इस सिंड्रोम से पीड़ित 80 प्रतिशत बच्चों को मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। ये दौरे दो या तीन साल की उम्र से शुरू हो जाते हैं। शुरूआत में ये साल में दो-तीन बार पड़ते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ इनकी संख्या बढ़ जाती है। .. उन बातों पर भी हंसते रहते हैं जिनका हंसी से कोई ताल्लुक नहीं होता। लेकिन बौद्धिक विकास में देरी के कारण ज्यादातर बौद्धिक विकलांगता का शिकार हो जाते हैं।
एंजलमैन सिंड्रोम
हंसता-मुस्कराता चेहरा, चित्त प्रसन्न, मिलनसार व्यक्तित्व, लड़ना-झगड़ना दूर जोर से बोलना भी नहीं; क्या ये सब किसी गम्भीर बीमारी के संकेत हो सकते हैं? तो सावधान हो जाइये ऐसा हो सकता है। क्योंकि एंजलमैन सिंड्रोम नामक रोग की शुरूआत इन्हीं लक्षणों से होती है। बचपन से शुरू हुआ यह सिंड्रोम युवा होते-होते अपने उग्र रूप में आ जाता है और फिर ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता। हांलाकि यह जानलेवा नहीं है लेकिन स्वास्थ्य को इस तरह प्रभावित करता है कि जीवनभर दवाओं और लाइफ स्टाइल मैनेजमेंट की जरूरत पड़ती है।
यह एक अनुवांशिक (जेनेटिक) रोग है। जो होता है क्रोमोसोम(गुणसूत्र)-15 के यूबीई3ए जीन में आई खराबी, बदलाव (जीन म्यूटेशन) या इसके ना होने के कारण। ये जन्मजात बीमारी है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के मुताबिक आज प्रत्येक 15,000 बच्चों में एक इससे पीड़ित है। अपने देश में हर साल इसके करीब नौ लाख मामले दर्ज होते हैं। इसके संकेत मिलने शुरू होते हैं 6 से 12 माह की उम्र से। इससे पीड़ित बच्चे हमेशा हंसते-मुस्कराते रहते हैं। इनके मुंह में या तो इनका अपना हाथ रहता है या खिलौना। ये सोते कम जागते ज्यादा हैं। स्लीप पैटर्न डिस्टर्ब रहता है। उम्र के साथ मोटापा बढ़ता है साथ ही पानी से लगाव बढ़ जाता है। इनके डिस्टर्ब स्लीप पैटर्न जैसे लक्षण तो बढ़ती उम्र के साथ ठीक हो जाते हैं लेकिन मिर्गी के दौरों जैसे कई दूसरे ज्यादा गम्भीर लक्षण उभर आते हैं।
किस उम्र से लक्षण?
आमतौर पर सभी नवजात शिशु एक जैसे दिखते हैं, अंतर स्पष्ट होता है उम्र बढ़ने के साथ। 6 माह की उम्र के बाद शिशु में एंजलमैन सिड्रोम के लक्षण दिखाई देने लगते हैं। अगर बच्चा इससे पीड़ित है तो उसे उठने-बैठने, क्रॉल करने और चलने में दूसरों से अधिक समय लगेगा। बोल भी देर से पायेगा। ऐसे बच्चों को फीडिंग में परेशानी होती है, ये दूध, मुश्किल से पी पाते हैं। बौद्धिक विकास देर से होता है। इनके सदा हंसने-मुस्कराने और धीरे-धीरे बोलने को डॉक्टर बौद्धिक विकलांगता की श्रेणी में रखते हैं। ये अतिसक्रिय यानी हाइपर एक्टिव होते हैं जिससे किसी एक चीज पर देर तक ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। अटैंशन स्पैन छोटा होने के कारण एक से दूसरी एक्टिविटी में तेजी से शिफ्ट हो जाते हैं।
शारीरिक लक्षण क्या?
