क्यों होता है पोस्ट-पार्टम डिप्रेशन?

कईयों के लिये मां बनना एक डरावने सपने की तरह होता है। बहुतों को तो मां बनने के बाद डिप्रेशन हो जाता है जिसे कहते हैं पोस्ट पार्टम डिप्रेशन। इसकी शुरूआत हो जाती है प्रेगनेन्सी में लेकिन असर दिखाई देता है डिलीवरी के बाद। बात-बात पर झल्लाना, गुस्सा करना और पैनिक अटैक जैसे लक्षण उभरते हैं। कुछ का बच्चे से लगाव खत्म होने लगता है। अगर समय पर इलाज और सही सपोर्ट न मिले तो दिमाग में खुदकुशी के ख्याल उठने लगते हैं।

कहते हैं कि मां बनना दुनिया की सबसे बड़ी खुशी होती है। लेकिन हर औरत पैदा होते ही अपने बच्चे से जुड़ाव महसूस करे ऐसा जरूरी नहीं। कइयों के लिये मां बनना एक डरावने सपने की तरह होता है। बहुतों को तो मां बनने के बाद डिप्रेशन हो जाता है जिसे कहते हैं पोस्ट पार्टम डिप्रेशन। इसकी शुरूआत हो जाती है प्रेगनेन्सी में लेकिन असर दिखाई देता है डिलीवरी के बाद। बात-बात पर झल्लाना, गुस्सा करना और पैनिक अटैक जैसे लक्षण उभरते हैं। कुछ का बच्चे से लगाव खत्म होने लगता है। अगर समय पर इलाज और सही सपोर्ट न मिले तो दिमाग में खुदकुशी के ख्याल उठने लगते हैं।

हमारे समाज में पुरूषों को प्रेगनेन्सी केयर, लेबर पेन और डिलीवरी बगैरा से दूर रखा जाता है, बहुत से परिवारों में तो प्रेगनेन्ट होते ही महिला को मायके भेज देते हैं। घर-परिवार में इस पर खुलकर बात नहीं होती, इसलिये इस बारे में वे हकीकत से वाकिफ ही नहीं हो पाते। उन्हें इस सम्बन्ध में जो भी पता होता है उसका एक मात्र जरिया होता है फिल्में या टीवी सीरियल। जिनमें डिलीवरी के कुछ सेकेंडों के सीन में पहले महिला दर्द में दिखाई देगी, फिर बच्चे के रोने की आवाज आयेगी और फिर वह नजर आयेगी बच्चे को खुशी से देखते या चूमते। अब न उसे कोई दर्द है न परेशानी।

जरा सोचिये कि क्या ये सब इतना आसान होता है। असल हकीकत एकदम उलट होती है। जब एक औरत मां बनती है तो वह शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के बदलावों से गुजरती है। और ऐसा होता है शरीर में हो रहे हारमोनल चेन्जेज के कारण। प्रेगनेन्सी ठहरने के बाद महिला शरीर में रिप्रोडक्टिव हारमोन्स जैसे एस्ट्रोजन और प्रोजेस्ट्रोन करीब-करीब 10 गुना बढ़ जाते हैं। इनकी वजह से ही मां के पेट में बच्चे के लिये जगह बनती है, उसके पोषण का इंतजाम होता है और तो और डिलीवरी का पूरा दारोमदार भी इन्हीं पर होता है। महीनों, मां के शरीर में हलचल मचाने के बाद जैसे ही डिलीवरी होती है ये हारमोन्स अचानक कम हो जाते हैं जिसका असर नजर आता है पोस्ट पार्टम डिप्रेशन के रूप में। इससे घबराहट, नींद न आना, वजन बढ़ना और आइडेन्टिटी क्राइसिस जैसी समस्यायें होने लगती हैं। एक तो पेन, फिर शरीर में हुए अचानक बदलाव और उस पर ये समस्यायें जरा सोचिये मां बनते ही महिला पर क्या बीतती है।

