सिंधु-गंगा घाटी का कड़ाव कितना उबलेगा?

बहरहाल मसला है सिंधु-गंगा घाटी के 70 करोड़ लोगों के भविष्य में भीषण गर्मी की क्या तस्वीर है? लोग क्यों कड़ाव में उबलेंगे? एक उपन्यासकार किम स्टेनली रॉबिन्सन ने जलवायु परिवर्तन पर एक किताब लिखी है। शीर्षक है ‘द मिनिस्ट्री फॉर द फ्यूचर’। यह किताब सन् 2020 में बेस्टसेलर थी। इसने मौसम बिगड़ने के भयावह परिणामों के सिनेरियो में लू की चपेट में आए भारत के एक छोटे शहर की कल्पना की है। शहर की सड़कें खाली। एयरकंडीशन कमरों में गर्मी के कड़ाव से तौबा किए लोगों की जमा भीड़। वही छतों पर प्राण लायक सांस लेने की आस में मरे लोगों की लाशें। बिजली ग्रिड फेल और अव्यवस्था व अराजकता में भटकते-भागते लोग। उत्तर भारत में सप्ताह भर में कोई दो करोड़ लोगों की मौत। किताब का यह यह भविष्य का सिनेरियो है। समसामयिक संर्दभ में विज्ञान पत्रिका ‘लैंसेट’ ने अपने एक अध्ययन में बताया है 2000 और 2019 के बीच, प्री-मॉनसून गर्म मौसम, में गर्मी से कोई एक लाख दस हजार अतिरिक्त मौतें थीं।

कह सकते हैं। कुछ नहीं यह कोई संख्या है। बिजली कड़कने, बाढ़, लू, सांप काटने जैसी छोटी बातों से ही भारत में असंख्य रूटिन मौतें होती हैं। तो गर्मी के कड़ाव में भी हम भारतीय जिंदा बचे रहेंगे। लेकिन जलवायु परिवर्तन की वैश्विक घटनाओं के बढ़ते अनुभवों में दक्षिण एशिया को ले कर वैज्ञानिक जो सोचते हैं वह रियलिटी में तस्वीर है। तथ्य है कि 70 करोड़ की आबादी का सिंधु-गंगा मैदान पृथ्वी का सबसे गरीब, घनी आबादी और सबसे गर्म इलाका तो ऐसा होना  जलवायु परिवर्तन से बढ़ने वाली गर्मी के लिए असाधारण रूप में बहुत अनुकूल है। आने वाले महीनों में इसकी शुरुआती झलक मिल सकती है। ध्यान रहे 1901 के बाद इस साल दिसंबर व फरवरी भारत के सर्वाधिक गर्म महीने थे। वैज्ञानिक गर्मी की मार या तेज (stress) को तापमान और नमी याकि ह्यूमिडिटी के कंबीनेशन के वेट-बल्ब में मापते हैं। इसका 37 डिग्री का वेट-बल्ब का तापमान स्तनधारी प्राणियों के लिए पसीने के माध्यम से गर्मी छोड़ना मुश्किल बना देता है। वैज्ञानिकों के अनुसार लगभग 31 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब की गर्मी शरीर के पसीने से सूप जितनी गर्म हवा जैसे बाहर निकलती है। शरीर में भीतर-भीतर इस वेट-बल्ब का ताप दिमाग और दिल तथा किडनी के फेल होने की संभावना बढ़ाता है। 35 डिग्री सेल्सियस के वेट-बल्ब तापमान में लोगों के लगातार रहने, उसमें जिंदगी की अवस्था रॉबिन्सन के अनुसार घातक है। ध्यान रहे नवंबर में विश्व बैंक ने यह चेतावनी दी है कि भारत वह देश है जहां वेट-बल्ब का 35 डिग्री सेल्सियस का तापमान अब नियमित होता हुआ है। मतलब जीवन सरवाइव सीमा से अधिक। तभी सवाल है कि सिंधु-गंगा घाटी के लोगों का शरीर कितना बरदात कर सकता है? पिछले साल पाकिस्तान के जैकोबाबाद शहर में हवा का तापमान 51 डिग्री जा पहुंचा था। आधी आबादी इधर-उधर भागी। वहा 42 डिग्री के तामपान पर भी जुताई-बुवाई करना जान को आफत थी।

एक और तथ्य। भारतीय मौसम विभाग ने दो दशकों से साल में औसतन 23.5 हीटवेव की चेतावनी दी। 1980 और 1999 के बीच के यह अनुभव 9.9 के वार्षिक औसत से दोगुने से अधिक हैं। 2010 और 2019 के बीच हीटवेव की घटनाओं में एक चौथाई से अधिक बढ़ोतरी हुई है इसके चलते गर्मी से संबंधित मृत्यु दर में 27 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। पिछले साल सन् 2012 की तुलना में हीटवेव के दिनों का अनुभव दोगुना अधिक था। वैश्विक मौसम एट्रिब्यूशन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन ने पिछले साल की हीटवेव को 30 गुना अधिक बना दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि सन् 1900 से 2018 के बीच में भारत का औसत वार्षिक तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है। इसने हीटवेव को बड़ा और अधिक लगातार बनाया है। घातक बात यह है कि शहरों में दो प्रतिशत अधिक तापमान होता है बनिस्पत देहाती इलाके के। क्रंकीट के जंगल और इनमें झुग्गी-झोपड़ में हवा का घूमना, चलना कम होने से गर्मी मानो उबलती सी।

यह सत्य है कि उत्तर भारत में देहात-कस्बों, झुग्गी झोपड़ियों की आबादी पूरी तरह गर्मियों में मजदूरी, मनरेगा की श्रमिक गतिविधियों से गुजर-बसर करती है। सवाल है मजदूर बढ़ती गर्मी में दिन में काम किस सीमा तक बरदाश्त करता रहेगा? इसका फिर पूरी आर्थिकी पर क्या असर होगा?  

