ऐसा वक्त पृथ्वी के जीवन में पहले नहीं?

ऐसा वक्त पृथ्वी के जीवन में पहले नहीं?

हम सभी एक नाव पर सवार हैं। यूरोप, अमरीका, भारत और चीन – सभी एक साथ बेइंतहा पसीना बहा रहे हैं। विडंबना है कि धरती के इतना ज्यादा गर्म होने के लिए बहुत हद तक हम खुद ही जिम्मेदार भी हैं।दुनिया को इस साल वसंत का अहसास ही नहीं हुआ!  अप्रैल में हमें लू के थपेड़े झेलने पड़े। अल्जीरिया, मोरक्को, पुर्तगाल और स्पेन में तापमान सामान्य से कहीं ज्यादा है। इस बीच, समय से पहले आई बरसात ने भारत में आम के मौसम में खलल डाली। जहां दूसरी जगहों जुलाई गर्म है वही हमारे यहाँ गर्मी और उमस दोनों हैं जो कि एक जानलेवा  जुगलबंदी है।

इतना ही नहीं भविष्यवाणी है कि हर दिन, पिछले दिन से ज्यादा गर्म होगा। टेक्सास से लेकर ग्रीस तक रेड अलर्ट है; क्रोएशिया, एड्रियाटिक तट और स्पेन के नवारा के जंगलों में आग लगी हुई है। पर्यटन स्थल बंद कर दिए गए हैं क्योंकि तापमान 40 डिग्री के ऊपर चला गया है। बहुत अधिक तापमान के कारण सड़कें पिघल रही हैं, रेल पटरियां ऐंठ रही हैं और खुले में काम करना खतरे से खाली नहीं है। वियतनाम में किसान खेतों में काम करने के लिए सुबह तीन बजे सोकर उठ रहे हैं।

कोई संदेह नहीं कि हमने अपने जीवन में कभी इतनी झुलसाने वाली गर्मी नहीं देखी। विश्व जलवायु संगठन (डब्लूएमओ) ने पिछले हफ्ते बताया कि 1850 के दशक में टेम्परेचर नापने के उपकरणों का उपयोग प्रारंभ होने के बाद से धरती पर भी कभी ऐसा नहीं देखा गया। डब्लूएमओ के जलवायु सेवाओं के निदेशक प्रोफेसर क्रिस्टोफर हेविट ने कहा, ‘‘हम एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जिससे हम पहले कभी नहीं गुज़रे और यह हमारी पृथ्वी के लिए एक चिंता पैदा करने वाली खबर है।”

वैज्ञानिक अब बिना झिझके कह रहे हैं कि अब से लेकर हर आने वाला साल और घातक रूप से गर्म होगा। यह चेतावनी भी दी जा रही है कि इस साल या अगले साल दुनिया का तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड की उस सीमा को पार कर लेगा जो आईपीसीसी द्वारा ग्लोबल वार्मिंग की अपर लिमिट बतौर तय किया गया था।

इसलिए सरकारों और वैज्ञानिकों के सामने न सिर्फ धरती के और गर्म होने को रोकने की चुनौती है बल्कि लोगों को ठंडा रखने की चुनौती भी है। दुनिया के कई इलाकों में गर्मी का मुकाबला करने के साधन हैं ही नहीं क्योंकि वहां के लोगों ने आज तक कभी इसका सामना किया ही नहीं। अध्ययनों के अनुसार जिन जगहों पर झुलसाने वाली गर्मी होने का ज्यादा खतरा है उनमें अफगानिस्तान, पापुआ न्यू गिनी और मध्य अमेरिका शामिल हैं। इन इलाकों में तापमान का रिकार्ड टूटने की स्थिति बन सकती है और संभव है कि स्थानीय समुदाय इस हालात का मुकाबला करने में सक्षम ही न हों। इसी तरह, यूरोप एक ऐसा महाद्वीप है जहां मकान की डिजाईन में सदियों से कोई बदलाव नहीं आया है जबकि वहां के लोगों को अब अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में गर्मी के भीषण प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है। यह महाद्वीप हर साल दुनिया के औसत से कहीं अधिक तेजी से गर्म हो रहा है। हर साल इसका मुकाबला करने में और अक्षम होता जा रहा है। मुझे याद है कि जब मैं स्काटलैंड में रहती थी तब भी गर्मी का मौसम गर्म होता था (हालाँकि आज की तुलना में बहुत कम) और घरों में इसका मुकाबला करने का एकमात्र साधन टेबिल फैन हुआ करता था।

