संविधान ने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की मर्यादा तय की है। जो संविधान अनुच्छेद 19(1अ) के तहत नागरिकों को ‘बोलने-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ देता है, वही आईन अनुच्छेद 51(अ) के अंतर्गत नागरिकों के कुछ दायित्व भी निर्धारित करता है। पर कोई भी खुद्दार राष्ट्र ऐसे किसी वक्तव्य और कृत्य को कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जो उसके वजूद, सार्वभौमिकता और अखंडता को चुनौती दें।
हाल में दिल्ली के उप-राज्यपाल ने 2010 संबंधित एक मामले में उपन्यासकार अरुंधति रॉय पर मुकदमा चलाने की अनुमति दी है। सवाल है कि आखिर 14 साल बाद इसकी स्वीकृति क्यों? दरअसल यह काम पहले ही हो जाना चाहिए था। अरुंधति जिस ‘लेफ्ट-फासिस्ट-जिहादी-सेकुलर-लिबरल’ समूह से ताल्लुक रखती है, वह इस निर्णय को ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ पर हमला बता रहा है। अंग्रेजी में एक मुहावरे का अर्थ है— ‘आपकी स्वतंत्रता वहां ख़त्म होती है, जहां मेरी शुरू होती है’। यदि अरुंधति से सहानुभूति रखने वालों के कुतर्क को आधार बनाया जाए, तो नूपुर शर्मा की ‘अभिव्यक्ति’ की आजादी को क्यों कुचल गया?
अरुंधति रॉय की कई पहचान है। सबसे अव्वल वे खालिस वामपंथी है, जिसका चिंतन राष्ट्र के तौर पर भारत के अस्तित्व पर सवाल उठाता है और अपने मानसपिता कार्ल मार्क्स की तरह हिंदू संस्कृति-परंपरा को जमींदोज करने में यकीन रखता है। यह जमात झूठ-अर्धसत्य का सहारा लेकर समाज में वैमनस्य फैलाने, भावनाएं भड़काने और असंतोष पैदा करने में माहिर है। इसके साथ अरुंधति एक उपन्यासकार भी है। उन्हें ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ उपन्यास के लिए वर्ष 1997 में प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार मिला था।
इसी अनोखी पहचान के चलते अरुंधति, अपने पूर्वाग्रह और काल्पनिक दुनिया में रहने के कारण स्तंभकार और वक्ता के रूप में हकीकत से मीलों दूर रहती है। इसे मैंने स्वयं निजी तौर पर वर्ष 2002 के गोधरा कांड में महसूस किया है। तब जिहादियों की भीड़ ने गुजरात में गोधरा रेलवे स्टेशन के पास अयोध्या से आ रही ट्रेन के एक कोच को फूंककर 59 कारसेवकों को जिंदा जला दिया था। इसके बाद प्रदेश में दंगे भड़क उठे थे।
उसी वर्ष 2 मई को अरुंधति की कोरी-कल्पना और असबीयत के घालमेल से भरा लंबा-चौड़ा आलेख, प्रतिष्ठित अंग्रेजी पत्रिका ‘आउटलुक’ में प्रकाशित हुआ। उन्होंने दावा किया कि दंगाइयों ने तत्कालीन कांग्रेस सांसद एहसान जाफरी की बेटी को निर्वस्त्र करके जीवित जला दिया। लच्छेदार शब्दों की धनी अरुंधति ने अपने लेख में जाफरी के घर का ऐसा उल्लेख किया था, जैसे मानो वे खुद वहां मौजूद थी। पढ़ने में वो मंजर जितना दिल-शिकन था, उतना ही असलियत से कोसो दूर। ये उनके कई झूठों में से एक था। यह सच है कि भीड़ ने जाफरी की हत्या कर दी थी, लेकिन उनकी बेटियों को न तो ‘नग्न’ किया गया और न ही ‘जिंदा जलाया’ गया था।
