महाशक्तियों की होड़ हुए ओलंपिक

महाशक्तियों की होड़ हुए ओलंपिक

दुनिया में चल रही अन्य प्रतिस्पर्धाओं की तरह ही इस ओलिंपिक्स में सिर्फ दो महाशक्तियां मौजूद हैः चीन और अमेरिका।’ इसके बाद एलिसन ने नौ अगस्त तक दोनों देशों को मिले पदकों की विस्तार से तुलना की। यह ध्यान दिलाया कि चार दशक पहले तक चीन ने ओलिंपिक खेलों में कोई पदक नहीं जीता था। उसने अपना पहला पदक 1984 में लॉस एंजिल्स ओलिंपिक्स में जीता। तब से उसकी यात्रा एक विशेष घटना की तरह रही है। पेरिस ओलिंपिक्स में चीन ने नए मोर्चे फतह किए। मसलन, उसने टेनिस में महिला सिंगल्स का खिताब जीता।….

पेरिस में 29वें ओलिंपिक खेल जब अपनी समाप्ति की ओर पहुंचे, तब अमेरिकी की कंजरवेटिव विचारों वाली वेबसाइट- नेशनल इंटरेस्ट- पर हार्वर्ड केनेडी स्कूल के प्रोफेसर ग्राहम एलिसन ने एक विश्लेषण में लिखा- ‘शून्य से शुरुआत करते हुआ चीन का उदय और उसका अमेरिका का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी बन जाना, दरअसल हर अन्य क्षेत्र में 21वीं सदी में उसके अमेरिका के भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी बन जाने की परिघटना की ही एक झलक है।’

एलिसन ने लिखा- ‘दुनिया में चल रही अन्य प्रतिस्पर्धाओं की तरह ही इस ओलिंपिक्स में सिर्फ दो महाशक्तियां मौजूद हैः चीन और अमेरिका।’ इसके बाद एलिसन ने नौ अगस्त तक दोनों देशों को मिले पदकों की विस्तार से तुलना की। यह ध्यान दिलाया कि चार दशक पहले तक चीन ने ओलिंपिक खेलों में कोई पदक नहीं जीता था। उसने अपना पहला पदक 1984 में लॉस एंजिल्स ओलिंपिक्स में जीता। तब से उसकी यात्रा एक विशेष घटना की तरह रही है। (China vs। America: The Geopolitical Olympics | The National Interest)

पेरिस ओलिंपिक्स में चीन ने नए मोर्चे फतह किए। मसलन, उसने टेनिस में महिला सिंगल्स का खिताब जीता। 100 मीटर फ्रीस्टाइल तैराकी में चीन की तैराक पान झांनले ने विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए स्वर्ण पदक जीता। चीन के तैराकों की टीम ने 4X100 मीटर मेडले रिले प्रतिस्पर्धा में स्वर्ण पदक जीता। ये वो खेल हैं, जिनमें अक्सर पश्चिमी देशों के खिलाड़ियों का ही दबदबा रहा है। मगर इस बार बात पलट गई।

इस हार को स्वीकार करना- खासकर अमेरिकी खिलाड़ियों के लिए आसान नहीं था। अमेरिका की टेनिस खिलाड़ी एम्मा नवारो ने चीन की चिनवेन झेंग के साथ अप्रिय व्यवहार किया। उन्होंने पत्रकारों से कहा- ‘मैंने उससे कहा कि एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में मैं उसका सम्मान नहीं करती।’ फाइनल मैच में चिनवेन से जब दुनिया की नंबर एक खिलाड़ी पोलैंड की इगा स्वातेक हार गईं, तो उन्होंने चिनवेन के साथ-साथ अंपायरों से भी हाथ मिलाने से इनकार कर दिया। मैच के बाद होने वाले मीडिया इंटरव्यू में भी उन्होंने भाग नहीं लिया। खिलाड़ी क्यों ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, इस बारे में अमेरिका की मशहूर पत्रिका अटलांटिक में The Crybaby Olympics (रोंदू खिलाड़ियों का ओलिंपिक) शीर्षक से एक आलेख छपा। इसमें कहा गया- खेल में हमेशा ही ऐसे खिलाड़ी रहे हैं, जो हार को आसानी स्वीकार नहीं कर पाते। लेकिन इस बार के ओलिंपिक खेलों पर नज़र डालें, तो खिलाड़ियों का व्यवहार बदतर होता नजर आया है।

