भारत अब तक 20 से अधिक देशों के साथ आपसी मुद्राओं में भुगतान का सिस्टम बना चुका है। लेकिन क्या यह सचमुच रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने और इस रूप में अमेरिकी डॉलर के एक विकल्प के रूप में खड़ा करने के लिहाज से पर्याप्त है?
पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संयुक्त अरब अमीरात की यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच रुपये और दिरहम में व्यापार करने के लिए एक समझौते पर दस्तखत किए गए। इसके तहत दोनों देशों के बीच एक लोकल करेंसी सेटलमेंट सिस्टम बनाया जाएगा। भारत में यह बताया गया कि ये कदम रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने की दिशा में उठाए जा रहे कदमों का हिस्सा है। इसी सोच के साथ भारत 2022 से अब तक 20 से अधिक देशों के साथ आपसी मुद्राओं में भुगतान का सिस्टम बना चुका है। लेकिन क्या यह सचमुच रुपये को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा बनाने और इस रूप में अमेरिकी डॉलर के एक विकल्प के रूप में खड़ा करने के लिहाज से पर्याप्त है? हकीकत यह है कि सिस्टम का बनना और असल में किसी मुद्रा में अंतरराष्ट्रीय कारोबार होना दो अलग बातें हैँ। इसका अहसास पिछले दिनों हुआ था, जब रुपया-रुबल में कारोबार के खूब शोर के कुछ महीनों के बाद ही रूस ने रुपये में भुगतान स्वीकार करना रोक दिया। उसके बाद खबर आई कि कई भारतीय कंपनियां रूसी तेल के बदले भुगतान चीनी मुद्रा युआन में कर रही हैं।
इस सिलसिले में भारतीय रिजर्व बैंक की तरफ से जारी एक इंटर-डिपार्टमेन्टल ग्रुप (आईडीजी) की रिपोर्ट उल्लेखनीय है, जिसमें कहा गया है कि रुपये के मुकाबले युआन के पास कई फायदे हैं। मसलन, चीन की अंतरराष्ट्रीय व्यापार में बहुत अधिक हिस्सेदारी और चीन के पास लगातार एक ट्रेड सरप्लस भी बना रहना शामिल हैं। जबकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार में भारत का हिस्सा सिर्फ करीब दो प्रतिशत है। साथ ही कुछ देशों के साथ व्यापार को छोड़ कर भारत का व्यापार घाटा काफी बड़ा है। कहने का तात्पर्य यह कि मुद्रा की अपनी कोई स्वतंत्र ताकत नहीं होती। उसका सीधा संबंध संबंधित देश की अर्थव्यवस्था की ताकत और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उसकी हैसियत से होता है। डॉलर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा इसलिए बना था कि उस समय अमेरिका दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति था। धीरे-धीरे चीन ने उस दिशा में अपनी हैसियत बनाई है। इसलिए भारत के सामने सही रास्ता यह है कि पहले अपनी आर्थिक जड़ों को मजबूत किया जाए।