वेद में जल को औषधीय गुणयुक्त कहा गया है। चरक संहिता के साथ ही अन्य संहिता ग्रंथों में भी भूजल की गुणवत्ता पर वर्णन प्राप्य हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति में ब्रह्मांड में उपलब्ध सभी प्रकार के जल का सरंक्षण करने पर जोर दिया गया है। नदियों के जल को सर्वाधिक संरक्षणीय माना गया हे, क्योंकि वे कृषि क्षेत्रों को सींचती है, जिससे प्राणिमात्र का जीवन संचालित होता है।
अक्सर ही पानी अर्थात पेयजल की कमी, जल संरक्षण आदि की खबरें विभिन्न समाचार माध्यमों की सुर्खियां बनती रहती हैं। संरक्षण का अर्थ है- सावधानी पूर्वक, मितव्ययता के साथ सदुपयोग करना। पृथ्वी पर बहुत जल है, फिर भी पीने योग्य जल की कमी होती जा रही है। इसलिए लोगों को जल के न्यायसंगत सदुपयोग के लिए जागरूक करने के लिए प्रतिवर्ष 22 मार्च को विश्व जल दिवस तथा अगस्त के अंतिम सप्ताह में विश्व जल सप्ताह का आयोजन किया जाता है। विश्व जल सप्ताह में विविध आयोजनों के माध्यम से इस बात के लिए लोगों को प्रेरित किया जाता है कि पेयजल के संरक्षण का अथक प्रयास करते हुए कम से कम जल से काम चलाने तथा व्यर्थ में जल को बर्बाद न करने के प्रति सतर्क रहना चाहिए। कृषि की सिंचाई के लिए अधिक जल की आवश्यकता होती है।
इसलिए सिंचाई के क्षेत्र में भी अपनी पारंपरिक विधियों, जैसे तालाबों आदि में जल एकत्रित कर उसका उपयोग करना श्रेयस्कर होगा। भारत में प्राचीन काल से ही जल संरक्षण पर बहुत जोर दिया गया है। वेदों में भी जल की महिमा, आवश्यकता उपयोगिता व जल संरक्षण पर विस्तृत वर्णन अंकित हैं। ऋग्वेद 8/18/16 में प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि हम सब बादलों अर्थात मेघों के जल तथा दूसरी प्रकार के जलों के सुख को प्राप्त करते हैं। हे द्यावा और भूमि देव! हमसे इसके प्रति बुरे कर्मो से दूर रखें। प्राचीन भारतीय संस्कृति में जल को जीवन माना गया है-जलमेव जीवनम्। वेद में जल के स्रोतों, जल का समस्त प्राणियों के लिए महत्व, जल की गुणवत्ता तथा उसके संरक्षण के संबंध में विस्तृत वर्णन अंकित है। वेद में जल को औषधीय गुणयुक्त कहा गया है। चरक संहिता के साथ ही अन्य संहिता ग्रंथों में भी भूजल की गुणवत्ता पर वर्णन प्राप्य हैं। प्राचीन भारतीय संस्कृति में ब्रह्मांड में उपलब्ध सभी प्रकार के जल का सरंक्षण करने पर जोर दिया गया है। नदियों के जल को सर्वाधिक संरक्षणीय माना गया हे, क्योंकि वे कृषि क्षेत्रों को सींचती है, जिससे प्राणिमात्र का जीवन संचालित होता है।
नदियों का बहता जल शुद्ध माना गया है। इसलिए नदियों को प्रदूषण से बचाना चाहिए। अथर्ववेद में सप्तसैन्धव नदियों – सिन्धु, विपाशा (व्यास), शतुद्रि (सतलज), वितस्ता (झेलम), असिक्को (चेन्नब) और सरस्वती नदी का उल्लेख किया गया है। ऋग्वेद 7/50/4 में इन नदियों को माता के समान सम्मान देते हुए कहा गया है कि नदियां जल का वहन करती हुई, सभी प्राणिमात्र को तृप्त करती हैं। भोजनादि प्रदान करती हैं। आनन्द को बढ़ाने वाली तथा अन्नादि वनस्पति से प्रेम करने वाली हैं। जल संरक्षण पर बल देते हुए ऋग्वेद 10/17/10 में कहा गया है कि जल हमारी माता जैसी है। जल घृत के समान हमें शक्तिशाली और उत्तम बनाये। इस तरह के जल जिस रूप में जहां कहीं भी हो वे रक्षा करने योग्य हैं।
