‘ठग’ से ‘सज्जन’ और ‘झूठ’ से ‘सत्य’ कैसे लड़े!

‘ठग’ से ‘सज्जन’ और ‘झूठ’ से ‘सत्य’ कैसे लड़े!

यदि ठग व्यक्ति, झूठ बोलने में गुरू हो तो करेला नीम पर चढ़ा। तभी इन दिनों डोनाल्ड ट्रम्प जैसा ठग और झूठा राजनीति का प्रतिमान है। कोई आश्चर्य नहीं जो हाल में उन्होंने राष्ट्रपति बाइडेन को चुनावी बहस में हड़बड़ा दिया। राष्ट्रपति बाइडेन बोलते-बोलते लड़खड़ाए। इसकी मूल वजह 81 साल की उम्र में विस्मृति की थी। लेकिन बहस के दौरान बाइडेन के चेहरे से यह कई बार लगा कि उनका ऐसे झूठे ठग से पाला पड़ा है कि वे बोलें तो क्या बोलें! ठग वाचाल होते हैं। वे ऊंची आवाज में, अभिनय के साथ झूठ बोलते हैं (भारत में भी गौर करें)। इसलिए उसके आगे उम्रदराज सज्जन का लड़खड़ाना स्वाभाविक है। इसलिए डोनाल्ड ट्रम्प से बाइडेन को बहस करनी ही नहीं थी। और यदि करनी थी तो कम से कम यह शर्त तो रखनी थी कि बहस उनकी इस माफी से शुरू होगी कि हां, वे 2020 के चुनाव में हारे थे। और उस चुनाव में बाइडेन ही विजयी थे। वे 2020 के अमेरिकी जनादेश को सच्चा मानते हैं!

कितना त्रासद है यह सत्य जो नतीजों के बाद वाशिंगटन से भागा भगोड़ा डोनाल्ड ट्रम्प वापिस सत्ता की दौड़ में है। जिसने जनादेश को नहीं माना। संसद पर हमला करवाया और अमेरिकी लोकतंत्र को विश्व में कलंकित किया वही पूरी दबंगी से वापिस कह रहा है कि मैं ग्रेट हूं और बाइडेन फेल हैं। तभी बाइडेन कैसे बोलें कि मैं ग्रेट हूं या सामने वाला जो बोल रहा है वह फरेबी, ठग, झूठा और नीच है!

इस नाते लोकतंत्र की श्रेष्ठता के बावजूद उसका यह संकट स्थायी है कि फरेबी, झूठे, नीच नेताओं को रोकने का सेफ्टी वाल्व क्या हो? भारत या तीसरी दुनिया के देशों के लोकतंत्रों में झूठे, फरेबी, गंवार नेताओं का सत्ता में आना तीसरी दुनिया की अनपढ़, अंधविश्वासी आबादी के कारण समझ में आता है लेकिन अमेरिका, फ्रांस जैसे विकसित, सभ्य देशों में डोनाल्ड ट्रम्प या ले पेन जैसे अनुदारवादी ठगों का पॉवर में आना तो इन देशों के विकसित या सभ्य होने पर ही सवाल है! लोकतंत्र की आत्मा का नाम है उदारवाद। और बावजूद इसके यदि अनुदारवादी नेता ठगी, झूठ से प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन रहे हैं तो वैसा होना क्या लोकतंत्र की आत्मा का कमजोर होना और असुरों से उसका दानवीकरण नहीं है?

तभी अमेरिका के लोकतंत्र के लिए विष है डोनाल्ड ट्रम्प! कट्टरपंथ, अनुदारवाद, घोर दक्षिणपंथ या घोर वामपंथ याकि तमाम अतिवादी विचार तलवार का वह जुबानी रूप हैं, जिससे सर्वप्रथम लोकतंत्र ही घायल होता है। डोनाल्ड ट्रम्प 2016 में राष्ट्रपति बनने से पहले भी अनुदारवादी थे। ठग थे। झूठे थे। और राष्ट्रपति् रहते हुए भी मनमानी के साथ उन्होंने दबा कर झूठ बोला। उन्होने मार्केटिंग-ब्रांडिंग-अभिनय-झूठ के वे सभी हथकंड़े अपनाए हुए थे, जिनमें ठग पारंगत होते हैं। अब सत्ता से बाहर होने के बाद वापिस चुनाव लड़ रहे हैं तो पुरानी गलतियों को मानने, उन पर माफी मांगने की बजाय ठगी के अपने चरित्र से वोट मांग रहे हैं। बाइडेन को फेल बता रहे हैं और अपने को ग्रेट। सोचें, उनका यह हुंकारा कि उनके राष्ट्रपति रहते हुए अमेरिका की दुनिया में इज्जत, गरिमा बनी जबकि बाइडने से सर्वनाश हुआ!

