भोपाल। मैं किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में सोचता हूँ जिसे हंसी ही नहीं आती और जो कभी हंसा ही नहीं। क्या वह नाटक ’बागी अलबेले’ देखते हुए भी ऐसा ही रह सकता है। नहीं, ऐसे व्यक्ति को भी हंसने के लिये मजबूर कर देगा इस नाटक का आल्हादित करने वाला हास्य। देश में कुछ रंग निदेशक ऐसे हैं जिनके नाटकों का प्रदर्शन प्रायः महानगरों तक सीमित रहता है लेकिन वे अपने आप में अद्वितीय होते हैं। इन नाटकों को देखकर आपकी न केवल रंगमंच की समझ समृद्ध होती है वरन् एक नये जीवन अनुभव से भी गुजरते हैं। ऐसे ही रंग निदेशको में एक मुझे कंपनी थियेटर मुम्बई के अतुल कुमार लगते हैं। ऐसे नाटकों को देखने मैं दिल्ली मुम्बई जाता रहा हूँ। यह नाटक भी मैंने दिल्ली जाकर देखा। विदेशी नाटकों का रूपांतर कर मंचित करना हिन्दी रंगमंच का एक पुराना शगल रहा है लेकिन यह शगल इतना आत्मकेन्द्रित और अपरिपक्व होता है कि दर्शक रंगमंच से दूर होते जाते हैं। इनसे अलग अतुल कुमार जब किसी विदेशी नाटक का रूपांतर निर्देशित व मंचित करते हैं तो वह बेहद भारतीय देशी नाटक बन जाता है और दर्शकों को अपने से ऐसे जोड़ता है कि उस नाटक को बार-बार देखने का उसका मन करे। अतुल कुमार का शेक्सपीयर के नाटक ”ट्रवेल्थ नाइट“ का ऐसा ही खूबसूरत रूपांतरित नाटक है ”पिया बहरूपिया“ जो हर मायने में कालजयी नाटक माना जायेगा।
बिरला समूह की रंग पहल परियोजना ’आद्यम’ द्वारा प्रस्तुत अतुल कुमार का ताजा नाटक है ”बागी अलबेले“ जो सत्ता द्वारा रंगकर्मियों, लेखकों, रचनाकारों पर लगाये जा रहे प्रतिबंध और उस प्रतिबंध का रंगकर्मियों द्वारा प्रतिकार को बेहद मनोरंजक लेकिन करारा व्यंग्य के साथ अभिव्यक्ति देता है। 1942 में अर्नस्ट लुनित्श ने फिल्म बनाई थी ”टू बि आर नाट टू बी“ जो नाजी दमन के खिलाफ व्यंग्यात्मक फिल्म थी। इसी फिल्म के आधार पर 2008 में निक व्हिटबी ने नाटक लिखा। अतुल कुमार ने इसी नाटक और फिल्म के आधार पर अपना नाटक ”बागी अलबेले“ तैयार किया जिसका रूपांतरण सौरभ नायर ने किया तथा पटकथा तैयार किया अभिनेता गगन देव रियार ने। मैंने न तो वह फिल्म देखी है और न वह नाटक को देखा या पढ़ा है। मेरे लिये तो इन निर्देशकों के नामों का उच्चारण भी आसान नहीं रहा। ऐसे में मेरे लिये नाटक ”बागी अलबेले“ को देखना एक स्वतंत्र नाटक को देखना था।
नाटक शुरू होता है लुधियाना से एक नाट्य समूह द्वारा अपने नाटक के रिहर्सल से। नाटक के रिहर्सल में कलाकारों के साथ निदेशक को किस तरह जूझना पड़ता है, इसके बखूबी चित्रण के साथ कहानी आगे बढ़ती है। निदेशक मि. दुग्गल की भूमिका में अपने प्रिय एक्टर हर्ष खुराना को देखना मेरे लिये सुखद अनुभव था। कुछ माह पहले ही उन्हें एक अन्य नाटक ’दोष’ में अलग भूमिका में देखा था।
अपने कॉमिक दृश्यों के सहारे नाटक शुरू होने के एक-दो मिनट में ही दर्शकों को बांध देता है। इस बीच नाटक में एक हाइकमान उभरता है जिसे सरकार की आलोचना करना या उसकी कमियां निकालना बर्दाश्त नहीं होता। साथ ही नाटकों व अन्य विधाओं पर प्रतिबंध लगाने की तैयारी की जाती है जिसके शिकार होते हैं अपने नाटक का रिहर्सल करने वाले कलाकार। नाट्य मंचन के पहले स्क्रिप्ट या छापने के पहले खबरों की सत्ता प्रतिष्ठान की एजेंसियों द्वारा पड़ताल करने के बाद उसे स्वीकृत करने या न करने के अनुभवों से हम सब गुजर चुके है। ऐसा सेंसरशिप कभी घोषित होता है तो कभी अघोषित।
यह नाटक किसी समयकाल या किसी सत्ता प्रतिष्ठान को संबोधित नहीं करता लेकिन बिना कहे वह सत्ता की समसायमिक राजनीतिक सांस्कृतिक परिवेश से जुड़ जाता है। हिटलर का काल हो भारत में ब्रिटिश रूल हो, आपातकाल हो या कोई और दौर, राजसत्ता अपने से असहमत या अपनी आलोचना का दमन करना चाहती है और इसके शिकार हमेशा लेखक व कलाकार, होते रहे हैं। ऐसे राजनैतिक प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष और उसके प्रतिकार का नाटक है ”बागी अलबेले“।
