रंगोत्सव के द्विदिवसीय इस पर्व के प्रथम दिन का नाम होली है, तथा दूसरे का नाम धुलैण्डी (धूल)। इसका यह निहितार्थ है कि वर्ष के दौरान मनों में जो दूरी उत्पन्न हुई, उसे यह कहकर समाप्त कर दिया जाय कि होली सो होली अर्थात जो हुई सो हुई,अब उस पर धूल डालते हैं। यह एक प्रकार की क्षमा ही है। क्षमा के रूप में इसे देखे जाने से इस पर्व में स्नेह के कुछ दीप जलते दिखाई देते हैं। आज जो होली का विकृत स्वरूप रंगोली दिखाई देती है, उसमें कभी टेसू के फूलों से रंग बना होली खेली जाती थी।
फाल्गुन पूर्णिमा को होलिका दहन के आयोजन के दूसरे दिन चैत शुक्ल प्रथमा को होली मनाई जाती है। इसमें लोग एक दूसरे पर अबीर, गुलाल, रंग आदि डालकर रंग का उसव मनाते हैं। इसलिए इसे रंगोत्सव भी कहा जाता है। देश के विभिन्न भागों में इसे होली, धूलिवंदन, धुलेंडी, धुरड्डी, धुरखेल, धँधोर आदि नामों से भी जाना जाता है। यह भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है, जो होली अथवा होलाका नाम से भी जाना जाता है।
इस त्यौहार के साथ अनेक पौराणिक व लोक कथाएं, मान्यताएं, आस्था व विश्वास जुड़ी हुई हैं, परन्तु इस पर्व में अत्यंत प्राचीन काल से चली आ रही जगह- जगह पर चौक- चौराहों पर लकड़ियाँ इकट्ठा कर उन्हें जलाने की एक पुरानी प्रथा आज भी देश में अनवरत रूप से जारी है। यह नवसस्येष्टि यज्ञ का ही विकृत रूप है, क्योंकि इस अग्नि में भी लोगों को नवान्न, जिसका होलक नाम प्रसिद्ध है, उसे सेंकते तथा वितरित करते देखा जाता है। वर्तमान में यह होलिकोत्सव के रूप में प्रचलित है। इसमें फाल्गुन पूर्णिमा को लकड़ी, कूड़ा- करकट आदि को जलाकर होलिका दहन किया जाता है, तथा इसके दूसरे दिन एक दूसरे पर अबीर, गुलाल, रंग आदि डालकर रंग का उसव मनाया जाता है।
वैदिक काल में ऐसे किसी होलकोत्सव का वर्णन तो नहीं मिलता, हाँ, वसंतोत्सव के रूप में मदनोत्सव मनाने का उल्लेख कई पौराणिक ग्रन्थों में मिल जाता है। परन्तु यह भी सत्य है कि समय के साथ उसकी परम्परा में भी बहुत परिवर्तन व परिवर्द्धन हुआ है। प्राचीन काल से अनवरत चली आ रही गतवर्ष की होलिका और नववर्ष के उमंग के पर्व परम्परा के साथ प्रहलाद- होलिका, इलोजी और कृष्ण-गोपी, कामदेव आदि की पौराणिक शास्त्र व लोक दोनों ही कथाएँ जुड़ गईं अथवा जोड़ी गईं। धूल के साथ खेली जा रही हुड़दंगी होली सचमुच धुलंडी ही रही होगी, परन्तु रंग व गुलाल लेकर श्याम के रंग में रंग कर कालान्तर में रंगीन हो गई। इस पर्व का वर्णन पौराणिक ग्रन्थों व अन्य संस्कृत साहित्य में बसंत ऋतु व वसंतोत्सव, मदनोत्सव और होली के अनेक स्वरूपों में किया गया है।
