चुनाव नतीजों को लेकर बढ़े अनिश्चिय के साथ विदेशी निवेशकों में यह अंदेशा बढ़ा है कि अगर केंद्र में मिली-जुली सरकार बनी, तो वह ‘मार्केट के अनुकूल’ नीतियों पर उस आक्रामक अंदाज में नहीं चल पाएगी, जैसा नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है।
शेयर बाजार में हलचल है। सिर्फ इसी महीने विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक भारतीय बाजार से 28,200 करोड़ रुपये निकाल चुके हैं। अप्रैल में उन्होंने 8,700 करोड़ रुपये यहां से निकाले थे। जब यह माना जा रहा था कि इस आम चुनाव में भाजपा की बड़ी जीत पक्की है, तब रुझान विदेशी निवेशकों के भारत में ज्यादा से ज्यादा पैसा लगाने का था। फरवरी में उन्होंने 1,539 करोड़ रुपये का निवेश किया। मार्च में तो यह बढ़कर 35,098 करोड़ रुपये तक पहुंच गया। तो यह स्पष्ट है कि विदेशी निवेशक केंद्र में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार चाहते हैं। संभवतः चुनाव नतीजों को लेकर बढ़े अनिश्चिय के साथ इन निवेशकों में यह अंदेशा बढ़ा है कि अगर केंद्र में मिली-जुली सरकार बनी, तो वह ‘मार्केट के अनुकूल’ नीतियों पर उस अक्रामक अंदाज में नहीं चल पाएगी, जैसा नरेंद्र मोदी सरकार ने किया है। इसीलिए रविवार को कांग्रेस की तरफ से यह याद दिलाया गया कि आर्थिक विकास के मामले में पूर्व यूपीए सरकार का रिकॉर्ड कहीं बेहतर था। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने नोटबंदी, जीएसटी, अनियोजित लॉकडाउन आदि जैसे फैसलों से अर्थव्यवस्था को क्षति पहुंचाई।
इसके अलावा टैक्स के मामले में उसका रुख “आतंक फैलाने” का रहा है। इंडिया गठबंधन की सरकार (अगर बनी तो) इन सबसे मुक्ति दिलाएगी। इसके पहले गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि शेयर बाजारों में अभी जो नुकसान हुआ है, भाजपा की बड़ी जीत होने पर उन सबकी भरपाई हो जाएगी। अब प्रधानमंत्री मोदी ने दावा किया है कि भाजपा के अगले कार्यकाल में शेयर सूचकांक रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंचेंगे। उन्होंने राहुल गांधी के बयानों का हवाला देते हुए कहा है कि कांग्रेस शासित राज्यों में कोई निवेशक पैसा लगाना पसंद नहीं करेगा। लेकिन इस बहस में जो अहम सवाल गायब है कि शेयर बाजारों की ऊंचाई का आज सचमुच आम जन के जीवन स्तर से कितना रिश्ता रह गया है? क्या यह सच नहीं है कि अगर सचमुच किसी सरकार ने जन-कल्याणकारी नीतियां अपनाईं, तो शेयर बाजारों में उसके खिलाफ जोरदार प्रतिक्रिया होगी? इस अंतर्विरोध को अगली सरकार कैसे हल करेगी, असल मुद्दा यह है।