महात्मा गांधी मजबूरी हैं

महात्मा गांधी मजबूरी हैं

पिछले कुछ बरसों में पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ साथ जिस महान हस्ती को विलेन बनाने की कोशिश की गई है वह महात्मा गांधी हैं। सोशल मीडिया में सक्रिय ट्रोल ब्रिगेड जितनी नफरत नेहरू से करता है उतनी ही या कई बार उससे ज्यादा महात्मा गांधी से करता है। तभी यह अनायास नहीं है कि पिछले कुछ बरसों में गांधी की जयंती या पुण्यतिथि के मौके पर ट्विटर के ऊपर गांधी से ज्यादा नाथूराम गोडसे ट्रेंड करता है। हिंदुत्व से जुड़े संगठनों के कई नेता गोडसे को देशभक्त ठहरा चुके हैं। कई जगह गोडसे की मूर्तियां लगाए जाने की खबरें आईं। किसी न किसी तरह से गांधी के बरक्स गोडसे को स्थापित करने की कोशिश हो रही है।

सरकारी स्तर पर अलग ही काम चल रहा है। सरदार वल्लभ भाई पटेल और नेताजी सुभाष चंद्र बोस को कांग्रेस से अलग आजादी का महानायक बनाने की कोशिश हो रही है। वे आजादी के महानायक हैं लेकिन उनको कांग्रेस से अलग किया जा रहा है और साथ ही गांधी और नेहरू से भी अलग किया जा रहा है। तभी गुजरात के केवडिया में नर्मदा के किनारे दुनिया की सबसे ऊंची मूर्ति बनी तो वह सरदार पटेल की बनी और इंडिया गेट पर जॉर्ज पंचम की मूर्ति हटाने से खाली हुई कैनोपी में जो मूर्ति लगी वह नेताजी सुभाष चंद्र बोस की थी। हालांकि उसके बाद से ध्यान नहीं है कि नेताजी के सम्मान में कोई कार्यक्रम हुआ या कोई विदेशी मेहमान आया तो उसे नेताजी की मूर्ति के दर्शन कराए गए। इस बीच नेताजी के पोते चंद्र बोस ने यह कहते हुए भाजपा से इस्तीफा दे दिया है कि भाजपा को नेताजी के विचारों से कोई वास्ता नहीं है। बहरहाल, नौ साल में पटेल और नेताजी की मूर्ति लगी और मान लिया गया कि गांधी के नाम पर पहले जो हो गया है सो हो गया है। इस सरकार ने उनके नाम पर कुछ नया करने की नहीं सोची। लेकिन क्या करें, अंतरराष्ट्रीय समुदाय में गांधी नायक हैं और उनके नाम से देश को सम्मान व स्वीकार्यता मिलती है। तभी गांधी मजबूरी बन गए हैं।

प्रधानमंत्री मोदी दुनिया के किसी भी देश में जाएं तो वहां उनको गांधी के देश का नेता माना जाता है। वहां भी गांधी की मूर्तियों पर फूल चढ़ाना पड़ता है और जब दुनिया के किसी देश का नेता भारत आता है तो वह भी गांधी की समाधि पर फूल चढ़ाने जाता है। जी-20 के शिखर सम्मेलन का एक बड़ा आयोजन गांधी समाधि पर होना है। शिखर सम्मेलन का एजेंडा वन अर्थ, वन फैमिली और वन फ्यूचर है, जो गांधी का जीवन दर्शन रहा है। वे हमेशा मानते रहे कि धरती को बचाना है तभी राष्ट्र और धरती बचेंगे। उनका यह कहा मशहूर है कि पृथ्वी हर व्यक्ति की जरूरतों के लिए पर्याप्त है लेकिन एक व्यक्ति के भी लालच के लिए कम पड़ेगी। यही तो ‘वन अर्थ’ का कांसेप्ट है, जिस पर जी-20 में चर्चा होनी है। लेकिन दुर्भाग्य से गांधी के देश में न तो धरती बचाने की कोई पहल हो रही है और न परिवार व समाज बचाने की।

जिस समय पूरी दुनिया को एक परिवार मान कर जी-20 के देश ‘वन फैमिली’ पर चर्चा करने वाले हैं उसी समय इस देश के एक छोटे से राज्य मणिपुर में ऐसा भयंकर जातीय विभाजन है कि कुकी और मैती एक दूसरे के खून के प्यासे हो रहे हैं। केंद्र सरकार की तरफ से वहां शांति बहाली का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ है। मणिपुर तो एक मिसाल है। पूरे देश में किसी न किसी तरह के विभाजन को बढ़ावा दिया जा रहा है। राजनीतिक लाभ के लिए जातीय व सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन विरोधाभास और दोहरापन देखिए जो प्रधानमंत्री  दुनिया को एक परिवार मानने पर चर्चा कर रहे है! भारत ऐतिहासिक रूप से बहुलता और विविधता को संजो कर उसमें एकता बनाने वाला देश रहा है लेकिन अब उस विविधता को विभाजन का कारण बनाया जा रहा है। पूरी दुनिया के एक परिवार मानने से पहले भारत खुद  सभी समुदायों को एक परिवार मान व्यवहार बनाएं तभी तो ऐसे एजेंडे की सार्थकता होगी। क्या नहीं?

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Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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