चंद्रयान-तीन की सफलता, राष्ट्रवाद के उफान और मोदी के विश्व नेतृत्व के बीच यह नहीं देखा जा रहा है कि पांच देशों के समूह ब्रिक्स के विस्तार की कूटनीति असल में चीन की कूटनीति का हिस्सा है। ब्रिक्स उसी तरह से चीन का फ्रंट है, जैसे शंघाई सहयोग संगठन है। एक एक करके जिस तरह से शंघाई सहयोग संगठन में नए सदस्य जुड़ रहे हैं और फिर उनको ब्रिक्स में जगह मिल रही है वह नई विश्व व्यवस्था में चीन की जगह मजबूत करने वाला साबित हो सकता है। मिसाल के तौर पर कुछ समय पहले ही ईरान को शंघाई सहयोग संगठन का सदस्य बनाया गया और अब जोहान्सबर्ग में उसको ब्रिक्स का पूर्ण सदस्य बनाने का फैसला भी हो गया। इसमें संदेह नहीं है कि ईरान के साथ भारत के संबंध भी अच्छे हैं और भारतीय मुद्रा में उसके साथ भारत का कारोबार चलता रहा है। लेकिन ऐसा नहीं है कि भारत ने उसको एससीओ या ब्रिक्स में शामिल कराने की पहल की है।
भले अभी कुछ भी कहा जाए लेकिन थोड़े समय पहले तक भारत ब्रिक्स के विस्तार के समर्थन में नहीं था। तभी अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने इस तरह की खबरें दी थीं। यह अनायास नहीं है कि ब्रिक्स के विस्तार को साइनोफोबिया यानी चीन के प्रति भय की तरह पेश किया गया। यह कहा गया कि ब्रिक्स का विस्तार करके चीन अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। ब्रिक्स में शामिल भारत और ब्राजील दोनों के बारे में कहा जा रहा था कि वे विस्तार के पक्ष में नहीं हैं। य़ह भी कहा जा रहा था कि ये दोनों देश पश्चिमी देशों खास कर अमेरिका को नाराज नहीं करना चाहते हैं।
अभी जोहान्सबर्ग में हुए 15वें ब्रिक्स सम्मेलन में जिन छह देशों को इसका सदस्य बनाया गया है उनमें से अर्जेंटीना के बारे में कहा जा रहा था कि वह इसका हिस्सा बनने के लिए इच्छुक नहीं था। लेकिन चीन ने ब्राजील के राष्ट्रपति लूला की मदद से उसको तैयार कराया कि वह ब्रिक्स का सदस्य बने। ईरान और इंडोनेशिया का नाम पहले से तय बताया जा रहा था लेकिन किसी कारण से इंडोनेशिया को इस बार नहीं शामिल किया गया। छह में से चार इस्लामिक देश इसका हिस्सा बने हैं। हालांकि इनमें से सऊदी अरब, मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात पर अमेरिका का असर है और उनकी कूटनीति व अर्थनीति दोनों अमेरिका के साथ जुड़ी है। लेकिन चीन को पता है कि अगर आने वाले दिनों में टकराव बढ़ता या सचमुच दुनिया सभ्यताओं के संघर्ष की ओर बढ़ेगी तो ये इस्लामी देश अंततः उसके साथ आएंगे। ध्यान रहे छह नए देशों में से चार इस्लामिक मुल्क हैं और इथियोपिया में भी 30 फीसदी से ज्यादा आबादी मुस्लिम है। यह भी तथ्य है कि इन सभी छह नए देशों में चीन का बहुत बड़ा निवेश है। यह सही है कि इनके साथ भारत के भी अच्छे संबंध हैं लेकिन चीन के साथ इन देशों की अर्थव्यवस्था जुड़ी है।
अमेरिका और यूरोपीय देशों को भारत से खतरा नहीं है, बल्कि वे भारत की मदद से चीन के खतरे को काबू करने की सोच रहे हैं और इसलिए भारत को ज्यादा महत्व दे रहे हैं। लेकिन उनको भी लग रहा है कि ब्रिक्स का विस्तार जी-सात, नाटो या यूरोपीय संघ के लिए चुनौती है। वे इसे इन तीनों संगठनों के विकल्प के तौर पर चीन के प्रयास के रूप में देख रहे हैं। इसका कारण यह भी है कि ब्रिक्स एक राजनीतिक व कूटनीतिक संगठन के तौर पर तो मजबूत हो ही रहा है साथ ही ब्रिक्स बैंक यानी न्यू डेवलपमेंट बैंक भी बहुत मजबूत हो रहा है। ब्रिक्स में छह नए देशों को शामिल करने से पहले ही संयुक्त अरब अमीरात, बांग्लादेश और मिस्र को इसका सदस्य बनाया गया है और लैटिन अमेरिकी देश उरुग्वे को सदस्य बनाने की प्रक्रिया चल रही है। इस साल मई तक एक सौ के करीब अंतरराष्ट्रीय परियोजनाओं के लिए ब्रिक्स बैंक ने करीब 33 अरब डॉलर का कर्ज सदस्य देशों को दिया था। अगर ब्रिक्स में नए सदस्य जुड़ते हैं और साथ साथ ब्रिक्स बैंक के देशों की सदस्यता बढ़ती है तो इसके लिए पूंजी जुटाने और सदस्य देशों की परियोजनाओं के लिए फंडिंग करने में भी आसानी होगी। तभी न्यू डेवलपमेंट बैंक को पश्चिमी देशों की फंडिंग से चलने वाली अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं जैसे विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के लिए चुनौती की तरह देखा जा रहा है। अभी एक दर्जन से ज्यादा देश ब्रिक्स की सदस्यता मिलने की उम्मीद कर रहे हैं। तभी अमेरिका और यूरोपीय देश इसे लेकर चिंता में हैं तो दूसरी ओर चीन अफ्रीका व लैटिन अमेरिका में अपने सहयोगी देशों की मदद से इसे आगे बढ़ा रहा है। भारत महाशक्तियों के इस खेल में क्या भूमिका निभा पाएगा यह कहना अभी मुश्किल है।