क्यों, इस बारे में विश्लेषक ने कहा- ‘कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक इसका कारण बढ़ता दबाव है। युवा एथलीट कम उम्र में शुरुआत करते हैं और पहले की तुलना में ट्रेनिंग में अधिक समय लगाते हैँ। अधिक पैसा भी दांव पर लगा होता है। स्पॉन्सर कम प्रचलित खेलों में भी सफलता को पुरस्कृत करते हैं। यानी हारने का मतलब सचमुच सोना गंवाना होता है।’ (The Crybaby Olympics – The Atlantic)

लेकिन चीन के अखबार ग्लोबल टाइम्स की राय में बात सिर्फ इतनी नहीं है। उसमें छपी एक टिप्पणी में कहा गया- ‘पश्चिमी देश, खास कर अमेरिका, अन्य क्षेत्रों की तरह खेल में भी चीन का उदय देखना नहीं चाहते। अमेरिकी मीडिया लगातार चीन के तैराकों पर सवाल उठाता रहा, जबकि (पेरिस में) दस दिन में चीनी खिलाड़ियों के 200 ड्रग टेस्ट हुए। इस बीच अमेरिकी तैराकी टीम के चेहरे का रंग स्पष्ट रूप से बैंगनी हो गया। इस पर सवाल क्यों नहीं उठाए गए? इस बारे में कोई विश्वसनीय स्पष्टीकरण नहीं दिया गया। बात अधिक रहस्यमय हो गई, जब चीन स्थित अमेरिकी दूतावास ने उन खिलाड़ियों की सफलता की खुशी मनाते हुए उनके फोटो जो सोशल मीडिया पर पोस्ट किए, उनमें रंग बदल दिया गया।’ इस टिप्पणी में कहा गया- ‘जैसे अमेरिका चीन की अग्रणी हाई टेक कंपनी हुवावे का दमन करता है, वैसा ही नजरिया ड्रग्स को हथियार बना कर तैराकी में चीन के उदय को रोकने के लिए वह अपना रहा है।’ (Hegemony is challenged from Olympic to global competition – Global Times)

साफ है। भू-राजनीतिक टकराव ओलिंपिक खेलों तक पहुंच चुका है। पेरिस ओलिंपिक्स के बाद इस होड़ के और तीखा होने की संभावना है। इसलिए कि बीजिंग ओलिंपिक्स (2008) के दौरान मेजबानी के हुए लाभ को छोड़ दें, तो ऐसा पहली बार हुआ, जब चीन ने स्वर्ण पदकों में अमेरिका की बराबरी कर ली। बीजिंग ओलिंपिक्स में चीन पहले नंबर पर रहा था। लेकिन आम तौर पर माना जाता है कि अपने घर में हुए खेलों में मेजबान टीम को औसतन 20 प्रतिशत का लाभ मिलता है, जैसाकि इस बार फ्रांस को मिली असामान्य सफलता में देखा जा सकता है।