यदि जलवायु परिवर्तन ने दो डिग्री तापमान बढ़ाया जो कि बढ़ने वाला है तो दक्षिण एशिया में 31 डिग्री सेल्सियस से अधिक वेट-बल्ब तापमान का लगातार होना तय है। यह लोगों के लिए थोक में नुकसानदायी होगा। इससे खेती, पशुपालन, मजदूरी से लेकर बिजली सप्लाई सब गड़बड़ाएगी। 

मैकिन्से ग्लोबल इंस्टीट्यूट ने भारत की श्रम शक्ति पर सन् 2000 में गर्मी के असर की एक रिपोर्ट दी है। इस अनुसार 1980 से पहले भारत में अत्यधिक गर्मी में आउटडोर दोपहर के वर्किंग घंटों का नुकसान अधिकतम कुल 10 प्रतिशत था वह उसके बाद बढ़ते हुए अब 15 प्रतिशत है। कुछ इलाकों में यह सन् 2050 तक दोगुना हो जाएगा। सन् 2017 में हीट-एक्सपोज़्ड काम का भारत की जीडीपी में 50 प्रतिशत था और श्रम बल का कोई 75 प्रतिशत काम। यह 38 करोड़ लोगों को रोजगार देता हुआ था।

सन् 2030 तक गर्मी में काम करने के योगदान से जीडीपी का 40 प्रतिशत हिस्सा होगा। जाहिर है खोए हुए काम के घंटों की बढ़ती संख्या से जीडीपी में 2.5-4.5 प्रतिशत या 150 से 250 अरब डॉलर के नुकसान की जोखिम है। विश्व बैंक ने भी पिछले साल चेतावनी दी थी कि जलवायु परिवर्तन के कारण पाकिस्तान की जीडीपी में 6.5-9 प्रतिशत नुकसान हो सकता है। आखिर बाढ़ हो या हीटवेव सबके बढ़ने से खेती और पशुपालन दोनों में पैदावार कम ही होनी है। इंफ्रास्ट्रक्चर का नुकसान, मजदूरी और उत्पादकता का कम होना तो सेहत की अलग समस्याएं। वैसे यह चौंकाने वाली बात लगेगी कि पिछले साल क्यों हीटवेव में मौत कम हुई? शुरुआती अनुमानों में भारत में सिर्फ 90 मौत थी। इसलिए क्योंकि पिछले साल हवा में नमी मतलब हीटवेव विशेष आर्द्रता लिए हुए नहीं थी। शरीर को खतरा ह्यूमिडिटी वाली हीटवेव से है। वैज्ञानिक सिंधु से गंगा डेल्टा के मैदान के 70 करोड़ लोगों की चिंता में इसलिए हैं क्योंकि नदी घाटी में तेज-तीखी धूप के साथ उसमें नमी, ह्यूमिडिटी के वेट-बल्ब  की रियलिटी  है। दक्षिण में सूखी गर्मी पड़ती है, वहां हवा में आर्द्रता कम होने से वहां का संकट अलग है, जबकि उत्तर भारत का अलग।  सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च ने भी अपने अध्ययन से चेतावनी दी है कि हम लोग आर्द्रता की भूमिका को नजरअंदाज करके गर्मी की चिंता करते हैं। इससे गरीब जनता के खतरों की अनदेखी होती है। जबकि खतरे कमजोर समूहों को ही अधिक हैं। उनको फोकस में रखकर बचाव के काम होने चाहिए।  

कुल मिलाकर गंगा के मैदान में भीड़-भाड़ वाले गरीब इलाकों में गर्मियों में हफ्तों जिंदगी साल-दर-साल बहुत मुश्किल होती जानी है। सरकारों को सर्दियों में रैन-बसेरे के साथ अब गर्मियों से बचाने के लिए ठंठे टेंट या शीतगृह बनाने शुरू कर देने चाहिए। 

सोचें, लंदन की पत्रिका इस तरह सोचते और चिंता करते हुए है। मगर भारत में सरकार और मीडिया में इस तरह चिंता करना कभी संभव है कि हम कितनी गर्मी बरदाश्त कर सकते हैं? कितनी भूख, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, अशिक्षा बरदाश्त कर सकते हैं। पूरी सभ्यता ही जब बरदाश्त करते-करते कथित विश्व गुरू के डीएनए बनवाए हुए है तो दक्षिण एशिया जलवायु परिवर्तन में भी ज्यादा बरबाद कल होता हो तो आज हो किसे फर्क पड़ता है?

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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