यह रोग शरीर को लंबे समय तक हवा व खुली धूप न मिलने, लंबे समय से गंदा व दूषित जल पीने, अधिक मात्रा में मीठी चीजों व नशे का सेवन करने के कारण हो सकता है। इसमें रोगी के शरीर में घावों से हमेशा मवाद का बहना, घाव का ठीक न होना, घावों पर से रक्त का रिसाव आदि कई तरह के लक्षण नजर आ सकते हैं। इस तरह के घावों के होने व उनके ठीक न होने के कारण रोगी के अंग धीरे-धीरे गलने लगते हैं।
रोगाणु अर्थात जीवाणु जनित रोग कोढ़ को ही कुष्ठ रोग कहा जाता है। यह रोग मुख्य रूप से मानव त्वचा, ऊपरी श्वसन पथ की श्लेष्मिका, परिधीय तंत्रिकाओं, आंखों और शरीर के कुछ अन्य भागों को प्रभावित करता है। यह रोग रोगी के शरीर में इतनी धीमी गति से फैलता है कि रोगी को कई बर्षों तक पता भी नहीं चलता है और यह रोग रोगी के शरीर में पनपता रहता है। यह रोग शरीर को लंबे समय तक हवा व खुली धूप न मिलने, लंबे समय से गंदा व दूषित जल पीने, अधिक मात्रा में मीठी चीजों व नशे का सेवन करने के कारण हो सकता है। इसमें रोगी के शरीर में घावों से हमेशा मवाद का बहना, घाव का ठीक न होना, घावों पर से रक्त का रिसाव आदि कई तरह के लक्षण नजर आ सकते हैं। इस तरह के घावों के होने व उनके ठीक न होने के कारण रोगी के अंग धीरे-धीरे गलने लगते हैं। जिससे रोगी के अपाहिज होने की स्थिति आने लगती है।
30 जनवरी – विश्व कुष्ठ उन्मूलन दिवस
माइकोबैक्टिरिअम लेप्राई और माइकोबैक्टेरियम लेप्रोमेटॉसिस जैसे जीवाणुओं के कारण होने वाला कुष्ठ रोग एक दीर्घकालिक रोग है। इस रोग के जीवाणु की खोज 1873 में चिकित्सक गेरहार्ड आर्मोर हैन्सेन के द्वारा किए जाने के कारण कुष्ठ रोग को हैन्सेन रोग भी कहा जाता है। वर्तमान में कुष्ठ रोग उपचार योग्य है, तथा प्रारंभिक अवस्था में उपचार विकलांगता को रोक सकता है। कुष्ठ रोग ग्रसित लोगों को अपने समीप के चिकित्सक से संर्पक करना चाहिए। कुष्ठ रोग के निवारण के लिए अधिकतर सभी सरकारी अस्पतालों में मुफ्त दवा उपलब्ध कराए जाने की व्यवस्था है।
कुष्ठरोग ने हजारों वर्षों से मानवता को प्रभावित किया है, और प्राचीन चीन, मिस्र और बाद में भारत की सभ्यताओं में इसके दैवीय प्रकोप के कलंक को अच्छी तरह देखा जा सकता है। कुष्ठरोग को दैवीय अत्यधिक संक्रामक और स्पर्श तथा यौन संबंधों के द्वारा संचरित होने वाला माना जाता था। कहीं- कहीं इसका उपचार पारे के द्वारा किए जाने के उल्लेख भी प्राप्य हैं। आज भी ब्राजील, इंडोनेशिया और भारत इस रोग के उच्च बोझ वाले देश हैं। कुष्ठ रोग और उसके उपचारों का वर्णन अथर्ववेद, सुश्रुत संहिता आदि भारतीय ग्रंथों के साथ ही आयुर्वेद संबंधी अन्य प्राचीन ग्रंथों में भी हुआ है। प्राचीन ग्रीक में यह रोग श्लीपद के नाम से जाना जाता था। बाइबिल मैथ्यू 11,5 के अनुसार अलौकिक साधनों और हाथों अथवा इससे विकसित अवशेषों को दफना देने की पद्धति के द्वारा कुष्ठरोग का उपचार किया जा सकता है।
ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार सेंट गाइल्स, सेंट मार्टिन, सेंट मैक्सिलियन और सेंट रोमन तो इस पद्धति से जुड़े हुए थे ही इंग्लैंड के रॉबर्ट प्रथम, एलिज़ाबेथ प्रथम, हेनरी तृतीय और शार्लेमैग्ने आदि अनेक शासक भी इस पद्धति से जुड़े हुए थे। विभिन्न देशों में विभिन्न कालों में इसके लिए रक्त को एक पेय पदार्थ अथवा स्नान के रूप में एक उपचार माना जाता था। कुंवारी स्रियों या बच्चों के रक्त को विशेष रूप से प्रभावी समझा जाता था। विद्वानों के अनुसार इस पद्धति का उद्गम प्राचीन मिस्र निवासियों से हुआ, लेकिन चीन में भी इसका पालन किये जाने के संदर्भ सामने आए हैं, जहां लोगों के रक्त के लिए उनकी हत्या कर दी गई थी। यह पद्धति 1790 में डी सेक्रेटिस नैचुरी में कुत्ते के रक्त के प्रयोग का उल्लेख किये जाने तक जारी थी। पैरासेल्सस ने मेमने के रक्त के प्रयोग की अनुशंसा की।
उस समय मृत शरीरों के रक्त का प्रयोग भी किया जाने लगा था। इसके लिए सांपों का प्रयोग किया जाता था। कोबरा के विष से उपचार करने की अनुशंसा भी की गई थी। 1913 में बॉइनेट ने मधुमक्खियों के डंक की बढ़ती हुई मात्रा को बढ़ाते हुए (4000 तक) परीक्षण किया। सांपों के स्थान पर कभी-कभी बिच्छुओं और मेंढकों का प्रयोग किया जाता था। चढ़ने वाली एनाबास मछली के मल का भी परीक्षण किया गया। वैकल्पिक उपचारों में आर्सेनिक और हेलेबोर सहित जलन उत्पन्न करने वाले अन्य तत्वों के प्रयोग के साथ या उनके बिना दागना शामिल था। मध्यकाल में वंध्याकरण का पालन भी किया जाता था। हाइड्नोकार्पस विगिताना वृक्ष से प्राप्त होने वाला चालमुगरा का तेल कुष्ठरोग का एक पूर्व आधुनिक उपचार था, जिसे संस्कृत में तुवकार और हिन्दी व फारसी में चालमुगरा कहा जाता है। भारत सहित चीन और वर्मा में इस तेल का प्रयोग लंबे समय से कुष्ठरोग और त्वचा की विभिन्न अवस्थाओं के उपचार के लिए एक आयुर्वेदिक दवा के रूप में किया जाता रहा है। भारत में अत्यंत प्राचीन काल से ही हाइड्नोकार्पस वंश की एक प्रजाति कलव वृक्ष के फल खिलाकर उपचार किए जाने की जानकारी मिलती है।
कालांतर में अन्य देशों की भांति भारत में भी इसे आनुवंशिक रोग माना जाने लगा। भारत में भी यह धारणा बन गई कि कुष्ठ रोग दैवीय प्रकोप, अनैतिक आचरण, अशुद्ध रक्त, पूर्व जन्म के पाप कर्मों आदि कारणों से होता है। ऐसी भ्रांतियां बन चुकी थी कि कुष्ठ रोग केवल स्पर्श मात्र से हो जाता है। इससे कुष्ठ रोगियों को समाज भिन्न दृष्टि से देखने लगा था। और लोगों के द्वारा इससे बचने के लिए भांति- भांति के उपाय पूर्व से ही किए जाने लगे थे। जिन उपायों में मेमने के रक्त के स्थान पर रसदार और पौष्टिक फलों का सेवन कर दूध देने वाली बकरी के दूध का नियमित सेवन आदि कुछ उपाय प्रमुख रूप से शामिल थी। जिन परिवारों में किसी पूर्वज को कुष्ठ रोग से पीड़ित होने की सूचना होती थी, वैसे परिवार के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी ऐसे उपायों को निष्पादित किया करते थे। महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी भी केवल अंगूर के फल से निर्वहन करने वाली काली बकरी की दूध का नियमित रूप से सेवन करते हुए संयमित रूप से जीवन व्यापन और ब्रह्मचर्य व्रत के पालन पर विश्वास किया करते थे। किशोरावस्था में एक बार बकरे की मांस का सेवन कर लिए जाने से उनके पेट में गुड़गुड़ हो बदहजमी हो जाने के बाद उन्होंने जीवन भर कभी फिर मांस का सेवन नहीं किया। उन्होंने जीवन भर मानव हित में कार्य किया।