पेरिस में अमेरिका और चीन दोनों को 40-40 गोल्ड मेडल मिले। मगर 44 रजत पदक और 42 कांस्य पदकों के कारण अमेरिका पहले नंबर पर रहा। चीन 27 रजत और 24 कांस्य पदक ही जीत सका। तीन साल पहले हुए टोक्यो ओलिंपिक्स की तुलना में इन दोनों देशों ने अपना प्रदर्शन बेहतर किया। स्वर्ण पदकों पर गौर करें, तो चीन ने दो और अमेरिका ने एक स्वर्ण पदक अधिक जीता। वैसे चीन समर्थक सोशल मीडिया हैंडल्स पर यह कहा गया है कि हांगकांग (जो वैसे चीन का ही हिस्सा है, लेकिन परंपरागत तौर पर ओलिंपिक में अलग टीम के रूप में हिस्सा लेता है) के दो गोल्ड मेडल्स को भी जोड़ दें, तो 42 स्वर्ण पदकों के साथ चीन पहले नंबर पर रहा है।

इन ओलिंपिक खेलों के आधार पर कुछ ये निष्कर्ष निकाले जा सकते हैः

             जैसाकि ग्राहम एलिसन ने कहा है, खेलों की दुनिया में फिलहाल सिर्फ दो महाशक्ति हैः अमेरिका और चीन। सिर्फ ये ही दो देश हैं, जिन्होंने विभिन्न तरह के खेलों में पदक जीते। यानी जिनके मेडल्स का आधार broad-based है। पिछले ओलिंपिक खेलों में रहे प्रदर्शन की पृष्ठभूमि में चीन के उदय की दर अमेरिका की तुलना में अधिक तेज है।

             ओलिंपिक खेलों में हालांकि चीन ने पहली सफलता 1984 में हासिल की, लेकिन उसका असल आगमन 1996 के अटलांटा ओलिंपिक खेलों से माना जाता है। 2008 आते-आते उसने ताज पर दावा जताना आरंभ कर दिया था। दरअसल, 1996 से से हुई उसकी प्रगति एक विशिष्ट परिघटना की तरह रही है। (How Dominant is China at the Olympic Games? | ChinaPower Project (csis।org))

             अध्ययन करें, तो ओलिंपिक खेलों में सफलता का देशों के विकास स्तर से सीधा संबंध मालूम पड़ेगा। इस बार पदक तालिका में टॉप 10 देश ये रहेः अमेरिका, चीन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, नीदरलैंड्स, ब्रिटेन, दक्षिण कोरिया, इटली, और जर्मनी। इनमें छह देश जी-7 के सदस्य हैं। जी-7 का सदस्य एक अन्य देश कनाडा है, जो 12वें नंबर पर रहा। 11वां स्थान न्यूजीलैंड ने हासिल किया, जो एक विकसित देश है। जी-7 के छह सदस्य देशों और चीन के अलावा टॉप-10 में शामिल नीदरलैंड्स, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया भी प्रचलित पैमानों पर विकसित देशों की श्रेणी में आते हैं।

             इन 12 देशों के बीच चीन की उपस्थिति एक विजातीय की तरह है। चीन आज भी एक विकासशील देश है। विशाल आबादी वाले इस देश की बहुतेरी समस्याएं उसी तरह की हैं, जिनका सामना ग्लोबल साउथ के देशों को करना पड़ता है।

             तो यह कहने का आधार बनता है कि आर्थिक विकास में पीछे होने के बावजूद चीन ने अगर यह बेमिसाल प्रगति की है, तो उसकी वजह उसकी राजनीतिक व्यवस्था का विशिष्ट स्वरूप है।

             इस क्रम में भारत की बात करें, तो यह कहने का साहस जुटाना मुश्किल है कि भारत का उदय हो चुका है या भारत विकसित देश बनने की राह पर है। एक रजत और पांच कांस्य पदकों के साथ भारत 71वें नंबर पर रहा। टोक्यो ओलिंपिक में एक गोल्ड मेडल मिलने के कारण भारत 48वें नंबर पर रहा था।

