मानव त्रासदी की यह सदी!

मानव त्रासदी की यह सदी!

सैकड़ों लोगों का तीर्थयात्रा के दौरान मरना पैगम्बर की लीला है या मनुष्य की? सोच नहीं सकते कि हज की यात्रा में मक्का-मदीना में भी इतने लोग मरेंगे और ऊपर से सऊदी अरब बताएगा भी नहीं। उसकी बजाय अलग-अलग देशों के विदेश मंत्रालय हज यात्रा में मरे नागरिकों की संख्या बता रहे हैं! और त्रासद सत्य कि मौत की वजह भीषण गर्मी! वह भी उस देश में जो तेल की कमाई से लबालब है और अपने को विकसित बताता है लेकिन गर्मी से बचाव में समर्थ नहीं।

पर सवाल यह भी है कि मौसम के मामले में पृथ्वी पर मनुष्य अब कहां समर्थ है? एक वक्त था (सिर्फ सवा सौ-डेढ़ सौ साल पहले) जब मनुष्य ज्ञान-विज्ञान, आविष्कारों से तेज गति में अपनी मनमानियों को पूरा करने के लिए प्रकृति, हवा-पानी, सर्दी-गर्मी, जलवायु सबको बांधते हुए था। रेगिस्तानी अरब देश वातानुकूलित बने तो एस्किमो के बर्फीले घर भी कड़कड़ाती ठंड के बीच भी गर्माहट लिए हुए।

और वह सब अब, ताशमहल की तरह जलवायु परिवर्तन में बिगड़ता हुआ है। मौसमी आपदाओं में धाराशायी होता हुआ है या 45-50-51 डिग्री सेंटीग्रेंड के तापमान में लोगों का दम तोड़ते हुए है।

मनुष्य असहाय और असमर्थ दिख रहा है। न अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सिरमौर विकसित देश मौसम का बिगड़ना रोक पा रहे हैं और न संयुक्त राष्ट्र और उसकी एजेंसियां पृथ्वी के 8.1 अरब लोगों को यह समझा पा रही हैं कि अभी तो शुरुआत है और आगे, इसी सदी में ही अपनी बनाई भट्ठी में झुलस-झुलस कर बरबाद होना है। पर लोग हैं कि न अनुभव से समझ रहे हैं और न होनी को संभव मान रहे हैं!

आज ही मुझे रविंद्रनाथ टैगोर की कोई 131 साल पहले लिखी कुछ पंक्तियां पढ़ने को मिली। उनका तब ऑब्जर्वेशन अपने ईर्द-गिर्द की, दस-बीस कोस के दायरे के मनुष्यों की रियलिटी का था। मतलब भारतीय लोगों की मनोदशा पर उनका वह लिखा हुआ है जो संभवतया दुनिया के बेखबर आम लोगों पर समान रूप से लागू है। टैगोर के इन वाक्यों पर गौर करें- ‘ऐसे लोग नहीं हैं, जिनके साथ दो-चार बातें करके प्राण शक्ति और उत्साह का संचय किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति दस-बीस कोस के दायरे में भी नहीं मिल सकते। कोई विचार नहीं करता, अनुभव नहीं करता, कोई काम नहीं करता। वृहद् कार्य की, यथार्थ जीवन की कोई अभिज्ञता किसी को भी नहीं है।

अच्छी तरह परिपक्व मनुष्यत्व किसी में भी नहीं मिलता है। सारे मनुष्य किसी की उपछाया की तरह घूम रहे हैं। खा रहे हैं, पी रहे हैं, ऑफिस जा रहे हैं, सो रहे हैं। तंबाकू के कश लगा रहे हैं और नितांत मूर्ख की तरह बक-बक करते जा रहे हैं। जब किसी विचार की बात करते हैं, तब सेंटीमेंटल हो जाते हैं और जब युक्ति (तर्क) की बात छेड़ते हैं, तब बचपने जैसी बातें करने लगते हैं। सच्चे मनुष्य का सानिध्य पाने के लिए मनुष्य के मन में बहुत तीव्र प्यास रहती है। इसलिए स्वतः प्रेरित होकर मनुष्य के साथ उसके भावों का आदान प्रदान और द्वंद-प्रतिद्वंद चलता रहता है। किंतु सच्चे रक्त मांस के शक्तिमान मनुष्य तो है ही नहीं। सारी मनुष्य उपछाया है। पृथ्वी से असंलग्न भाव की तरह मंडराते, बहते रहते हैं। हमारे देश में जिसके दिमाग में दो-चार आइडिया हो, वैसे निःसंग, एकांगी प्राणी दुनिया में अधिक नहीं हैं, ऐसा लगता है’।

