चुनाव 2024, ग्रांउड रिपोर्ट- विदर्भ से श्रुति व्यास
वर्धा। ‘बहुत कन्फ्यूजन है’ यह बात महाराष्ट्र में नागपुर से 85 किलोमीटर दूर वर्धा में हर जगह सुनाई दी। और इसी 26 अप्रैल को वर्धा में वोट पडने है।
‘कन्फ्यूजन’ का कारण है कि लोगों को यह समझ नहीं आना कि वे भाजपा से दो बार के सांसद रामदास तड़स और एनसीपी (शरद पवार) के उम्मीदवार अमर काले में से किसे चुनें? यह कन्फ्यूजन और दिलचस्प इसलिए है क्योंकि इसमें जाति, पवार की पार्टी के नए चुनाव चिन्ह और मोदी चाहिए बनाम मोदी नहीं चाहिए जैसी दुविधाएंगंभीर है।
पुलगांव की महिला व्यवसायी शिल्पा बताती हैं, वर्धा के चुनाव में जाति का मामला बहुत महत्वपूर्ण हो गया है।
तड़स और काले दोनों ओबीसी हैं परंतु जहां तड़स तेली हैं वहीं काले कुनबी हैं। वर्धा में तेलियों की खासी आबादी है। उनके बाद कुनबियों का नंबर आता है। बड़ी संख्या में दलित मतदाता भी हैं। वर्धा के गांव-कस्बों में अम्बेडकर के चित्र वाले नीले झंडों और राम की तस्वीर वाले भगवा झंडों की भरमार है। आखिर अम्बेडकर जयंती और रामनवमी अभी-अभी गुजरे हैं। यहाँ के दलित कांग्रेस के प्रति वफादार थे और हैं।
भाजपा के तड़स के लिए इस बार राह आसान नहीं है। वे एंटी इन्कम्बेंसी का सामना कर रहे हैं, यह एकदम साफ है। लोग इसे खुलकर कह रहे हैं। लोगों की माने तो तड़स में न तो राजनैतिक चतुराई है और न वे व्यक्तिगत रूप से लोकप्रिय हैं। उल्टे, वर्धा में खास विकास नहीं होने की अलोकप्रिय भी उनके मत्थे हैं। यहां तक कि उनके समुदाय के लोग भी उनसे नाखुश बताए जाते हैं। उनमें से एक हैं पवन महाजन, जो तड़स के गांव देवली में पान की दुकान चलाते हैं। वे बहुत नाराज हैं और बेधडक कहा, इस बार वे तुताड़ी (शरद पवार की पार्टी का चुनाव चिन्ह) के साथ हैं। उनका कहना है, ‘‘तड़स ने हमारे लिए कुछ भी नहीं किया है। हमारे गांव को जोड़ने वाली सड़क बदहाल है। यहां कोई विकास नहीं हुआ है। फिर मैं तड़स को वोट क्यों दूं?”
पिछले दोनों चुनावों में तड़स ने मोदी लहर पर सवार होकर जीत हासिल की थी। पर इस बार मोदी लहर का अता-पता नहीं है। यही कारण है कि इस बार 2014 के बाद मोदी पहली बार वर्धा पहुंचे. साथ ही अपने स्टार प्रचारकों को भी भेजा। साफ है भाजपा को लगा है कि उसके पैरों तले जमीन खिसक रही है।
सोनोरोढ़ोका के एक किसान भी तड़स से काफी नाराज हैं। ‘‘उसने किसान के लिए क्या किया? बीमा से पैसा नहीं आता, फसल का दाम नहीं मिलता, फ़र्टिलाइज़र महंगा है और मौसम ने अलग परेशान कर रखा है”। इस काश्तकार ने भी तय किया हुआ है कि उसका वोट किसे जाएगा।
तड़स के खिलाफ गुस्सा अमर काले को कितना फायदा पहुंचाएगा, यह नतीजों से मालूम होगा लेकिन काले भी अनुभवी है। पूर्व कांग्रेस विधायक हैं। 2019 में वे अर्वी विधानसभा क्षेत्र से भाजपा के दादासाहेब केचे से हार गए थे। पांच साल बाद, वे अब कांग्रेस छोड़कर एनसीपी (एसपी) में हैं जिसने उन्हें वर्धा लोकसभा सीट का अपना उम्मीदवार बनाया है। काले बढिया भाषण देते हैं। उनमें लोगों को आकर्षित करने की क्षमता है। उनकी बड़ी ताकत है जो जमीनी स्तर पर लोगों से जुड़ाव है। जबकि तड़स इस मामले में हल्के माने जाते हैं।
