नीति आयोग से संबंधित पब्लिक पॉलिसी सेंटर ने पिछले साल अनुमान लगाया था कि साल 2030 तक मीठे पानी की उपलब्धता में लगभग 40 प्रतिशत की भारी गिरावट आ जाएगी। लेकिन क्या इस चेतावनी से किसी की नींद उड़ी?
भारत के महानगरों में शब्दशः लोग बूंद-बूंद के लिए तरस रहे हैं। वैसे बहुत से देहाती इलाकों में भी हालत बेहतर नहीं है। उससे से भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि लोगों की इस पीड़ा पर प्रभावशाली हलकों में कोई गंभीर चर्चा होती नहीं दिखती। इसलिए यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि सुधार के कोई कदम नहीं उठाए जाएंगे और लोगों को अगले साल फिर ऐसी ही स्थितियों से गुजरना होगा। जलवायु परिवर्तन ने अन्य मौसमों की तरह ही गर्मी की तीव्रता बेहद बढ़ा दी है। इसलिए ऐसी मुसीबतों के दोहराए जाने की आशंका बनी रहने वाली है। बंगुलुरू में कुछ समय पहले गंभीर जल संकट हुआ था। अब दिल्ली में वैसा ही नज़ारा है। मुंबई का हाल भी बेहतर नहीं है। मुंबई महानगर पानी के लिए दूरदराज के गांवों पर निर्भर है। मगर मुंबई को पानी उपलब्ध कराने के बाद गांव अब खुद ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं। विशेषज्ञ ऐसे संकट की चेतावनी काफी समय से चेतावनी दे रहे थे। फिर भी हालात को भयावह हो जाने दिया गया।
गौरतलब है कि दुनिया के सबसे अधिक आबादी वाले इस देश में पानी की मांग बढ़ रही है, जबकि सप्लाई कम होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित बारिश और अत्यधिक गर्मी का आम पैटर्न बन गया है। नीति आयोग से संबंधित पब्लिक पॉलिसी सेंटर ने पिछले साल एक रिपोर्ट में अनुमान लगाया था कि 2030 तक मीठे पानी की उपलब्धता में लगभग 40 प्रतिशत की भारी गिरावट आ जाएगी। रिपोर्ट में घटते भू-जल स्तर और जल संसाधनों की गुणवत्ता में क्षय को लेकर आगाह किया गया था। लेकिन क्या इस चेतावनी से किसी की नींद उड़ी? क्या कहीं यह सोच भी मौजूद दिखती है कि इस साल जैसा संकट आगे ऐसा ना हो, इसके लिए जरूरी योजनाएं बना कर उन पर अमल किया जाएगा? वैसे शहरी लोग फिर भी भाग्यशाली हैं कि उनकी दिक्कतों से संबंधित खबरें सिटी पेज पर छप जाती हैं। जबकि गांवों की तो उतनी सुध भी नहीं ली जाती, जहां अब नियमित रूप से लंबे समय तक अधिक गंभीर सूखा पड़ने लगा है।