ओलिंपिक में सफलता का हमेशा ही देश की अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था एवं संस्कृति से सीधा संबंध माना गया है। अक्सर देखा गया है कि आर्थिक विकास के लिहाज से प्रगति कर रहे या कर चुके देशों का ओलिंपिक खेलों में बेहतर प्रदर्शन रहता है। इस बारे में 2012 में अमेरिका के इन्वेस्टमेंट बैंक गोल्डमैन शैक्स ने एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया था, जो उस समय काफी चर्चित हुआ था। (GoldmanSachs_Olympics-and-economics।pdf (sportknowhowxl।nl))। इसमें गया था कि स्वर्ण पदक वहां जाते हैं, जहां उच्च आर्थिक वृद्धि (high economic growth) हो रही होती है।

मगर देखा गया है कि कई देश को आर्थिक विकासक्रम की सीढ़ी पर काफी पीछे हैं, नियोजन आधारित अपनी खास राजनीतिक व्यवस्था के कारण उन्होंने ओलिंपिक्स में असामान्य सफलताएं हासिल की हैं। इसी कारण शीत युद्ध के काल में ओलिंपिक खेलों को पूंजीवाद बनाम समाजवाद के मुकाबले रूप में देखा जाता था। सोवियत संघ और अमेरिका के प्रदर्शनों की तुलना करने में अनेक विद्वानों ने अपनी काफी ऊर्जा लगाई थी (View of Olympic Games in Time of Cold War (lumenpublishing।com))। उसी दौरान यह समझ आम तौर पर स्वीकृत हुई कि ओलिंपिक्स में सफलता का सीधा संबंध सिस्टम के स्वरूप और विकास के स्तर दोनों से है।

सोवियत संघ ने पहली बार 1952 के हेलसिंकी ओलिंपिक खेलों में हिस्सा लिया। 1991 में सोवियत संघ का विघटन हो गया, लेकिन 1992 के बार्सिलोना ओलिंपिक्स में उसके दल ने यूनिफाइड टीम नाम से हिस्सा लिया था। तब भी वो टीम पहले नंबर पर रही। दरअसल, उसके बाद (बीजिंग ओलिंपिक को छोड़ दें तो) यह पहला मौका है, जब अमेरिकी टीम स्वर्ण पदकों के लिहाज से अकेले पहले स्थान पर नहीं रही है। पेरिस में उसे यह स्थान चीन के साथ साझा करना पड़ा।

सोवियत संघ ने अपने नाम से दस ओलिंपिक खेलों में हिस्सा लिया। उस दौरान 1980 के मास्को ओलिंपिक्स का पश्चिमी देशों और 1984 के लॉस एंजिल्स ओलिंपिक्स का सोवियत खेमे ने बहिष्कार कर दिया था। इस तरह (बार्सिलोना को छोड़ कर) कुल आठ ओलिंपिक खेलों में सोवियत संघ और अमेरिका के बीच सीधा मुकाबला हुआ। बहरहाल, चूंकि दोनों पक्षों ने एक-एक ओलिंपिक्स का बायकॉट किया, इसलिए हम दस ओलिंपिक्स का सीधा हिसाब लगा सकते हैं। इनमें छह बार सोवियत संघ और चार बार अमेरिका पहले स्थान पर रहा। (Charts and Table of Olympic Medals: US vs। USSR (pbs।org))। बार्सिलोना को जोड़ दें, तो सोवियत संघ की टीम सात बार नंबर वन रही। (Soviet Sports History and the Olympic Movement | SpringerLink)

इक्कीसवीं सदी में आकर यह संकेत उभरा है कि एक तरह से चीन ने सोवियत संघ का बैटन संभाल लिया है। चीन की परिस्थितियां अलग हैं। रूस कुल मिला कर यूरोपीय देश है, जिसकी संस्कृति वहां से मेल खाती है। चीन एशियाई संस्कृति का देश है। 70 साल पहले वह अति गरीबी का शिकार था। फिर यह बात भी हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि आधुनिक ओलिंपिक खेलों में सेटिंग पहले से पश्चिम के अनुरूप होती है। अधिकांश आधुनिक खेलों को स्वरूप पश्चिम में मिला है। उनके नियम भी उन्हीं देशों ने तय किए हैँ। अंतरराष्ट्रीय ओलिंपिक समिति सहित तमाम खेल संगठनों पर पश्चिम का नियंत्रण आज भी काफी मजबूत है।

