आखिरकार जो बाइडन मैदान से हट गए हैं –अपनी मर्जी और अपनी शर्तों पर!
हालांकि बाइडन अंतिम क्षण तक हिम्मत धारे रहे। टीवी डिबेट में उनके निराशाजनक प्रदर्शन से उनकी लोकप्रियता में आई गिरावट का भी उन्होने हौसले से सामना किया। उन्होंने चारों ओर से उठ रहे शोर का भी मुकाबला किया। अपनी पार्टी के सदस्यों और अपने बेहद करीबी व्यक्तियों का विश्वास और समर्थन भी खोया। लेकिन फिर भी वे चुनाव लड़ने को ले कर दृढ़ रहे। उन्होंने नाटो की शिखर सम्मलेन की अध्यक्षता की। अपनी सकारात्मकता और आक्रामकता दोनों का प्रदर्शन किया।एक तरफ एप्रूवल रेटिंग में लगातार गिरावट वही दूसरी तरफ वे अविचलित। तभी माना जाने लगा था कि वे डोनाल्ड ट्रंप से बुरी तरह हारेंगे। लेकिन डोनाल्ड ट्रंप पर कातिलाना हमले के बाद वे परिवार के एक उस बुजुर्ग मुखिया की तरह उभरे, जिसकी जरूरत सभी को होती है।
उन्होंने मैदान में जमे रहने में भी साहस दिखाया, और फिर मैदान छोड़ने में भी।
कई लोगों की नजरों में बाइडन का फैसला अक्लमंदी का है। उन्होंने दौड़ से बाहर होकर अपने को अपमानजनक हालात से बचाया है। लेकिन बात इतनी सी नहीं है। उन्होंने वह किया है जो शायद उनके दौर का कोई भी अन्य नेता नहीं कर पाएगा। और वह है सत्ता का मोह त्यागना और नेतृत्व अपने एक अपेक्षाकृत युवा साथी को सौंपना। अपने देश की खातिर, अपने आत्माभिमान और अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्यागना इतना सरल नहीं होता। उनके लिए यह फैसला लेना भावुकतापूर्ण रहा होगा।फैसला सहज और आसान तो कतई नहीं था।
बाइडन का 49 साल का शानदार राजनैतिक जीवन रहा है, जिसके दौरान आठ राष्ट्रपति आए और गए। वे 36 सालों तक सीनेटर रहे। और 8 साल तक उपराष्ट्रपति। उन्हें निजी त्रासदियां भुगती है। पहले उनकी पत्नी और बेटी की मौत हुई और फिर बेटे की। कई दशक पहले, जब वे 45 साल के थे और राष्ट्रपति पद की दौड़ से कुछ ही महीने पहले अलग हुए थे, वे ब्रेन एन्यूरिज्म से पीड़ित हो गए थे। तब उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई थी कि एक पादरी को उनके अंतिम संस्कार के लिए बुला लिया गया था। इसके कुछ ही महीनों बाद इसी बीमारी ने दोबारा उन पर हमला किया।
लेकिन बाइडन एक ऐसी पीढ़ी के हैं जो आशा का दामन आसानी से नहीं त्यागती, और समस्याएं जिसे तोड़ नहीं सकतीं। वे बार-बार अपनी पार्टी का राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनने का प्रयास करते रहे। बार-बार नाकाम होते रहे। सन् 2015 में उनके पुत्र ब्यू की ब्रेन केंसर से मृत्यु उनके लिए बहुत बड़ा धक्का थी और उसी साल उन्हें दूसरा झटका तब लगा जब ओबामा ने राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में हिलेरी क्लिंटन का समर्थन कर दिया। फिर डोनाल्ड ट्रंप की हरकतों की वजह से पैदा हुई अफरातफरी के चलते जो बाइडन ने एक बार फिर राष्ट्रपति पद की दौड़ में उतरने का फैसला किया। उन्हें तब पहले अपनी पार्टी और फिर अमरीका की जनता का समर्थन मिला।वे 77 साल की उम्र में अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति बने। उन्हें सात करोड़ से ज्यादा वोट मिले और इलेक्टोरल कॉलेज में भी उन्हें कोई परेशानी नहीं हुई।
बाइडन ने ऐसे समय अमेरिका की सत्ता संभाली जब अमेरिका और दुनिया को कोविड महामारी हर तरह से बर्बाद कर चुकी थी। उनके कार्यकाल में अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी हुई। उनके कार्यकाल में ही दुनिया को दो युद्ध झेलने पड़े और नतीजतन दुनिया दो खेमों में बंट गई।