परंतु जहां तड़स के खिलाफ एंटी-इन्कम्बेसी काले के लिए मददगार है वहीं उनकी नई पार्टी का नया चुनाव चिन्ह लोगों में बहुत कन्फ्यूजन बनाए हुए है।
शिल्पा दलित हैं और उन्होंने यह तय कर लिया है कि वे ‘हाथ’ को वोट देंगीं। मगर जब मैंने उन्हें बताया कि हाथ तो चुनावी मैदान में है ही नहीं तो वे थोड़ी देर के लिए सन्न रह गईं। शिल्पा जैसे मतदाता वर्धा में कम नहीं हैं। एक समय वर्धा कांग्रेस का गढ था। वहां कांग्रेस का बोलबाला था औैर कांग्रेस ही तय करती थी कि वहां से लोकसभा में कौन जाएगा? मगर एक दशक में कांग्रेस ने वर्धा पर अपनी पकड़ खो दी है। पिछले दो चुनावों में मोदी लहर ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को हवा में उड़ा दिया। हालांकि पिछले विधानसभा चुनावों में वर्धा में कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा था मगर महाविकास अघाड़ी के उदारमना बड़े भाई का बड़प्पन दिखाते हुए उसने यह सीट शरद पवार को, एनसीपी (एसपी) को दे दी। यही कन्फ्यूजन का कारण है। वर्धा में आम लोगों, व्यवसायियों, महिलाओं, स्थानीय नेताओं और पत्रकारों से बात करने पर यह पता चलता है कि शरद पवार का वर्धा में खासा दबदबा और प्रभाव है मगर उनकी पार्टी नई है और चुनाव चिन्ह भी नया है। शिल्पा और उन जैसे अनेक लोग न तो यह जानते हैं कि कांग्रेस और पवार की पार्टी के बीच गठबंधन है और ना ही वे पवार की पार्टी के नए चुनाव चिन्ह तूताडी से परिचित हैं। यह काले के लिए खतरे की घंटी है।
दूसरी तरफ सभी जातियों, पेशों और महिलाओं और पुरूषों में अब भी नरेन्द्र मोदी के प्रति प्रशंसा भाव है। उन्हें एक स्ट्रांगमैन की तरह देखा जा रहा है जिसने 370 हटा दी और राम मंदिर बना दिया। कई को तो ऐसा लगता है कि मोदी का कोई विकल्प ही नहीं है। ‘‘मोदी नहीं तो कौन” वे पूछते हैं। परंतु मोदी के प्रशंसक होने के साथ-साथ वे तड़स के पक्के विरोधी भी हैं।
‘‘हम चाहते हैं मोदी प्रधानमंत्री बनें मगर हमें तड़स नहीं चाहिए”।
‘‘हम मोदी को चाहते हैं पर हम काले को वोट देंगे”।
‘‘हम न तो मोदी को चाहते हैं न तड़स को पर हमारे पास तीसरा विकल्प ही क्या है”।
कुल मिलाकर वर्धा में गुस्सा है, बदलाव की चाहत है तो कन्फ्यूजन भी है। उत्तर भारत के विपरीत यहां के लोगों को यह अहसास है कि यह चुनाव भारत के भविष्य का निर्धारण करेगा। इसलिए वे खुलकर अपनी बात कह रहे हैं। चुनावी उत्सव का रंग यहां भी फीका है मगर कोई भी पार्टी प्रचार में कसर नहीं रख छोड़ रही है।
संदेह नहीं कि महाराष्ट्र में चुनावी घमासान उत्तर भारत के मुकाबले बहुत दिलचस्प है। वर्धा इसका एक टीजर है जिसमें भावनाएं हैं, जाति है, विकास भी है, और मोदीजी तो खैर हैं ही। (कापीः अमरीश हरदेनिया)