भले न माने, सबकुछ खत्म होता हुआ!

भले न माने, सबकुछ खत्म होता हुआ!

ऐसे ही सन् 2022 के भारत में कला और संस्कृति में ऐसा क्या है, जिसे देख कर दुनिया वाह करे? क्या कोई नया एमएफ हुसैन या सैयद हैदर रजा तैयार हुआ है? क्या कोई पंडित भीमसेन जोशी, कुमार गंधर्व और बिस्मिल्ला खां देश में तैयार हुए हैं? आजादी से पहले या उससे ठीक बाद जन्मे कला व संस्कृति के महान लोग चले गए और देश बौनों को महान बनाने में जुटा है। कला और संस्कृति के लिए जिस तपस्या, साधना और प्रतिबद्धता की जरूरत है वह दिख नहीं रही है। साहित्य के नाम पर क्या लिखा जा रहा है वह किसी को पता नहीं है। स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी में साहित्य पढ़ने-पढ़ाने वाले लोग हो सकता है कि इसके बारे में जानते हों लेकिन आम लोगों के जीवन से तो साहित्य क्या बाहर नहीं हो गया?

सोचे, कब तक प्रेमचंद, निराला, दिनकर का जिक्र करते रहेंगे? क्या कला, संस्कृति, साहित्य सबका अंत आ चुका है? बताया जाता है फंला आखिरी सुपरस्टार है तो कोई आखिरी महानायक है, तो कई आखिरी गायक है तो कोई आखिरी महान संगीतकार है। सबने मान लिया है कि आगे अब इससे बेहतर नहीं हो सकता है। बेहतर नहीं तो कम से कम उसके जैसा होने की कोशिश तो होनी चाहिए!

भारत कभी अपनी समाज व्यवस्था, परिवार और परंपराओं के लिए भी जाना जाता था। लेकिन अब क्या है? उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था के साथ जो अनिवार्य बुराइयां देश में आईं है उन्होंने पूरे देश को गिरफ्त में ले लिया है। पहले कहा गया कि देश संक्रमण काल से गुजर रहा है लेकिन वह संक्रमण काल कई दशक का हो गया। अब संक्रमण काल ही स्थायी है। समाज टूट रहा है और परिवार बिखर रहे हैं। कहीं मजबूरी में तो कहीं फैशन की वजह से। उपभोग या भूख ने सारी अच्छी बातों को निगल लिया है।

अखबार उठाएं तो चौतरफा अपराध की खबरें हैं। पहले भी अपराध की खबरें बहुत होती थीं और लोग चटखारे लेकर पढ़ते भी थे। लेकिन अब अपराध का स्वरूप बदला है। अब हार्डकोर क्राइम की जगह पैशन क्राइम ने ले ली है। पैशन क्राइम का मतलब रिश्तों में अपराध या भावनात्मक अपराध है। फिजिकल सेंस में रिश्तों का कत्ल हो रहा है। इस तरह के हैडिग होते है -‘पत्नी ने प्रेमी संग मिल पति की हत्या की’, ‘दूसरी औरत से संबंध का विरोध किया तो पति ने पत्नी की हत्या की’, ‘लिव इन पार्टनर ने हत्या कर लाश को टुकड़ों में काटा’, ‘पोते ने दादी की हत्या की’, ‘बेटे ने मां की हत्या की’ ऐसे हेडलाइन लगभग रोज देखने को मिलते है। सड़क पर मामूली विवाद में किसी ने किसी की हत्या कर दी तो संपत्ति के विवाद में भाइयों, भतीजों की हत्या बहुत मामूली बात हो गई है। तलाक की घटनाओं में भारत पश्चिमी देशों को पीछे छोड़ रहा है। मतलब वे तमाम मूल्य जिनसे पश्चिमी देश पीछा छुड़ाना चाहते हैं उन्हें आधुनिकता के नाम पर भारत में सहज अपनाया जा रहा है। सही है पहले भी समाज में इस तरह की घटनाएं होती थी लेकिन अपवाद के लिए। अब यह भारतीय समाज की सचाई है। पूरा समाज जातियों में बंटा है। जातीय अस्मिता दूसरी किसी पहचान पर भारी है। जातीय व धार्मिक पहचान के आधार पर शहर छोड़िए गांवों तक में तनाव बना है। वहां गांव जीवन की रूमानियत खत्म हो चुकी है। किसी जमाने में समाज में जब बुराइयां बढ़ती थीं तो समाज सुधारक आते थे। वेसही रास्ता दिखाते थे। लेकिन अब समाज सुधारक के नाम पर जो लोग हैं वे ही समाज को गलत रास्ते पर ले जा रहा हैं। मेड़ ही खेत खा रही है।

तो इस सबका निष्कर्ष क्या? लावारिश कौम तो ऐसे मेंकिस किस को रोइए! क्या नहीं?

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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