अब किताबें और लेखक भी साफ्ट टारगेट!

अब किताबें और लेखक भी साफ्ट टारगेट!

‘ईट, प्ले, लव’ –यह एक किताब का नाम है और यदि इसे आपने नहीं सुना है तो शायद आप किसी सुदूर द्वीप में अकेले रहते हैं या फिर आप उस पीढ़ी से हैं जिसने अपनी जिंदगी के सारे मसले सुलझा लिए हैं और अब दुनिया में क्या हो रहा है उससे कोई लेना-देना नहीं है। परंतु वाय और जेड पीढ़ी के कई लोगों को लगता है कि यह पुस्तक उन्हें ही संबोधित करती है।उनके लिए है।  अमरीकी लेखिका एलीजाबेथ गिल्बर्ट की यह संस्मरणात्मक किताब, तलाक के बाद की जिंदगी पर लिखी गई है। इसमें भावुकता है और मनोरंजन भी। इसमें लेखिका अपने मन में झांकती है और बार-बार खुद से पूछती है कि उसने जो किया क्या वह सही था। दुनिया भर में इस किताब की दसियों लाख प्रतियां बिकीं। इस पर एक फिल्म भी बनी जिसमें जूलिया राबर्ट्स और हवियर बार्डम ने प्रमुख भूमिकाएं निभाईं। फिल्म भी हिट थी।

पिछले कुछ समय से लेखिका एलीजाबेथ गिल्बर्ट ख़बरों में है। वह भी उस तरह की पुस्तक को लेकर जैसी वे सामान्यतः नहीं लिखतीं। पूरा मसला आज के सबसे ज्वलंत विषयों में से एक – यूक्रेन पर रूस के हमले  -से जुड़ा हुआ है।

गत 12 जून को उन्होंने अपने उपन्यास ‘द स्नो फारेस्ट’ का प्रकाशन अनिश्चिकाल के लिए टाल दिया। यह उपन्यास पिछली सदी के मध्य में साईबेरिया की एक काल्पनिक घटनाक्रम पर आधारित है। एक ऐसे परिवार की कहानी है जो सोवियत संघ और जबरदस्ती औद्योगिकरण करने की उसकी नीति का प्रतिरोध करने के लिए साईबेरिया के निर्जन इलाके में चला जाता है। विषय मनोरंजक और दिलचस्प है। लेकिन उनके प्रशंसकों को ऐसा नहीं लगा। गुडरीड्स नामक एक पुस्तक समीक्षा साईट पर उनकी इस अप्रकाशित पुस्तक को ढेर सारे सिंगल स्टार मिले। और इनमें से अधिकांश उन यूक्रेनी समीक्षकों ने दिए जिन्होंने इसे पढ़ा तक नहीं है।

यह पुस्तक दूर-दूर तक रूसी राष्ट्रवाद का महिमामंडन नहीं करती परंतु गिल्बर्ट का पाप यह है कि उन्होंने अपनी कहानी को रूस में घटता दिखाया है। और उनके कुछ पाठकों की नजरों में यह अत्यंत असंवेदनशील व लगभग विश्वासघाती कृत्य है।

पुस्तक का प्रकाशन रोकने के गिल्बर्ट के फैसले पर मिलीजुली प्रतिक्रिया हुई है। कुछ लोग आज की अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को लेकर उनकी संवेदनशीलता की प्रशंसा कर रहे हैं। लेकिन साहित्य जगत से जुड़े बहुत से लोग उनके निर्णय से चिंतित और परेशान हैं।

रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद से पश्चिम की कई गैलरियों, संग्रहालयों और संगीत सभागारों ने रूस से दूरी बना ली है। वे रूसी कृतियों को प्रदर्शित नहीं करते और रूसी कलाकारों को आमंत्रित नहीं करते। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें लगता है कि रूसी संस्कृति को दिखाने से वे एक तरह से यूक्रेन पर हमले का समर्थन करेंगे। टेनिस से लेकर फुटबाल तक लगभग हर खेल के मामले में भी यह हुआ है। पिछले साल विंबलडन में रूस और बेलारूस के खिलाड़ियों को खेलने नहीं दिया गया। यूक्रेनियाई खिलाड़ी रूस या बेलारूस के खिलाड़ियों के साथ खेलने में अपनी अरूचि और हिचकिचाहट का खुलकर प्रदर्शन करते रहे हैं। वे ऐसे मैचों में खेलते ही नहीं हैं या अपना गुस्सा जाहिर करने के लिए मैच के बाद प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ी से हाथ नहीं मिलाते। यहाँ तक कि ऐसे रूसियों को भी बहिष्कार का सामना करना पड़ रहा है जो युद्ध से अपनी असहमति जाहिर कर चुके हैं या जो सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं कि रूस का यूक्रेन पर हमला गलत है। हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि कुछ लोग यह मांग कर रहे हैं कि महान रूसी लेखकों जैसे फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की एवं एलेक्जेंडर पुश्किन का पुनर्मूल्यांकन होना चाहिए!

बहिष्कार, प्रतिबंध और पुनर्मूल्यांकन की ये मांगें और उनकी पूर्ति ने एक नई बहस और सरोकार को जन्म दिया है। कला, संस्कृति, साहित्य और खेल को आखिर क्यों ‘कैंसिल कल्चर’ का हिस्सा बनाया जाना चाहिए? एलीजाबेथ गिल्बर्ट का मामला तो और भी अनोखा और सिर चकरा देने वाला है। क्या अब हम ऐसे उपन्यास या कहानी भी नहीं लिख सकते जिसके पात्र रूसी हों या जिसका कथानक रूस में घटता दिखाया गया हो? क्या किसी काल्पनिक उपन्यास के घटनाक्रम को रूस में घटता दिखाना युद्ध का समर्थन करना है? अगर गिल्बर्ट ने पुतिन या उनकी कथनी-करनी के बारे में कुछ लिखा होता या युद्ध के बारे में पुतिन की टिप्पणियों का समर्थन किया होता तो फिर भी उनका विरोध समझा जा सकता था। परंतु उनकी पुस्तक तो ऐसे लोगों के बारे में है जिन्होंने सोवियत संघ के दमन का प्रतिरोध किया। आश्चर्य नहीं कि पेन अमेरिका नामक एक संगठन, जो कलाकारों और साहित्यकारों के स्वतंत्र अभिव्यक्ति के अधिकार की वकालत करता है, ने इसे ‘सही इरादे से लिया गया गलत फैसला’ बताया है।

हंगामा सचमुच अचंभित करने वाला है। क्या अब हमें ऐसे रूसी शरणार्थियों की पुस्तकें नहीं पढ़नी चाहिए जो सोवियत संघ के दमन से बचने के लिए देश से बाहर आ गए हैं? क्या हमें अंग्रेज लेखकों के उपन्यासों और कविताओं को इसलिए नहीं छूना चाहिए क्योंकि अंग्रेजों ने एक समय भारत को गुलाम बनाया था? क्या हमें अमरीकी लेखकों का इसलिए बहिष्कार करना चाहिए क्योंकि उनके देश ने वियतनाम और ईराक के खिलाफ अनैतिक, अकारण और क्रूर लड़ाईयां लड़ीं थीं? क्या अपने खिलाफ फतवा जारी होने के बाद सलमान रूश्दी ने लिखना बंद कर दिया? या क्या हाल में उन पर चाकू से हमले के बाद उन्होंने अपनी कलम ताले में बंद कर दी है?