विशेषज्ञों का कहना है यूरोपीय देशों की सरकारें करीब 20 साल पहले बजी खतरे की घंटी पर ध्यान में असफल रहीं जब सन् 2003 (जो महाद्वीप का सबसे गर्म साल था) की ग्रीष्म लहर में कुछ अनुमानों के अनुसार करीब 70,000 लोगों की मौत हुई थी। इसी सप्ताह प्रकाशित एक रपट के अनुसार पिछले साल गर्मियों में यूरोप में हुई 61,000 मौतों के लिए झुलसाने वाली गर्मी को जिम्मेदार माना जा सकता है। इस साल भी दुबारा यही विपदा आएगी। दक्षिण यूरोप के कुछ हिस्सों में मई से ही हीट वेव शुरू हो गई। सबसे ताजी ग्रीष्म लहर – जिसे अंडरवर्ल्ड के दरवाजों पर पहरा देने वाले कई सिरों वाले कुत्ते के नाम पर केरबेरस नाम दिया गया था – के दौरान फ्लोरेंस, रोम और सर्डेनिया और सिसली के कुछ हिस्सों में इस हफ्ते तापमान 37 डिग्री सेल्सियस से भी ज्यादा हो गया था। आने वाले हफ़्तों में यह 48 डिग्री तक पहुंच सकता है। हम भारतीय हमेशा से गर्मी का सामना करते रहे हैं और उसका मुकाबला करना जानते हैं। लेकिन अब समय बदल गया है। कूलर, एसी, आईस्क्रीम, आम का पना, घर से न निकलना, शार्ट्स और सूती कपड़े सिर्फ अस्थायी राहत देने वाली चीजें हैं। ज्यादा बड़ी चुनौती है कार्बन उर्त्सजन के लक्ष्य को हासिल करना।

यूरोप को प्रकोप का सामना करना पड़ रहा है। सन् 2003 की झुलसा देने वाली गर्मी के बाद से यूरोप के देशों की सरकारों ने राष्ट्रीय अनुकूलन (एडाप्टेशन) स्ट्रेटेजी लागू कीं। गर्मी की चेतावनी और उसके लिए नागरिकों को दिशानिर्देश जारी करने शुरू किये। लेकिन वे भी कार्बन एमिशन के लक्ष्यों को हासिल करने में लगातार असफल रहे जिसका उद्देश्य क्लाइमेट चेंज की गति को धीमा करना था। ना ही उन्होंने इसके लिए उठाए जाने वाले ठोस कदमों में निवेश किया। लक्ष्य को प्राप्त न कर पाने के साथ-साथ वे अपने शहरों में बदलाव लाने में भी असफल रहे। विशेषज्ञों का मानना है कि सभी क्षेत्रों में आमूलचूल बदलाव की जरूरत है। इनमें परिवहन से लेकर स्वास्थ्य और कृषि से लेकर उत्पादकता तक सब शामिल है। इसके लिए बहुत बड़ी रकम का निवेश करना ही होगा। पर दुविधा भी है। कार्बन एमिशन घटाने के लिए वैकल्पिक साधनों में निवेश की जरूरत है लेकिन पंरपरागत रेनासां शैली के भवनों और शहरों में बदलाव के लिए भी रकम की जरूरत होगी। और ऐसा भी नहीं है कि अकेला यूरोप ही समस्या से जूझ रहा है। भूमध्य सागर के आसपास के देश, मध्य पूर्व और एशिया गर्मी के आदी हैं लेकिन उनके लिए भी गर्मी असहनीय होती जा रही है।तभी आने वाले सालों में मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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