इस बात को वे गोरे लोग, कट्टरपंथी, अनुदारवादी, रिपब्लिकन पार्टी के नेता मानते हुए हैं जो पढ़े-लिखे होने के बावजूद यह समझते हैं कि बाहरी लोगों के आने से अमेरिका खत्म हो रहा है। काली आबादी, लातीनी आबादी, एशियाई आबादी, मुस्लिम आबादी गोरों की रोजी-रोटी खा रही है। अमेरिका क्यों दुनिया का चौधरी रहे? वह क्यों दुनिया में लोकतंत्र के लिए लड़े? क्यों तानाशाहों से यूरोप या दुनिया को बचाने के लिए अरबों-खरबों रुपए खर्च करे और सेना भेजे? कूटनीति करे? मतलब वह अपनी अमीरी खुद भोगे, दूसरों पर क्यों जाया करे या बांटे! उसे क्यों अपनी विश्व व्यवस्था बनाए रखनी चाहिए जब वह खुद अकेले अपनी ताकत से अपने हितों की सुरक्षा में समर्थ है! मतलब अमेरिका की महानता अपने घर की गोरी नस्ल, गोरे सरोकारों से है और उसी के हितों की हितसाधना और विकास में है!

सवाल है इस तरह सोचना ही अमेरिका के इतिहास और निर्माण को क्या खारिज करना नहीं है? अमेरिका बना ही बाहरी लोगों से। डोनाल्ड ट्रम्प खुद और उनके सभी भक्तों के वंशज दुनिया भर से आए प्रवासियों की संतान हैं। इसी कारण अमेरिका की तासीर सतरंगी है। विविधताओं से बने विकास का वह आधुनिक चमत्कार है। लोकतंत्र का वैश्विक प्रतिमान है। ज्ञान-विज्ञान-सत्य और कानून-कायदों का देश है। सबको समान अवसर देने की तमाम व्यवस्थाएं लिए हुए है। उसी व्यवस्था से दुनिया भर के लोगों के लिए अमेरिका आकर्षक है। सभी को अमेरिका ने मौका दिया तो बदले में उसकी प्राप्ति जहां सर्वाधिक नोबेल पुरस्कार है वही हर ओलंपिक में लगातार चली आ रही टॉप पोजिशन है। अमेरिकी सभ्यता और संस्कृति यदि आज पूरी पृथ्वी पर अपनी छाप छोड़ते हुए है तो ऐसा होना अमेरिकी समाज की विविधताओं और उदारवादी परंपराओं से खिली कला-संस्कृति की बदौलत है न कि डोनाल्ड ट्रम्प और उनके अनुदारवादी समर्थकों की जीवन शैली तथा सोच से!

और इस सत्य को अमेरिका में भी जानने-बूझने वाले कम नहीं हैं। इसलिए 2020 के चुनाव में डोनाल्ड ट्रम्प की तमाम धांधलियों के बावजूद लोगों ने बहुमत से डोनाल्ड ट्रम्प को हरा कर डेमोक्रेटिक पाटी के जो बाइडेन को राष्ट्रपति बनाया। बावजूद इसके न डोनाल्ड ट्रम्प ने संन्यास लिया और न उनके अनुदारवादी समर्थकों को समझ आया कि ट्रम्प के शासन के दौरान अमेरिका का कितना और कैसा अहित हुआ है।

