बडा फैसला, अंहम टिप्पणी

बडा फैसला, अंहम टिप्पणी

नई दिल्ली।सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आरक्षण के भीतर आरक्षण की मंजूरी दे दी है। ताकि उन जातियों को आरक्षण मिले जो सामाजिक और शैक्षणिक रूप से ज्यादा पिछड़े हैं।चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की संविधान पीठ का इस पर6-1 के बहुमत से फैसला हुआ।मतलबप्रदेश अब एससी-एसटी कोटे में सब कैटेगरी बना सकते है। जस्टिस पंकज मिथल ने इस मामले में यह टिप्पणी भी की है कि आरक्षण किसी वर्ग की पहली पीढ़ी के लिए ही होना चाहिए।

सात जजों की संविधान पीठ ने ईवी चिन्नैया के 2004 के फैसले को पलट दिया। उस फैसले में अनुसूचित जातियों के भीतर कुछ उप-जातियों को विशेष लाभ देने से इनकार किया गया था।

इस मुद्दे पर कुल 565 पृष्ठों के छह फैसले लिखे गये। प्रधान न्यायाधीश ने अपनी ओर से और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से फैसले लिखे, जबकि न्यायमूर्ति बी आर गवई, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पंकज मिथल न्यायमूर्ति सतीश चंद्र मिश्रा और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी ने अपने-अपने फैसले लिखे। न्यायमूर्ति त्रिवेदी को छोड़कर अन्य पांच न्यायाधीश प्रधान न्यायाधीश के निष्कर्षों से सहमत थे। न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने अपने 85 पन्नों के असहमति वाले फैसले में कहा कि केवल संसद ही किसी जाति को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कर सकती है या बाहर कर सकती है, तथा राज्यों को इसमें फेरबदल करने का अधिकार नहीं है।

जस्टिस मिथल ने आरक्षण की समय-समय पर समीक्षा की जरूरत बताई। यह मालूम करते रहना चाहिए कि  क्या दूसरी पीढ़ी सामान्य वर्ग के साथ बराबर चल रही है। पहली पीढ़ी को आरक्षण मिल गया और दूसरी पीढ़ी आ गई है तो उसे आरक्षण का लाभ नहीं दिया जाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि दलित वर्ग समान नहीं थे।अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियां दर्शाती हैं कि इसके अंतर्गत सभी वर्ग एक जैसे नहीं हैं। सभी दलित जातियां एकसमान (Homogeneous) नहीं हैं, और सभी दलित जातियों के बीच की सामाजिक स्थितियां भी समान नहीं हैं।

चीफ जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा कि ऐतिहासिक साक्ष्यों से स्थापित है कि राष्ट्रपति द्वारा अधिसूचित अनुसूचित जाति एक ‘विषम वर्ग है, न कि समरूप’। एससी एसटी समुदाय के लोग अक्सर व्यवस्थागत भेदभाव के कारण सीढ़ी चढ़ने में सक्षम नहीं होते हैं। अनुच्छेद 14 जाति के उप वर्गीकरण की अनुमति देता है।

वही जस्टिस बीआर गवई ने कहा राज्यों को एससी और एसटी में ‘क्रीमी लेयर’ की पहचान करनी चाहिए। और उन्हें फिर आरक्षण के दायरे से बाहर करना चाहिए। अंतिम उद्देश्य वास्तविक समानता का अहसास करना है।  जब कोई व्यक्ति किसी डिब्बे में चढ़ता है, तो वह दूसरों को उस डिब्बे में चढ़ने से रोकने के लिए हर संभव कोशिश करता है।जस्टिस एससी मिश्रा ने भी एससी व एसटी के बीच क्रीमी लेयर की पहचान करने को एक संवैधानिक अनिवार्यता बनाने के लिए कहा।

ध्यान रहे आरक्षण के तहत क्रीमी लेयर उस कैटेगरी को कहा जाता है जिनकी सालाना पारिवारिक आय 8 लाख रुपये के ऊपर होती है।

वही जस्टिस बेला त्रिवेदी ने अपने निर्णय में कहां राज्य संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अधिसूचित अनुसूचित जाति सूची के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। राज्यों की सकारात्मक कार्यवाही संविधान के दायरे के भीतर होनी चाहिए। मैं बहुमत के फैसले से सम्मानपूर्वक असहमत हूं। इस मामले में, बिना किसी कारण के ईवी चिन्नैया पर पुनर्विचार करने का संदर्भ दिया गया और वह भी फैसले के 15 साल बाद। संदर्भ ही अपने आप में गलत था। विधायी शक्ति के अभाव में, राज्यों के पास जातियों को उप-वर्गीकृत करने और अनुसूचित जाति के सभी लोगों के लिए आरक्षित लाभों को उप-वर्गीकृत करने की कोई क्षमता नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला‘ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ मामले में 2004 के पांच-जजों की संविधान पीठ के फैसले पर फिर से विचार की सुनवाई में किया।  इसमें कहा गया था कि एससी और एसटी सजातीय समूह हैं। इसलिए, राज्य कोटा के अंदर कोटा देने के लिए एससी और एसटी के भीतर वर्गीकरण पर फैसला नहीं ले सकते। बढ़ सकते हैं। इनका उप-वर्गीकरण नहीं किया जा सकता।

अब सुप्रीम ने उस फैसले को बहुमत से बदल दिया है। राज्य अब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के तहत उपजातियां तय कर सकते हैं।बैंच 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। फरवरी 2024 में इस मामले की तीन दिन लगातार सुनवाई हुई। जिसके बाद कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। एक, अगस्त को आज कोर्ट ने फैसला सुनाया।

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

और पढ़ें