हर पुस्तक किसी न किसी व्यक्ति, किसी न किसी सोच की आलोचना करती है और उसमें अक्सर कहीं न कहीं क्रूरता और हिंसा भी होती है। किताबें मनुष्यों के व्यवहार और स्वभाव के बारे में होती हैं और हम उन्हें इसलिए पढ़ते हैं क्योंकि हम एक मनुष्य बतौर अपने बारे में और जानना चाहते हैं। कोई उपन्यास स्वर्ग की तरह निर्दोष और निष्कलंक दुनिया की बात नहीं करता और ना ही कोई लेखक उस कल्पनालोक में रहता है जिसमें सब कुछ आदर्श और अच्छा हो। बच्चों के लिए लिखी गई परियों की कहानी में भी राक्षस होते हैं। लेखक असल दुनिया के बारे में लिखते हैं।

यूक्रेन में चल रहे युद्ध का प्रतिरोध एक नैतिक संघर्ष है। और यह संघर्ष हम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि हम आजाद ख्याली और आजादी के पैरोकार हैं। परंतु इस युद्ध के विरोध के नाम पर संकीर्णता और अनुदारता दिखाना अपने ही लक्ष्य का अपमान करना होगा। यही कारण है कि एलिजाबेथ गिल्बर्ट का विरोध और उस पर उनकी प्रतिक्रिया –  हास्यास्पद होने के साथ ही चिंतित करने वाली भी हैं। हम पहले ही ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जिसमें ज्यादातर देश अपनी बात कहने की आज़ादी को कुचल रहे हैं। प्रेस स्वयं अपनी सेंसर बन गई है। सूचनाओं और जानकारियों को सेनाटाईज करके प्रस्तुत किया जा रहा है। इससे भी एक कदम आगे बढ़कर सोशल मीडिया में तो ऐसी घटनाओं को समाचार के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है जो कभी घटी ही नहीं हैं। ऐसे विचारों का प्रचार किया जा रहा है जो किसी के हैं ही नहीं। और ऐसे विकट समय में अगर कवि और उपन्यासकार भी अपने पाठकों की दादागिरी के आगे घुटने टेक देंगे तो वह दिन दूर नहीं जब सरकारें और नेता कथा साहित्य के लेखकों और उनके प्रकाशकों को धौंस दिखाने लगेंगे और ऐसी पुस्तकों का प्रकाशन नहीं होने देंगे जो उनके विचार से उनके खिलाफ है। एलिजाबेथ गिल्बर्ट की किताब की सेंसरशिप उतनी आश्चर्यजनक है नहीं जितनी लगती है। कारण यह है कि आज किताबें और लेखक साफ्ट टारगेट बन गए हैं। उनकी आवाज को दबाया जा रहा है और कुछ लोग यह तय करने लगे हैं कि क्या कहा जा सकता है और क्या नहीं, क्या लिखा जा सकता है और क्या नहीं। क्या हमें यह मंजूर है? मैं केवल उम्मीद कर सकती हूं कि गिल्बर्ट अपना फैसला वापिस लेंगीं और दादागिरी के खिलाफ खड़ी होंगीं। ईट, प्रे एंड पुश –  क्योंकि आखिर साहित्य ही युद्ध से बचने में हमारी मदद कर सकता है। और साहित्य युद्ध होने के कारणों को खत्म करने की क्षमता भी रखता है। (कॉपी: अमरीश हरदेनिया)

Published by श्रुति व्यास

संवाददाता/स्तंभकार/ संपादक नया इंडिया में संवाददता और स्तंभकार। प्रबंध संपादक- www.nayaindia.com राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के समसामयिक विषयों पर रिपोर्टिंग और कॉलम लेखन। स्कॉटलेंड की सेंट एंड्रियूज विश्वविधालय में इंटरनेशनल रिलेशन व मेनेजमेंट के अध्ययन के साथ बीबीसी, दिल्ली आदि में वर्क अनुभव ले पत्रकारिता और भारत की राजनीति की राजनीति में दिलचस्पी से समसामयिक विषयों पर लिखना शुरू किया। लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों की ग्राउंड रिपोर्टिंग, यूट्यूब तथा सोशल मीडिया के साथ अंग्रेजी वेबसाइट दिप्रिंट, रिडिफ आदि में लेखन योगदान। लिखने का पसंदीदा विषय लोकसभा-विधानसभा चुनावों को कवर करते हुए लोगों के मूड़, उनमें चरचे-चरखे और जमीनी हकीकत को समझना-बूझना।

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