जल संरक्षण से संबंधित अथर्ववेद 19/1/4 में वर्षा जल तथा बहते हुए जल के विषय में मनुष्यों को उपदेश देते हुए कहा है कि वर्षा जल तथा अन्य स्रोतों से निकलने वाला जल जैसे कुएं, बावडियां आदि तथा फैले हुए जल तालाबादि के जल में बहुत पोषण होता है। इस प्रकार के पोषक युक्त जल का प्रयोग करके वेगवान और शक्तिमान बनना चाहिए।
वर्षा के जल को संरक्षित करना चाहिए, क्योंकि यह सर्वाधिक शुद्ध जल होता है। अथर्ववेद 1/6/4 में कहा गया है कि-वर्षा का जल हमारे लिए कल्याणकारी है- शिवा नः सन्तु वार्षिकीः। इसलिए जल को प्रदूषित होने से बचाना चाहिए। जल को प्रदूषित न करें। यजुर्वेद 6/22 में कहा गया है कि जल को नष्ट मत करो। यह अमूल्य निधि है-
मा आपो हिसी।
वेदों में जल को अत्यधिक महत्व देते हुए उसके सभी प्रकारों को चिह्नित किया गया है, ताकि जल संरक्षण कर सकें। अथर्ववेद 19/2/1-2 में नौ प्रकार के जलों का उल्लेख किया गया है-
परिचरा आपः (प्राकतिक झरनों से बहने वाला जल), हेमवती आपः (हिमयुक्त पर्वतों से बहने वाला जल), वर्ष्या आपः (वर्षा जल), सनिष्यदा आपः (तेज गति से बहता हुआ जल), अनूप्पा आपः (अनूप देश का जल अर्थात ऐसे प्रदेश का जल जहां पर दलदल अधिक हो), धन्वन्या आपः (मरुभूमि का जल), कुम्भेभिरावृता आपः (घडों में स्थित जल), अनभ्रयः आपः (किसी यंत्र से खोदकर निकाला गया जल, जैसे- कुएं का), उत्सया आपः – (स्रोत का जल, जैसे-तालाबादि का)।
वर्तमान में भी प्राचीन भारतीय जल ज्ञान परंपरा के संरक्षण के इस वैदिक संदेश को ग्रहण कर जल को संरक्षित करने का प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। वेद के अनुसार वर्षा के होने से जल में प्रवाह आता है और नदी के रूप में जल प्रवाह को प्राप्त करता है। प्रवाह युक्त जल को भारतीय संस्कृति में पवित्र माना गया है। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति में नदियों को माता के समान तथा पूजनीय माना गया है। नदियों की पवित्रता के संबंध में वेदों में कहा गया है कि पर्वत से निकल कर समुद्र तक प्रवाहित होने वाली नदी पवित्र होती है। इसलिए नदियों के अबाध प्रवाह को सरंक्षित किए जाने की आवश्यकता है।
नदियों को स्वच्छंद रूप से बहने देना चाहिए। अथर्ववेद में मित्र तथा वरुण को वर्षा के देवता कहा गया है। मित्र तथा वरुण के मिलने से जल की उत्पत्ति होती है। मित्र तथा वरुण वस्तुतः क्रमशः आक्सीजन तथा हाइड्रोजन के वाचक हैं। प्रदूषित जल को शुद्ध किये जाने के क्रम में वेद में कहा गया है कि वायु तथा सूर्य दोनों जल को शुद्ध करते हैं। सूर्य की किरणें जल के कीटाणुओं को नष्ट कर जल को शुद्ध करती है। ऋग्वेद 1/23/19 में उपदेश देते हुए कहा गया है कि हे मनुष्यों! अमृत तुल्य तथा गुणकारी जल का सही प्रयोग करने वाले बनो। जल की प्रशंसा और स्तुति करने के लिए सदैव ही तैयार रहो।
पर्यावरण प्रदूषण से स्वाभाविक और सहज रूप से मुक्ति दिलाने वाले तत्त्व हैं- प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न हरे भरे पर्वत, जल, वायु, मेघ, अग्नि। सामान्य रूप से आज भी प्रकृति प्रदूषणजन्य विकृतियों का स्वत: शमन करती है। प्रकृति भयंकर प्रदूषण का भी शमन करने में सक्षम हैं। माता के द्वारा अपने शिशु के निर्बाध विकास हेतु अनेक उपाय किए जाने की भांति ही प्रकृति ने भी जीव जगत की सुरक्षा के लिए अनेक आवरणों का निर्माण कर रखा है। इनमें से ओजोन नामक आवरण प्रमुख है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में भूमि के चारों ओर विद्यमान ओजोन परत का वर्णन अंकित है। अथर्ववेद में इस आवरण का वर्णन करते हुए कहा गया है-
