यूरोपीय संघ के देश रूसी तेल नहीं खरीदते हैं, लेकिन वे वह डीजल खरीदते हैं, जो इस रूसी तेल को कहीं और रिफाइन करने के बाद प्राप्त होता है। इससे ईयू के प्रतिबंध नाकाम होते हैं।
यूरोपीय देशों ने यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद रूस के खिलाफ सख्त प्रतिबंध लगाने की कार्रवाई भावावेश में की या अमेरिकी दबाव में- इस बारे में कयास लगाने की पूरी गुंजाईश है। लेकिन यह बात अब लगभग साफ हो गई है कि इस कदम के पीछे रणनीतिक सोच का अभाव था। इसका ऩतीजा यह हुआ है कि यूरोप की समृद्धि खतरे में पड़ गई है। पूरे यूरोप में महंगाई और ऊर्जा संकट के कारण वहां के उद्योग धंधे अभूतपूर्ण चुनौती का सामना कर रहे हैं। इस बीच रूस की प्राकृतिक गैस की भरपाई के लिए यूरोपीय देश ना सिर्फ अमेरिका से महंगी लिक्विफाइड नेचुरल गैस (एलएनजी) खरीद रहे हैं, बल्कि रूस की प्राकृतिक गैस और एलएनजी परोक्ष रूप से दूसरे देशों के जरिए खरीद रहे हैं। भारत जैसे देश को इसका भारी लाभ मिला है। गौरतलब है कि पश्चिमी देश रूस से कच्चा तेल खरीदने के लिए भारत की आलोचना करते आए हैं। लेकिन ताजा आंकड़ों के मुताबिक भारत उसी रूसी तेल को प्रोसेस कर जो पेट्रोलियम उत्पाद बना रहा है, उन्हें जर्मनी भारी मात्रा में खरीद रहा है। और यह कहानी सिर्फ जर्मनी की नहीं है।
जर्मनी की राष्ट्रीय सांख्यिकी एजेंसी डेस्टाटिस के ताजा आंकड़ों के मुताबिक इस साल जनवरी से जुलाई के बीच जर्मनी ने करीब 40 अरब रुपये मूल्य के भारतीय पेट्रोलियम उत्पाद खरीदे हैँ। उनमें से अधिकांश उत्पाद ऐसे कच्चे तेल से बने, जो भारत ने रूस से खरीदा था। 2022 में जर्मनी ने इसी अवधि में 3.29 अरब रुपए मूल्य के पेट्रोलियम उत्पाद खरीदे थे, यानी एक साल बाद जर्मनी की खरीद में 1,100 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। यह बढ़ोतरी उसी समय हुई, जब भारत बड़ी मात्रा में रूस से कच्चा तेल आयात कर रहा है। कुछ समय पहले यूरोपीय संघ के विदेश नीति प्रमुख जोसेफ बोरेल ने लिखा था कि यूरोपीय संघ के देश रूसी तेल नहीं खरीदते हैं, लेकिन वे वह डीजल खरीदते हैं, जो इस रूसी तेल को कहीं और रिफाइन करने के बाद प्राप्त होता है। इससे ईयू के प्रतिबंध नाकाम होते हैं। तो फिर सवाल है कि इस पूरे प्रकरण को यूरोप को हासिल क्या हुआ?