एंजलमैन सिंड्रोम का सबसे बुरा असर पड़ता है सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम पर। इससे बच्चे का मोटर कंट्रोल प्रभावित होता है। उठने-बैठने और चलने में देरी के अलावा चाल में समन्वय नहीं रहता। चाल में हल्का झटका आने से कइयों की चाल कठपुतली की तरह और कुछ अकड़कर चलने लगते हैं। मेडिकल साइंस में इसे एटेक्सिया कहते हैं। चाल में झटका और समन्वय न होने से इसका शुरूआती नाम हैप्पी पपेट सिंड्रोम था। जिसे बाद में बदलकर इस सिंड्रोम की खोज करने वाले इंग्लिश डॉक्टर हैरी एंजलमैन के नाम पर रखा गया। डॉक्टर हैरी एंजलमैन ने इस सिंड्रोम का पता सन 1965 में लगाया था।
इससे पीड़ित ज्यादातर बच्चों का सिर, शरीर की तुलना में छोटा (माइक्रोसेफली), पीछे से चपटा, निचला जबड़ा बड़ा और दांतों के बीच दूरी अधिक होती है। मुंह चौड़ा होने की वजह से हमेशा मुस्कराने की मुद्रा में रहता है। त्वचा, आंखों और बालों का रंग हल्का और चलते समय हाथ-बाजू हिलाकर चलने की आदत होती है। इसकी वजह से कुछ की स्पाइन में कर्व आ जाता है जिससे वे स्कॉलासिस का शिकार हो जाते हैं।
बड़े होने समस्यायें
एंजल सिंड्रोम से पीड़ित 80 प्रतिशत बच्चों को मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। ये दौरे दो या तीन साल की उम्र से शुरू हो जाते हैं। शुरूआत में ये साल में दो-तीन बार पड़ते हैं लेकिन उम्र बढ़ने के साथ इनकी संख्या बढ़ जाती है। अगर इनके सामाजिक व्यवहार की बात करें तो यह बहुत सौहाद्रपूर्ण रहता है। ये सबसे अत्यन्त प्रेम-पूर्वक मिलते हैं और हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उन बातों पर भी हंसते रहते हैं जिनका हंसी से कोई ताल्लुक नहीं होता। लेकिन बौद्धिक विकास में देरी के कारण ज्यादातर बौद्धिक विकलांगता का शिकार हो जाते हैं। अमूमन ये धीरे-धीरे बोलते हैं लेकिन ये भी देखा गया कि कुछ बड़े होकर बोल ही नहीं पाये। चूंकि यूबीई3ए जीन म्यूटेशन का असर नर्वस सिस्टम पर पड़ता है इसलिये कइयों को खाना निगलने में दिक्कत होती है और कुछ कब्ज से परेशान रहते हैं।
इसकी रोकथाम के लिये आपको जेनेटिक काउंसलर की मदद लेनी होगी क्योंकि मामला जीन म्यूटेशन या जीन में खराबी से जुड़ा होता है। लापरवाही बरतने से ये माता पिता से बच्चों में जा सकता है। अगर किसी की फैमिली हिस्ट्री में ये सिंड्रोम है तो जेनेटिक काउंसलर की सलाह बहुत जरूरी है। ये सलाह प्रेगनेन्सी से पहले लें और सलाह के मुताबिक टेस्ट करायें। अगर ऐसा नहीं किया तो बच्चे के एंजलमैन सिंड्रोम से पीड़ित होने के चांस बढ़ जायेंगे।
मेडिकल साइंस में हुयी तरक्की से आज जीन टेस्टिंग सम्भव है। पैरेन्टल डीएनए पैटर्न, मिसिंग क्रोमोसोम्स और जीन चेंजेज जैसे टेस्ट से समय रहते जीन म्यूटेशन, जीन का न होना या जीन में किसी भी तरह की खराबी का का पता चल जाता है। जिनके जीन ठीक हैं, और फैमिली हिस्ट्री में भी ऐसा कोई मामला नहीं था उन्हें ये रोग क्यों होता है? अभी इस पर शोध जारी है। वैज्ञानिकों का मानना है कि इस रोग की फैमिली हिस्ट्री और माता-पिता में से किसी का भी इससे पीड़ित होना बच्चों में इसका रिस्क बढ़ाता है।
जीवन के प्रति नजरिया
इसके कुछ लक्षण उम्र बढ़ने के साथ कम हो जाते हैं और जो बचते हैं उन्हें थेरेपी और दवाओं की मदद से काबू करके सामान्य जीवन जी सकते हैं। दौरे (सीजर्स) कंट्रोल करने, स्लीप पैटर्न सुधारने और कब्ज जैसी समस्याओं के लिये दवायें उपलब्ध हैं। चाल में समन्वय के लिये फिजियो थेरेपी और बोलने में दिक्कत होने पर कम्युनीकेशन और स्पीच थेरेपी की जरूरत पड़ती है। अति सक्रियता (हाइपर एक्टीविटी) और ध्यान केन्द्रित न कर पाने जैसी समस्यायें बिहैवियरल थेरेपी से ठीक हो जाती हैं। अगर जीवन काल की बात करें तो वह सामान्य स्वस्थ लोगों की तरह होता है यानी ये पूरा जीवन जीते हैं लेकिन क्वालिटी लाइफ के लिये ताउम्र दवाओं और मैनेजमेंट की जरूरत पड़ती है। शारीरिक-बैद्धिक विकास में देरी और बोलने में दिक्कत की वजह से बहुत से लोग एंजलमैन सिंड्रोम को ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिस्ऑर्डर का एक रूप समझ लेते हैं। क्योंकि ये लक्षण ऑटिज्म और एंजलमैन सिंड्रोम दोनों में होते हैं। लेकिन ये दोनों अलग-अलग समस्यायें हैं।