पुरातन भारतीय साहित्य के अध्ययन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भारत में आमोद – प्रमोद के पर्व वसंतोत्सव पर कुसुमसार अर्थात फूलों से बने इत्र आदि सुगंधित द्रवों का परस्पर उपहार रूप से व्यवहार में लाया जाता था। सम्मिलित मित्रों पर गुलाबपास अर्थात पिचकारियों द्वारा गुलाब का जल छिड़का जाता था, तथा प्राकृतिक संसाधनों से प्राप्त गुलाल रंग आदि का प्रयोग किया जाता था। वसंत के इस काल में प्रकृति में यत्र -तत्र -सर्वत्र विभिन्न प्रकार के रंगों से युक्त सुगंधित पुष्प विकृति को अलंकृत कर रहे होते हैं। प्रकृति प्रदत सामर्थ्य में सभी वनस्पति और प्राणी चारों और हर्षोल्लास का दिव्य वातावरण बनाकर ईश्वर का गुणगान कर रहे होते हैं। ऐसे मनोरम वातावरण में सभी मनुष्यों को अपनी न्यूनताओं, हीनभावनाओं, भेदभाव, छल- कपट, ईर्ष्या, द्वेष आदि को छोड़कर एक तत्व के भाव को आत्मसात करते हुए इस वर्ष इस उत्सव के पर्व को मनाने, और किसी भी प्रकार से किसी के साथ प्रतिकूल आचरण न करने का संकल्प लेना चाहिए। एक दूसरे को गले से लगाना चाहिए, भूल- भटके को राह दिखाना, अपनी गलत वासना को उपासना के माध्यम से ठीक करना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि वसंत के दो छोर हैं। और वसंत ऋतु से अधिक ऋतुसंधि है। इस ऋतुसंधि के रूप में वर्ष में एक नहीं, दो वसंत हो जाते हैं- एक, शीत के आरंभ में, और दूसरा, शीत के अंत में। इनमें एक का प्रतिनिधित्व दीपावली करती है, दूसरे का प्रतिनिधित्व होली। बहुत भिन्न और दूर होकर भी बहुत साम्य लिए रंग और नूर के मेले की भांति होली व दीपावली भारतीय संस्कृति, हिन्दू आस्था के दो शिखर पर्व हैं। दोनों ही नववर्ष के आरंभ हैं, दोनों में उत्सव का आनंद, मिष्टान्न का माधुर्य और दोनों ही सामाजिक मिलन के पर्व हैं। दोनों के वैषम्य में निहित साम्य का अनुप्रास अपनी अनुभूति व उपस्थिति में वैचित्र्य लिए हुए है। प्रकृति रूप में एक से शरद का आगमन है, तो दूसरे से ग्रीष्म का। ज्योतिषीय रूप में एक कृष्ण पक्ष का आरंभ है,तो दूसरा उसका अंत है। एक की महत्ता पूरब में अधिक है, तो दूसरे की पश्चिम में। एक में तन पर रंग लगाते हैं, तो दूसरे में घर पर रंग चढाते हैं। सब कुछ भूल जाने का और खो जाने का काल होली है, तो दीपावली बहुत कुछ याद करने का और जो है उसे सहेज जाने का पल है।
होली अकिंचनता में भी गौरव से बोलती है, तो दीपावली संपन्नता के वैभव में डोलती है। फिर भी होली में बहुत साम्यवादी अभेद है। यह प्रखर होते दिवस का एक त्यौहार है। इसमें रात्रि की प्रहरी में घर, देहरी पर दीप नहीं बल्कि चौराहे पर लोग होलिका जलाई जाती है। होली घर से द्वार तक उजास का नहीं बल्कि घर से बाहर तक उल्लास का पर्व है। इसमें दीपावली से संयुक्त श्रीराम की विजयगाथा के समान श्रीकृष्ण की रासकथा है। होली वैष्णव परम्परा के श्रीकृष्ण का पर्व होकर भी उसमें शैव आह्लाद और उन्माद है। इसमें पटाखे नहीं बल्कि पिचकारी चलती है। होली प्रेम का मादक पर्व है। होली में उन्मुक्तता है प्यार की, यौवन की। होली अवसर है राँझन के भाने का। होली की हुल्लड़ के हुड़दंग में भी स्वर का माधुर्य है। होली स्पर्शमय है, जिसमें देह भी दीवारों सी सज जाती है। होली आशा का नहीं, उल्लास का पर्व है। होली में दुनिया को रंग लगाने का उल्लास है, पर दुनिया में रंग भरने की आस भी है। यह रंग के राग से चलकर राग के रंग तक की यात्रा है। क्योंकि यह देह से नेह तक, और नेह से देह तक पहुँचने का पर्व भी है। इसीलिए तो यह रग रग में राग, रोम रोम में रंग बनती है। होली ऋतुराज का रंगपर्व है।
ऋतुराज वसंत के माहौल में बिखरने और मौके पर निखरने पर अपनी हथेलियों से रंग लगाने का ही नहीं, बल्कि अपने हाथों से रंग भरने का भी आवाहन करती है। धूल को गुलाल करने की और हथेली को गाल से जुड़ने का अवसर होली देती है। होली संस्कृति की है, परन्तु बहुत असंस्कृत भी है। यह अभद्र भी है, जरा पशुपन अर्थात वन्य भी है। उसमें एक सर्वाहारापन है, फकीरी का फक्कड़पन है। परन्तु उससे आगे हुड़दंगपन है। फिर भी होली विशुद्ध पर्व है, इसमें कोई रीति नहीं, कर्मकांड नहीं, पूजा नहीं, औपचारिकता नहीं। कहा जाता है कि जीवन अक्सर होली और होलिका के ध्रुवों में बँटा हुआ है। लोगों को होली की चाह, इच्छा होती है, और उन्हें होलिका मिलती है। जिनको जीवन में होली नहीं मिलती, उनको जीवन होलिका दिखने लगती है। अथवा वे स्वयं होलिका बना लेते हैं। कहा जाता है कि जीवन में रंग नहीं भरा जाय, तो आग स्वयं भर जाएगी। इसीलिए तो जीवन के दो आयाम माने गए हैं- बसंत और बस अंत।
रंगोत्सव के द्विदिवसीय इस पर्व के प्रथम दिन का नाम होली है, तथा दूसरे का नाम धुलैण्डी (धूल)। इसका यह निहितार्थ है कि वर्ष के दौरान मनों में जो दूरी उत्पन्न हुई, उसे यह कहकर समाप्त कर दिया जाय कि होली सो होली अर्थात जो हुई सो हुई,अब उस पर धूल डालते हैं। यह एक प्रकार की क्षमा ही है। क्षमा के रूप में इसे देखे जाने से इस पर्व में स्नेह के कुछ दीप जलते दिखाई देते हैं। आज जो होली का विकृत स्वरूप रंगोली दिखाई देती है, उसमें कभी टेसू के फूलों से रंग बना होली खेली जाती थी। इस प्राकृतिक रंग से कम से कम बीमारी तो नहीं फैलती थी, परन्तु वर्तमान में टेसू का स्थान जहरीले रसायन युक्त रंगो तथा कीचड़ और न जाने किस-किस वस्तु ने ले लिया है। गुलाल में भी जहरीले रसायन मिला दिया जाता है।
इसलिए इस रूप का समापन आवश्यक है। इसके लिए प्राकृतिक रंग से एक तिलक लगाने का विकल्प उचित होगा। चन्दन का लेप सर्वश्रेष्ठ है। इसके लिए हमें आज से अभी से ही संकल्पित होना चाहिए। संगठन व मेल- मिलाप के इस त्यौहार पर भाई-चारा बढ़ाने के पर्व के रूप में मनाने हेतु गम्भीर प्रयास होने चाहिए। इस होलिकोत्सव के नवसस्येष्टि यज्ञ को संगठन की दृष्टि से महत्व प्रदान करते हुए अहंकार व द्वेष का परित्याग करने का संकल्प लेना, और वर्ष भर में जो अप्रिय हुआ, उसे भुला स्नेहसूत्र में परस्पर बँधने और बाँधने का प्रयास करना चाहिए।