इस सम्बन्ध में हुए एक शोध से सामने आया कि अपने देश में हर पांच में से एक महिला डिलीवरी के बाद कम से कम 15 दिन तक पोस्ट पार्टम डिप्रेशन से गुजरती है। और कुछ तो महीनों तक इससे जूझती रहती हैं। इसका असर पति और बच्चे पर भी पड़ता है। पुरूषों में भले ही हारमोनल चेन्जेज न होते हों लेकिन वे बदले माहौल और पत्नी को स्ट्रेस में देखकर परेशान हो जाते हैं। इसके साथ ही पिता बनने की जिम्मेदारी टेंशन बढ़ा देती है। इतना ही नहीं नवजात शिशु पर भी इसका असर पड़ता है उसकी नींद और भूख दोनों कम हो जाती हैं जिससे शारीरिक और मानसिक विकास उस गति से नहीं हो पाता जिस गति से होना चाहिये। आगे चलकर इसकी झलक मिलती है बच्चे के बुरे बर्ताव के रूप में।

अगर पोस्ट पार्टम डिप्रेशन से बचना है तो इसके लक्षणों को जल्द से जल्द पहचानने का प्रयास करें ताकि समय से इलाज हो और महिला डिलीवरी के बाद नार्मल लाइफ बिता सके। याद रखें यह मां के लिये ही नहीं बल्कि बच्चे और पिता के लिये भी जरूरी है।

डिलीवरी के बाद सात-आठ दिन तक मूड स्विंग, सैडनेस, चिड़चिड़ाहट के लक्षण यानी बेबी ब्लूज तो सामान्य बात है। लेकिन बेबी ब्लूज और पोस्ट पार्टम डिप्रेशन में अंतर होता है। बेबी ब्लूज का ड्यूरेशन बच्चे के पैदा होने के बाद 10-15 दिन का होता है। इस दौरान हल्का मूड स्विंग, बेचैनी, उदासी और रोने का मन करता है। भूख और नींद कम हो जाती है व चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है। जबकि पोस्ट पार्टम डिप्रेशन में ये लक्षण ज्यादा गम्भीर होते हैं और महीनों रहते हैं। इसमें जबरजस्त मूड स्विंग और एंग्जायटी के साथ पैनिक अटैक तक हो जाता हैं। जोर-जोर से चीखने का मन होता है। भूख बिलकुल नहीं लगती या बहुत ज्यादा लगने लगती है। नींद नहीं आती या हमेशा सोने का मन करता है। यहां तक कि कुछ महिलायें तो खुदकुशी के बारे में सोचने लगती हैं उन्हें बच्चे से जुड़ाव ही महसूस नहीं होता। पति, दोस्तों और परिवार वालों से चिढ़ होने लगती है। थकान इतनी ज्यादा बढ़ जाती है कि हमेशा लेटे रहने का मन करता है। उदासी और सूनापन इतना ज्यादा कि लगता है अब जीवन में कुछ नहीं बचा।

अगर इसके इलाज की बात करें तो शुरूआत में इसे काउंसलिंग और थेरेपी से कंट्रोल किया जा सकता है। लेकिन देर होने और मामला बिगड़ने पर एंटी-डिप्रेशन दवाओं की जरूरत पड़ती है। कई बार तो ये दवायें प्रेगनेन्सी से ही शुरू हो जाती हैं लेकिन ये सब डिपेन्ड होता है लक्षणों की गम्भीरता पर।

सामाजिक दबाव की वजह से अधिकतर महिलायें ऐसी बातें डॉक्टर को भी नहीं बतातीं। उन्हें डर लगता है कि लोग क्या सोचेंगे। कहेंगे कैसी मां है जिसमें अपने बच्चे के लिये ममता नहीं। खुश दिखने और अच्छी मां होने का सामाजिक प्रेशर इतना ज्यादा होता है कि वे इस बारे में खुलकर बात ही नहीं कर पाती कि उन्हें कितनी तकलीफ है। ऐसे में जरूरी है कि पति और परिवार वालों को पोस्ट पार्टम डिप्रेशन की पूरी अवेयरनेस हो ताकि वे समझ सकें मां बनना कोई आसान काम नहीं और नयी मां बनी महिला के लिये सही-सुरक्षित माहौल व सपोर्ट सिस्टम तैयार कर सकें।

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