में बांटा था और सप्त ऋषियों को दीक्षित किया था। इसीलिए इन्हें सात चक्रों के रूप में जाना जाता है। स्वाधिष्ठान चक्र के एक खास तरीके से स्थापित हो जाने पर सृजन (क्रिएट) करने की क्षमता बढ़ जाती है। सबसे निचले स्तर पर इसका काम विशुद्ध तौर पर प्रजनन अर्थात बच्चे पैदा करना है। इसके सबसे ऊंचे स्तर पर ईश्वर का सृजन किया जा सकता है। यह तभी संभव है, जब शेष सभी चक्र सक्रिय हों।
एक मान्यतानुसार ब्रह्मचारिणी जड़ (अपरा) में ज्ञान (परा) का प्रस्फुरण के पश्चात चेतना का वृहत संचार भगवती के दूसरे रूप का प्रादुर्भाव है। यह जड़ चेतन का जटिल संयोग है। प्रत्येक वृक्ष में इसे देख सकते हैं।
सैंकड़ों वर्षों तक पीपल और बरगद जैसे अनेक बड़े वृक्ष ब्रह्मचर्य धारण करने के स्वरूप में ही स्थित होते है। मार्कण्डेय चिकित्सा पद्धति में ब्रह्मा के दुर्गा कवच में अंकित नवदुर्गा नौ विशिष्ट औषधियों में ब्रह्मचारिणी अर्थात ब्राह्मी आयु व स्मरण शक्ति को बढ़ाकर, रक्तविकारों को दूर कर स्वर को मधुर बनाती है। इसलिए इसे सरस्वती भी कहा जाता है।