ऐसे में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहले जापान और दक्षिण कोरिया, और अब उनसे भी आगे बढ़ कर चीन की सफलता का एक विशेष महत्त्व है (Exploring China’s success at the Olympic Games: a competitive advantage approach: European Sport Management Quarterly: Vol 16 , No 2 – Get Access (tandfonline।com))। जापान और दक्षिण कोरिया ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपनी विकास यात्रा अमेरिका के साथ जुड़ कर तय की। रणनीतिक मामलों में उन्हें अमेरिका का पिछलग्गू माना जाता है। यह बहस हमेशा रही है कि क्या उन्हें संप्रभु देश माना जा सकता है? जबकि चीन ने स्वतंत्र रूप से अपनी विकास यात्रा तय की है। कम्युनिस्ट क्रांति के बाद के आरंभिक वर्षों में उसे सोवियत संघ का साथ जरूर मिला था, लेकिन 1962 आते-आते सोवियत संघ से उसका संबंध विच्छेद हो गया। तब से चीन ने विकास का अपना मॉडल विकसित किया है।

इसीलिए ओलिंपिक खेलों में चीन की सफलता- यहां तक कि पश्चिमी देशों में भी- खास दिलचस्पी और अध्ययन का विषय बनी हुई है। ग्राहम एलिसन ने अपने लेख में बताया है कि चीन के उदय का विश्लेषण उसके आर्थिक विकास, व्यापार में प्रगति, सामरिक एवं रणनीतिक सफलताओं आदि के क्रम में किया जा रहा है। हार्वर्ड केनेडी स्कूल ने इस संबंध में कई अध्ययन कराए हैं। ऐसे कई अध्ययन अमेरिकी थिंक टैक्स में किए गए हैं, जिनमें एक का उद्धरण इस लेख में ऊपर दिया गया है। (How Dominant is China at the Olympic Games? | ChinaPower Project (csis।org))

इस समय जो भू-राजनीतिक विभाजन दुनिया में देखने को मिल रहा है, स्वाभाविक है कि उसके साये से ओलिंपिक खेल या कोई अन्य आयोजन बचे नहीं रह सकते। पेरिस ओलिंपिक से रूस को सियासी कारणों से निष्कासित कर दिया गया था। वरना, रूस की टीम वहां होती, तो ताजा भू-राजनीतिक होड़ की चर्चा में एक पहलू और जुड़ता। गौरतलब है कि सोवियत संघ के विघटन के बावजूद ओलिंपिक खेलों में रूस का प्रदर्शन हमेशा काबिल-ए-गौर रहा है।

बहरहाल, इस समय की भू-राजनीतिक होड़ में पश्चिमी देशों के बरक्स खड़ा प्रमुख देश चीन ही है। लाजिमी है कि चीन और पश्चिम के टकराव को दो प्रकार के सिस्टमों- नव उदारवादी पूंजीवाद और चीनी प्रकृति के समाजवाद- के बीच की स्वाभाविक प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे में ओलिंपिक खेलों में आगे निकलने की होड़ अध्ययन का एक दिलचस्प विषय बन गई है। पेरिस में चीन ने अपेक्षाकृत बेहतर प्रगति का प्रदर्शन कर इस अध्ययन में नए आयाम जोड़े हैं, जिनके आने वाले वर्षों में और विस्तारित रूप लेने की संभावना है।

Published by सत्येन्द्र रंजन

वरिष्ठ पत्रकार। जनसत्ता में संपादकीय जिम्मेवारी सहित टीवी चैनल आदि का कोई साढ़े तीन दशक का अनुभव। विभिन्न विश्वविद्यालयों में पत्रकारिता के शिक्षण और नया इंडिया में नियमित लेखन।

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