तभी बोतल में बंद जिन्न वापिस चुनाव मैदान में है। उन्हें हराने का दारोमदार वापिस 81 साल के बाइडेन पर है। और उम्र से बाइडेन की दिक्कत है। उनका शरीर, उनकी आवाज, उनकी याददाश्त, उनका भलापन, उनका सत्य 78 वर्षीय डोनाल्‍ड ट्रम्प के आगे कमजोर दिख रहा है। डेमोक्रेटिक पार्टी और खुद बाइडेन ने यह नहीं सोचा था कि चुनाव लड़ते-लड़ते अचानक उनकी आवाज और याददाश्त लड़खड़ाई दिखेगी! मगर जब ऐसा हुआ तो 27 जून की लाइव टीवी डिबेट से ट्रम्प के आगे बाइडेन की लोकप्रियता का ग्राफ उतरता हुआ है। बाइडेन मान रहे थे कि वे ही डोनाल्ड ट्रम्प को हराने में समर्थ हैं। उन्होंने पहले हराया है, देश को बचाया है तो उन्हें ही वापिस लड़ना चाहिए। उनकी पार्टी के दूसरे नेता (ओबामा, क्लिंटन आदि) भी बाइडेन को समर्थ मानते थे। इसी कारण वे पार्टी की तरफ से अभी निर्विरोध उम्मीदवार हैं।

मगर अब सब शंकित हैं। न केवल डेमोक्रेटिक पार्टी के सांसद, नेता और समर्थक शंकित हैं, बल्कि अमेरिका के वे सभी नागरिक चिंता में हैं, जो मानते हैं कि डोनाल्ड ट्रम्प यदि वापिस राष्ट्रपति बने तो तय है बरबादी! इसलिए उदारवादियों में सोचा जाने लगा है कि बाइडेन स्वंय अपनी जगह दूसरा उम्मीदवार तय करें। अगस्त में डेमोक्रेटिक पार्टी का अधिवेशन है। उसमें बाइडेन की उम्मीदवारी पर अंतिम ठप्पा लगना था लेकिन अब ट्रम्प से अमेरिका को बचाने की चाह वाले सभी चाह रहे हैं कि बाइडेन अपनी जगह किसी और डेमोक्रेटिक उम्मीदवार की घोषणा करें। भले वह उप राष्ट्रपति कमला हैरिस हों या कैबिनेट का कोई मंत्री, राज्यपाल या सांसद हो। हिसाब से उप राष्ट्रपति के नाते कमला हैरिस का नाम पार्टी में स्वीकार्य होना चाहिए। लेकिन वे बतौर उप राष्ट्रपति अपेक्षाकृत कम सक्रिय रही हैं इसलिए पार्टी में उनको ले कर वैसी आम राय नहीं है, जैसी होनी चाहिए। बावजूद इसके डोनाल्ड ट्रम्प के नाम के आगे पहचान-ब्रांड और हैसियत की कसौटी में कमला हैरिस निश्चित ही दमदार उम्मीदवार होंगी! लेकिन अनुदारवादी गोरे लोगों की भीड़ के हल्ले के आगे वे टिक सकेंगी, यह सवाल गंभीर है!

सो, मुद्दा डोनाल्ड ट्रम्प जैसे ठग और झूठे के आगे गंभीर, सच्चे तथा सज्जन उम्मीदवार की लड़ाई का है। अमेरिका में और पूरी दुनिया में निचोड़ है कि 27 जून की टीवी बहस में डोनाल्ड ट्रम्प सिर्फ झूठ बोलते हुए तथा फिजूल बातें, गाली-गलौज करते हुए थे जबकि बाइडेन के जवाब तथ्य-कथ्य-सत्य की कसौटी में सच्चे थे। लेकिन उनकी आवाज क्योंकि झूठ जितनी बुलंद नहीं थी। उनकी आवाज धीमी थी। वे ट्रम्प की भाषा और झूठ सुन हैरानी और दुविधा के मनोभाव में थे। जैसे को तैसा जवाब देने में असमर्थ थे। इसलिए वे कैसे लड़ सकेंगे?

इसलिए अमेरिका के अगले पांच महीने संकट भरे हैं और नवंबर का राष्ट्रपति चुनाव तमाम तरह की चुनौतियां लिए हुए होगा!

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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