हाइकमान के आदेश से सभी नाटक कंपनियां बंद कर दी जाती है और कलाकारों की धर पकड़ शुरू होती है। नाटक के रिहर्सल स्थल को एसटीएफ याने पुलिस का मुख्यालय बना दिया जाता है। धर पकड़ से बचने के लिये नाटक के कलाकार सरकार के जासूसों व पुलिस अफसरों की आंखों में धूल झोंककर उन्हें चकमा देते हुए अपना बचाव करते हैं और आखिर लुधियाना से फरार होने में कामयाब हो जाते हैं।
इन कलाकारों के पास दमन से बचने के लिये दो विकल्प थे, परंपरागत रूप से छिप जायें और अपने रंगमंच पर विराम लगा दें या उनसे बच निकलते हुए कहीं और जाकर अपना रंगमंच जारी रखें। इस कठिन दौर में वे अपने ग्रुप को विखरने से बचाते हुए भाग जाना तय करते हैं। हाईकमान के जासूस और पुलिस अधिकारी को चकमा देने के लिये कलाकार नकली पुलिस अधिकारी व जासूस बनते हैं लेकिन बीच-बीच में उनका अपना असली चरित्र भी उभरने लगता है जिसे वे बेहद मनोरंजक अंदाज में छिपाते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में तरह-तरह की नाटकीय परिस्थितियां उत्पन्न होती है जो मनोरंजक हास्य भी पैदा करती हैं और करारा व्यंग्य भी करती है। ऐसे व्यंग की कुछ बानकी देखिये। नाटक की छानबीन करने वाला पुलिस अफसर जब कहता है कि नाटक तो ठीक है लेकिन इसका नाम ठीक नहीं है तब निदेशक कहता है ठीक है ”बाबर“ शब्द हटा देते हैं। अखवार में खबर आती है कि हाईकमान ने अधिकारी नियुक्त किया है जो सभी नाटकों को देखकर तय करेगा कि उसे बैन किया जाये नही ंतो एक कलाकार कमंेट करता है कि “एक नाटक गु्रप वाले दूसरे का नाटक नहीं देखते तो कोई अफसर सारे नाटक कैसे देख लेगा।” एक कलाकार पूछता है कि दमन के ऐसे दौर में कलाकार बुद्धिजीवी क्या करते है? दूसरा जवाब देता है ”छिप जाते हैं और दमन खत्म होने का इंतजार करते हैं।“
नाटक का अभिनय पक्ष इतना प्रभावी था कि हर कलाकार चाहे वह गगन देव रियार हो या आयशा रजा मिश्र, हर्ष खुराना, मनीष शर्मा, एकलव्य कश्यप, दानिश हुसैन, गिरीश शर्मा आदि सभी के अभिनय में गजब का परफेक्षन था। ऐसा लगता था कि वे पूरे कनविक्षन के साथ अपनी भूमिका निभा रहे हैं। कलाकारों की संवाद अदायगी की टायमिंग में कही कोई हल्की सी चूक नहीं दिखी। ऐसा ही परफेक्षन लाइट और म्युजिक में देखने को मिला। सवा दो घंटे की तो फिल्में भी कम ही वनती है। नाटक तो एक घंटे से अधिक अवधि का बोझिल होने लगता है लेकिन यह नाटक सवा दो घंटे की अवधि का होने के बाद भी एक मिनट के लिये भी धीमा नहीं होता। नाटक की गति ऐसी थी कि बीच में पलक झपकने की गुंजाइश मुझे नजर नहीं आ रही थी। नाटक की गति को बनाये रखने के लिये दृश्य परिवर्तन के लिये भी निदेशक ने कोई समय नहीं लिया और इसके लिये स्टेज को घुमाकर दृश्य बदले गये। दृश्य बदलने का यह प्रयोग दर्शकों को गुदगुदाने वाला था।
किसी भी हाईकमान के दमन और प्रतिबंध का प्रतिरोध सर्वथा जोखिम भरा होता है और यह जोखिम अतुल कुमार और उनकी टीम ने उठाया। रंगकर्मियों का प्रतिरोध तो नाटकीयता लिये हुए ही होगा और ”बागी अलबेले“ भी यही करते हैं। मनोरंजक कामेडी के साथ ही हाईकमान के प्रतिबंध का मखौल उड़ाते हुए कलाकारों का उनके चंगुल से भाग जाना प्रतिरोध की धार को कमजोर नहीं करता। यह नाटक देखते हुए मुझे हिन्दी के शीर्ष व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई के लेखन का स्मरण होता रहा। व्यवस्था पर वैसा धारदार व्यंग्य परसाई के अलावा कहीं नहीं मिलता।
मेरी समझ से किसी नाटक की सफलता के दो पैमाने हो सकते हैं, एक कि नाटक शुरू होते ही वह दर्षकों को अपने साथ बांध ले और दूसरा उसके प्रदर्षन में रिपीट वेल्यू हो। बागी अलबेले दोनों पैमाने पर खरा उतरने वाला नाटक है। आमतौर पर पेशेवर नाटकों को मुख्यधारा का नाटक मानने में संकोच देखा जाता है लेकिन मेरी नजर में पेशेवर नाटक ही मुख्यधारा का रंगमंच है और हिन्दी रंगमंच को समृद्ध करना है तो उसे पेशेवर बनाना ही होगा। सवाल अब यह है कि ऐसे नाटक महानगरों की सीमा पार कर छोटे शहरों तक दर्शक एक वर्ग तक कैसे पहुंचे।