गुरूदेव टेगौर के इन वाक्यों में मौजूदा वक्त के मनुष्यों की दशा और जलवायु परिवर्तन की विभीषिका पर विचारें तो 140 करोड़ लोगों की हमारी भीड़ क्या किसी भी तरह कुछ सोचती, करती हुई है? पूरी पृथ्वी इन दिनों गर्मी से जैसी जलती हुई लाल है वह अकल्पनीय है। साइबेरिया में भी गर्मी। और दुनिया के हर कोने में गर्मी, आग, तूफान, बारिश-बाढ़ या कड़कड़ाती ठंड है। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोप से लेकर ऑस्ट्रेलिया के नीचे और लातिनी अमेरिका के देशों के मौसम में अप्रत्याशित घटनाएं हैं वही पश्चिम एशिया, खाड़ी देशों, अफ्रीका में तापमान 45, 48, 50, 51 (जो दिल्ली में भी हुआ) डिग्री सेंटीग्रेड के जिस स्तर पर टिका है इसका अनुभव भविष्य के असहनीय मौसम का संकेत है।

पर फिर वही बुनियादी सवाल कि यह अनुभव क्या लोगों की अभिज्ञता को लिए हुए है? क्या भारत के हम लोगों को मालूम है कि वैज्ञानिकों ने सिंधु-गंगा के दोआब इलाके मतलब पाकिस्तान से बंगाल तक के इलाके में जलवायु परिवर्तन के सर्वाधिक बुरे प्रभावों की भविष्यवाणी की हुई है! लेकिन न केवल आम लोग बेखबर हैं, बल्कि देश की सरकार, देश के नेतृत्व और राजनीतिक दलों में भी चिंता नहीं है।

हाल के आम चुनाव में किसी भी पार्टी के घोषणापत्र में जलवायु परिवर्तन की चुनौती का जिक्र नहीं था। ठीक विपरीत ब्रिटेन के आम चुनाव में जलवायु परिवर्तन, मौसम दूसरे-तीसरे नंबर का मुद्दा है। भारत में अडानी-अंबानी और सरकार जहां कोयले, पेट्रोल की कमाई से भारत को जलाऊ देश, भविष्य की भट्ठी बना देने पर आमादा है, लोगों की कमर तोड़ रहे हैं वही ब्रिटेन में, वहां के सुप्रीम कोर्ट ने पिछले ही सप्ताह फोसाईल ईंधन के नए प्रोजेक्टों पर हमेशा के लिए पाबंदी लगा दी।

इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रिटेन, यूरोपीय देश, अमेरिका और विकसित देश पृथ्वी को बीमार बनाने के दोषी नहीं हैं। इन्हीं के विकास, अनुसंधानों और आविष्कारों से पिछले दो सौ वर्षों में पृथ्वी खोखली हुई और आकाश की परते फटीं। नतीजतन पृथ्वी का गर्मी से झुलसना शुरू हुआ। लेकिन अब भारत, चीन और बाकी दुनिया इनकी छाया में, उपछाया बन कर विकास से जलवायु में उबाल ला दे रहे हैं।

दरअसल मानव सभ्यता का त्रासद पहलू है जो बुद्धि के देवता नया रचते हैं लेकिन फिर भूख, अविवेक, अति और अहंकार में वह सब भस्मासुर बना होता है। इसी दुष्चक्र से 21 वीं सदी की तमाम चुनौतियां हैं। एक तरफ चंद दिमागदारों (विश्वकर्माओं) की मेधा में अंतरिक्ष में बस्ती बनाने की ओर बढ़ती मानव सभ्यता है तो दूसरी तरफ भूख, अति और अहंकार से बन रहा तबाही का सिनेरियो है। इसलिए या तो बुद्धि पर अंकुश लगे, वह कुछ नया रचे ही नहीं या पृथ्वी के सभी लोगों में यह चेतना बने कि भूख और उसके कंपीटिशन से भस्मासुरी प्रवृत्ति का समूल नष्ट हो अन्यथा प्रलय तय है।