आपो वत्सं जनयन्तीर्गर्भं अग्रे सं ऐरयन् ।
तस्योत जायमानस्योल्ब आसीद्धिरण्ययः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
-अथर्ववेद 4/2/8
अर्थात-जब प्रकृति ने जल रूप वत्स को गर्भ में धारण किया, उस समय उसको उल्ब अर्थात गर्भस्थ शिशु को घेरने वाली झिल्ली के समान एक आवरण घेरे हुए था, इस आवरण का वर्ण हिरण्यय अर्थात पीत या लोहित के समान रक्ताभ था। इस मंत्र में सूर्य किरणजन्य प्रभाव का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद उस आवरण के आकार का वर्णन करता हुआ कहता है-
महत्तदुल्बं स्थविरं तदासीद्येनाविष्टितः प्रविवेशिथापः।
– ऋग्वेद 10/51/1
अर्थात-वह जरायु के समान प्रकृति को आच्छादित करने वाली परत अत्यधिक स्थूल है और इस परत के साथ जल प्रविष्ट है।
वेद में उल्लिखित यह तथ्य पाश्चात्य विज्ञान से भी प्रमाणित हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार भी ओजोन का सम्बन्ध ऑक्सीजन से है और इस प्राणवायु का आधार जलतत्त्व है। परंतु वेद का यह मंत्र पृथ्वी को आवृत करने वाली ओजोन परत के साथ जलतत्त्व प्रविष्ट कहकर वैज्ञानिक सत्य को प्रतिपादित कर रहा है।यह पृथ्वी ही हमारी जननी है और यही हमें सब प्रकार के साधन प्रदान करती है। माता के समान हमारा पालन-पोषण करती है। यह भूमि हरितवर्ण की सस्य सम्पदा प्रदान करती है, समस्त ब्रह्माण्ड को धारण करने वाला अग्नि लौहतत्त्व देता है, वृक्ष और वनस्पतियाँ सूर्य की किरणों के सहयोग से बल प्रदान करती हैं, इन सबसे प्राणी को शक्ति प्राप्त होती है। फिर भी मानव इसका अन्धाधुन्ध दोहन करके इसके चीर का हरण करते चले जा रहे हैं। अथर्ववेद 3/7/5 के अनुसार पर्यावरण की दृष्टि से जितनी उपयोगिता भूमि के संरक्षण की है, उतनी ही आवश्यकता जल के संरक्षण की भी है। प्राणिमात्र के अस्तित्व के लिए यह जल जीवन है, अमृत है, भैषज अर्थात रोगनाशक औषधि है। अथर्ववेद 1/4/4 में जल के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा गया है कि जल तत्त्व को अमृत कहा है, यह समस्त रोगों की औषधि है।
इसके सेवन से सभी जीवों के शरीर बलवान हो जाते हैं। अथर्ववेद 6/24/2 के अनुसार यह जलतत्त्व औषधि है, यह रोगों का नाशक है, यह समस्त प्रकार की औषधि है, इससे आनुवंशिक रोगों से मुक्ति मिलती है। अथर्ववेद 6/24/1 के अनुसार यह जल आंख, पैर आदि की सभी प्रकार की पीड़ा को हरने वाला है। इसलिए यह सर्वोत्तम वैद्य है। यह जलतत्त्व केवल शरीर के सामान्य अंगों के ही रोगों का हरण नहीं करता, यह हृदय के रोगों की भी महौषधि है। जो जल हमारे जीवन का पर्याय है, उसको संरक्षित करना न केवल हमारा दायित्व है, अपितु हमारा कर्तव्य और समय की आवश्यकता भी है।
अत्यंत प्राचीन काल में ही भारत में इस तथ्य को पहचान लिया था। इसीलिए यजुर्वेद 6/22 में कहा गया है कि ये जल हमारी हिंसा न करें, ये औषधियां हमको न मारें। यजुर्वेद 14/8 में कहा है कि यह जल हमें पुष्टि प्रदान करे, ये औषधियां हमें जीवन प्रदान करें। यही कारण है कि पद्मपुराण क्रियायोग-8/8-/10 के साथ ही अनेक पौराणिक व स्मृति ग्रंथों में गंगा नदी में थूकना, मूत्र करना, अपशिष्ट अर्थात कूड़ा-करकट डालना, गंगा के किनारे शौच करना आदि कृत्य को महापाप मानते हुए कहा गया है कि ऐसा करने वाला नरक में जाता है और उसे ब्रह्महत्या का पाप लगता है।