कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तरजीह राष्ट्र हित को दी जानी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई उभरती परिस्थितियों के कारण अफगानिस्तान एक ऐसा देश बना हुआ है, जहां भारत को लगातार अपना अधिकतम प्रभाव बनाए रखने की कोशिश में जुटे रहना चाहिए।
नई दिल्ली स्थित अफगानिस्तान दूतावास के अधिकारी जब पिछले 30 सितंबर को यहां से चले गए, तब उसके बाद भारत सरकार के पास लगभग आठ हफ्तों का वक्त था, जिस दौरान वह देश में अफगानिस्तान की राजनयिक उपस्थिति को सुनिश्चित कर सकती थी। लेकिन अब यह साफ है कि ऐसा करने में भारत सरकार ने दिलचस्पी नहीं ली। नतीजतन, बीते शुक्रवार को अफगान दूतावास स्थायी रूप से बंद हो गया। दूतावास ने “भारत सरकार की ओर से आ रहीं चुनौतियों” का हवाला देते हुए अपना काम-काज बंद करने का एलान किया है। इसके पहले बीते 30 सितंबर को दूतावास ने भारत सरकार से समर्थन न मिलने, अफगानिस्तान के हितों को पूरा करने में अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने, और कर्मियों एवं संसाधनों की कमी के कारण कामकाज अस्थायी रूप से रोकने की बात कही थी। साफ है, अगस्त 2021 में काबुल पर तालिबान के काबिज होने के बाद अफगानिस्तान और भारत के बीच पैदा हुई खाई को भरने की कोशिश दोनों में से किसी पक्ष ने नहीं की।
अगस्त 2021 के घटनाक्रम को भारत सरकार ने इस क्षेत्र के लिए एक जोखिम के रूप में चित्रित किया था। निरपेक्ष रूप से देखा जाए, तो यह एक सही समझ है। लेकिन एक दूसरी समझ यह है कि कूटनीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों में तरजीह राष्ट्र हित को दी जानी चाहिए। अपनी भू-राजनीतिक स्थिति और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई उभरती परिस्थितियों के कारण अफगानिस्तान एक ऐसा देश बना हुआ है, जहां भारत को लगातार अधिकतम प्रभाव बनाए रखने की कोशिश में जुटे रहना चाहिए। बीते एक साल में अफगान सरकार और पाकिस्तान के बीच संबंध जिस हद तक बिगड़े हैं, संभव है कि उसे भारत के नजरिए से एक सकारात्मक घटना के रूप में देखा जाए। गौरतलब है, चीन ने भी हालांकि तालिबान सरकार को मान्यता नहीं दी है, लेकिन वह लगातार उससे संपर्क बढ़ाता चला गया है। बात अफगानिस्तान को बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव परियोजना में शामिल करने तक पहुंच गई है। ऐसे में यह एक पेचीदा, लेकिन विचारणीय प्रश्न है कि अफगानिस्तान से बचा-खुचा कूटनीतिक संपर्क भी टूट जाना क्या भारत के हित में है?