विषयांतर हो गया है। मूल बात है कि पिछली सदी के विकास ने मनुष्यों को बिगाड़ा और इक्कीसवीं सदी में उसके परिणामों में जलवायु बदला लेते हुए है तो मनुष्य या तो सुधरे या लावारिस मौतों के लिए तैयार रहे। स्वस्थ और जिंदा रहना है तो प्रदूषण और जहरीली गैसों का उत्सर्जन रोके। पृथ्वी का तापमान 1.5 डिग्री से ज्यादा कतई न बढ़े। दिक्कत यह है कि बिगड़े, बेसुध नशेड़ी मनुष्य की आदत नहीं बदलती।

उसके लिए सुधरना और अपने आप पर कंट्रोल करना संभव नहीं है। तभी अपना मानना है कि इस सदी के खत्म होते-होते धरती का औसत तापमान चार प्रतिशत से ज्यादा ही बढ़ेगा। और वह प्रलयकारी होगा। भारत, चीन और विकासशील देशों याकि आठ अरब लोगों की आबादी में से छह-सात अरब लोगों की भीड़ अपनी भेड़चाल, अपनी बुद्धिहीनता और कुतर्कों में वही करती होगी, जिसकी आदत है।

मसला आदत का, स्वभाव का है। भीड़ में रहना और भीड़ की उपछाया बन बेसुध जीवन जीना है। जरा, गर्मी के इस मौसम की तस्वीरों पर गौर करें। लोग नए भूमंडलीकृत गांव में बेइंतहां घूम रहे हैं। तीर्थयात्राओं पर जा रहे हैं। देश, महाद्वीप, महासागर, पहाड़, समुद्र, जंगल सबको खंगाल दे रहे हैं लेकिन भीड़ है कि हिल स्टेशनों का मौसम ही बिगड़ गया है। यह सत्य भारत में सर्वत्र है।

गर्मियों में सुकून वाले लगभग सभी भारतीय ठिकाने अब मुसीबत, महंगाई और असामान्य मौसम के केंद्र हो गए हैं। श्रीनगर हो या हिमाचल या उत्तराखंड के तीर्थ और हिल स्टेशन या सिक्किम तथा उत्तर-पूर्व के तमाम राज्यों में इतनी और ऐसी भीड़ हो मानों मेले के स्थान हों। गर्मी और गर्मी की छुट्टियां वे सारे अर्थ गंवा चुकी हैं जो तीस-चालीस साल पहले हुआ करते थे। समुद्र, झील, नदी-तालाब के किनारे घूमते, पानी में भीगे लोगों को देखें या पहाड़ की सड़कों, तीर्थों की भीड़ और ट्रैफिक के फोटो देखें, सभी तरफ बेहाल भीड़ और भीड़ का रिकॉर्ड है।

कूल मौसम, सुरम्य, शांत माहौल का पर्यटन अब खत्म है। पर्यटन याकि छुट्टी, गर्मी, सैर-सपाटा कभी मौसम और स्थान का मजा लिए हुए होता था। वह अब टाइमपास की भीड़, गर्म-चिपचिपे मौसम और सेल्फी तथा घूमने के नाम पर होलीडे की ऐसी भदेस बेहूदगियां लिए हुए है कि कई बार लगता है कि मनुष्य जीवन की छुट्टियों का कभी था क्लासिकल वक्त। बीसवीं सदी में वह वक्त था जब हिल स्टेशन सचमुच हिल स्टेशन थे। छुट्टी बिना मानसिक बोझ (जैसे होटल बुकिंग, फ्लाइट, महंगेपन, भीड़, आपाधापी, बदइंतजामी, सड़क दुर्घटना आदि) के होती थी तो न ही यह सुनने को मिलता था कि हज यात्रा में गर्मी से इतने लोग मरे या बादल फटने से बाढ़ आई और लोग बह गए।

सोचें, यह मनुष्य जीवन का सुख, मजा और विकास है या जीवन का बेहाल और मुश्किल भरा होना है?

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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