गांधीजी सदा सर्वोदय अर्थात सबका उदय चाहते थे। सर्वोदय समाज गांधीजी के कल्पनाओं का समाज था, जिसके केन्द्र में भारतीय ग्राम व्यवस्था थी। सर्वोदय अर्थात सबका उदय, सबका विकास। अंतवाले का भी विकास। समाज के अंतिम पड़ाव अर्थात कतार पर खड़े व्यक्ति का भी विकास। सर्वोदय हमारे लिए कोई नई बात नहीं, सर्वोदय भारत के प्राचीनतम आदर्शों में से एक है। इस बात की पुष्टि भारत में प्रचलित सुभाषितानी – सर्वेपि सुखिन: संतु, सर्व खल्विदं ब्रह्म, वसुधैव कुटुंबकम्, आदि उक्तियों से भी होती है। महान विनोबा भावे के अनुसार सर्वोदय का अर्थ है – सर्वसेवा के माध्यम से समस्त प्राणियों की उन्नति। विनोबा भावे ने अपने सर्वोदय के व्यवहारिक स्वरुप को भूदान आन्दोलन में प्रस्तुत किया है। सर्वोदय दर्शन के अनुसार सुबहवाले को जितना, शामवाले को भी उतना ही-प्रथम व्यक्ति को जितना, अंतिम व्यक्ति को भी उतना ही, इसमें समानता और अद्वैत का वह तत्व समाया है, जिस पर सर्वोदय का विशाल प्रासाद खड़ा है।
महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन में समाज के अंतिम पड़ाव अर्थात कतार पर खड़े व्यक्ति के कल्याण के लिए विभिन्न कार्य किए। सदैव सर्वोदय की कामना कामना करने वाले गांधी के मन में समाज से दूर खड़े कुष्ठ से पीड़ित रोगियों के लिए अत्यंत स्नेह व सहानुभूति थी। इसलिए गांधी ने अपने जीवन में कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की काफी सेवा की और कुष्ठ रोगियों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए काफी प्रयास किए। उनके ही प्रयासों से भारत सहित कई देशों में अब कुष्ठ रोगियों को सामाजिक बहिष्कार का सामना नहीं करना पड़ता है। अब समाज जान- समझ गया है कि कुष्ठ रोग कोई दैवीय आपदा नहीं, बल्कि एक बीमारी है, जो किसी को भी हो सकती है और इसका इलाज संभव है। महात्मा गांधी द्वारा कुष्ठ रोगियों को समाज की मुख्य धारा में जोड़ने के प्रयासों के कारण ही प्रतिवर्ष 30 जनवरी उनकी पुण्यतिथि को कुष्ठ रोग निवारण दिवस के रूप में मनाया जाता है। भारत में इस दिवस की शुरुआत 1954 से 30 जनवरी को हुई। भारत में यह दिवस सर्वोदय की भावना का प्रतीक माना जाता है।
इस दिन को फ्रांसीसी मानवीय राउल फोलेरो ने कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों की सहायता करने के लिए चर्चित गांधीजी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए चुना था, जिनकी हत्या 30 जनवरी 1948 को कर दी गई थी। महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी के सर्वोदय संबंधी भावनाओं के स्मरण के लिए उनके बलिदान दिवस 30 जनवरी को सर्वोदय दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन को शहीद अथवा बलिदान दिवस के रूप में भी भारत भर में मनाया जाता है, और गांधीजी के पुण्यस्मृति में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। बच्चों में कुष्ठ रोग से संबंधित विकलांगों के शून्य मामलों के लक्ष्य पर केंद्रित यह विश्व कुष्ठ उन्मूलन दिवस शीघ्रातिशीघ्र रोग उन्मूलन अर्थात निवारण के लिए प्रयास बढ़ाने और प्रतिबद्धता नवीकृत करने का अवसर प्रदान करता है। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए रोग का शीघ्रातिशीघ्र पता लगाना, कुष्ठ संचारण रोकने के लिए हस्तक्षेप को मज़बूत बनाना आदि कार्य महत्वपूर्ण हैं।