बाइडन ने जब चुनाव लड़ने का फैसला किया था उस समय किसी अन्य डेमोक्रेट नेता ने न तो ट्रंप का मुकाबला करने में रूचि दिखाई थी और ना ही किसी में इतनी क्षमता नजर आ रही थी। वे बिना किसी परेशानी के एक बार फिर ट्रंप के विरूद्ध डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार चुन लिए गए। कोलाहल और शोर-शराबे से पूरी तरह मुक्त सभास्थल पर डेमोक्रेटस ने एकमत से ट्रंप का मुकाबला करने के लिए उन्हें चुना। उस समय उनकी उम्र और उनकी सोचने-समझने की क्षमता को लेकर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की गई। ना ही कमला हैरेस या किसी अन्य उम्मीदवार के पक्ष में आवाज उठाई गई।
उसके बाद के पूरे घटनाक्रम के दौरान बाइडन ने खूब जोशो-खरोश दिखाया। डिबेट में निराशाजनक प्रदर्शन के बाद उन्होंने ‘कुलीन वर्ग’ को कटघरे में खड़ा किया और कहा कि उन्होंने स्वयं को कभी भी इस वर्ग का हिस्सा नहीं माना। उन्होंने कहा कि वे लड़ने को तैयार हैं। लेकिन फिर ट्रंप की जान लेने की नाकामयाब कोशिश हुई, जिससे ट्रम्प इतने ताकतवर नज़र आने लगे जितने वे पहले कभी नहीं लगते थे। और बाइडन एक बार फिर कोविड से ग्रस्त हो गए। उसके बाद उनके खिलाफ उठ रही आवाजें बहुत तेज हो गईं। मुकाबला ट्रंप बनाम बाइडन का न रहकर बाइडन बनाम देश हो गया।
डेमोक्रेटिक पार्टी के अन्दर बाइडन के चुनावी मैदान से हटने के पैरोकारों और उनके जमे रहने के पक्षधरों के बीच चर्चाओं में से जो बातें छन-छनकर पिछले हफ्तों में बाहर आई हैं, उनसे लगता है कि बाइडन की मैदान में बने रहने की तीव्र इच्छा थी। उन्हें खुद पर और अपनी क्षमताओं पर भरोसा था। लेकिन समस्या यह थी कि किसी भी और व्यक्ति को यह भरोसा नहीं था। इसलिए जब वे कोविड की वजह से एकांतवास में गए तब अधिक उम्र से पैदा होने वाली समस्याओं और चुनावी राजनीति की निर्मम सच्चाई से उनका सामना हुआ। और रविवार की रात वह हुआ जो अमेरिका के राष्ट्रपति पद की दौड़ में इतिहास में कभी नहीं हुआ था। राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार ने अपनी जगह किसी और को उम्मीदवारी सौंपने का फैसला किया। जो बाइडन पूरी विनम्रता से मैदान से हट गए और उतनी ही विनम्रता से उन्होंने कमला हैरेस के नाम का समर्थन किया।
यह एक बुरी खबर थी लेकिन चौंकाने वाली नहीं। यह तो होना ही था। जो बाइडन ने वह कर दिखाया जो कोई अन्य नेता शायद ही करता। डोनाल्ड ट्रंप, बेंजामिन नेतन्याहू और नरेन्द्र मोदी जैसे नेता तो ऐसा कभी नहीं करते। जनता की आकांक्षाओं के मुताबिक चलने वाले जननेता, सच्चे नेता और जनता को बहकाकर अपना उल्लू सीधा करने वाले नेता, जिसे जनता की इच्छा की परवाह नहीं होती, बल्कि उसकी अपनी महत्वाकांक्षाएं महत्वपूर्ण होती हैं, में यही अंतर होता है। बाइडन ने राष्ट्रहित को अपनी महत्वाकांक्षा और अपने आत्माभिमान से अधिक महत्व दिया।
बाइडन सच्चे नेता है। उन्होंने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि वे सच्चे राष्ट्र प्रेमी हैं। वे अड़ियल रवैया नहीं अपनाते और शांत और सौम्य व्यवहार करते हैं। जो बाइडन न सिर्फ इस पीढ़ी बल्कि आने वाली पीढ़ियों के भी नेता हैं। उन्हें हमेशा एक ऐसे राष्ट्रपति के रूप में याद किया जाएगा जिसने पद संभालते समय भी प्रजातंत्र की जड़ों को मजबूत किया और पद छोड़ते समय भी। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)