उसी समय एक अंग्रेजी समाचारपत्र ‘एशियन एज’ में जाफरी के बेटे तनवीर का साक्षात्कार प्रकाशित हुआ था। इसमें तनवीर ने बताया कि दंगे के समय उसकी बहन अमेरिका में थी। मैंने ‘आउटलुक’ के तत्कालीन प्रधान संपादक (दिवंगत) विनोद मेहता से संपर्क किया। वे स्वयं को ‘लेफ्ट-लिबरल’ कहते थे, जो दो शब्दों को मिलकर बना है और एक-दूसरे का विरोधाभासी है। ऐसा इसलिए, क्योंकि किसी भी ‘लेफ्ट’ की तासीर ‘लिबरल’ नहीं हो सकती। परंतु विनोदजी अपवाद थे। वे ‘लेफ्ट’ और ‘लिबरल’— दोनों थे। उन्होंने अरुंधति के झूठ को ध्वस्त करता हुआ मेरा आलेख, 27 मई 2002 को ‘आउटलुक’ में प्रकाशित किया। अपनी बेईमानी का भंडाफोड़ होने पर अरुंधति माफी मांगने को मजबूर हो गई। सर्वोच्च न्यायालय से फटकार खाने के बाद भी उनका कुनबा गुजरात दंगे को अपने एजेंडे के लिए सुलगाए रखने का प्रयास करता है।
अभी जिस मामले में अरुंधति पर दिल्ली के उप-राज्यपाल ने मुकदमा चलाने की इजाजत दी है, वह 21 अक्टूबर 2010 से जुड़ा है। तब दिल्ली के एक सम्मेलन में अरुंधति ने कहा था— “कश्मीर कभी भारत का नहीं हिस्सा था और सशस्त्र बलों ने जबरन उसपर कब्जा किया है।“ यही नहीं, अरुंधति अक्सर कश्मीर को भारत से अलग करने की बात भी करती रही है।
वास्तव में, अरुंधति का उपरोक्त विषवमन, भारत और कश्मीर के इतिहास का मजाक उड़ाने जैसा है। कश्यप ऋषि की तपोभूमि— कश्मीर सदियों तक शैव-शाक्त और बौद्ध दर्शन का प्रमुख केंद्र रहा था। संस्कृत ग्रंथ राजतरंगिणी (1148-50 ई.) में कश्मीर के हजारों वर्षों का क्रमबद्ध तारीख़ अंकित है। 14वीं शताब्दी में अंतिम हिंदू शासिका कोटारानी के आत्म-बलिदान के बाद ‘कश्मीर सल्तनत’ के तहत कश्मीर में भयावह इस्लामीकरण का दौर शुरू हुआ। इससे ग्रस्त कश्मीरी पंडितों की रक्षा में जब गुरु तेग बहादुर साहिबजी ने अभियान चलाया, तब दिल्ली में क्रूर औरंगजेब के निर्देश पर गुरु साहिबजी का शीश जिहादियों ने धड़ से अलग कर दिया। दिल्ली स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब उसी बलिदान का प्रतीक है। सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह, जिनकी जीवनशैली सनातन संस्कृति से प्रेरित थी— उन्होंने वर्ष 1818-19 में कश्मीर को इस्लामी चंगुल से छुड़ाया। अंग्रेजों से युद्ध पश्चात कश्मीर में सिख संप्रभुता खत्म हुई, तो ब्रितानियों ने संधि (1846) के तहत 75 लाख रुपये में कश्मीर को हिंदू महाराजा गुलाब सिंह को सुपुर्द कर दिया। उन्हीं के वशंज महाराजा हरिसिंह ने भारत की स्वतंत्रता पश्चात तक जम्मू-कश्मीर रियासत पर शासन किया।
अब अक्टूबर 1947 में जिस ‘इंस्ट्रूमेंट ऑफ एक्सेशन’ पर महाराजा हरिसिंह ने हस्ताक्षर किए थे, उसका प्रारूप (फुल स्टॉप, कोमा, एक-एक शब्द सहित) हूबहू वही था, जिसपर अन्य 560 से अधिक रियासतों ने भी भारत में विलय के दौरान हस्ताक्षर किए थे या उसकी प्रक्रिया में थे। परंतु महाराजा हरिसिंह की देशभक्ति से चिढ़े कुटिल अंग्रेजों ने लॉर्ड माउंटबेटन के माध्यम से इस विलय को जबरन ‘विवादित’ बना दिया। रही सही कसर, पं.नेहरू ने शेख अब्दुल्ला के साथ मिलकर मामले को संयुक्त राष्ट्र ले जाकर, जनमत संग्रह का समर्थन और पाकिस्तान के खिलाफ विजयी भारतीय सेना को बिना समस्त कश्मीर को मुक्त कराएं युद्धविराम की घोषणा करके पूरी कर दी। इसी घटनाक्रम को आधार बनाकर मार्क्स-मैकॉले कुनबा कश्मीर पर भ्रम फैलाता है। इसलिए अरुंधति रॉय मात्र कोई उपन्याकार न होकर, एक आला अर्बन-नक्सल है, जिनकी अलगाववादियों से सांठगांठ है।
संविधान ने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की मर्यादा तय की है। जो संविधान अनुच्छेद 19(1अ) के तहत नागरिकों को ‘बोलने-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ देता है, वही आईन अनुच्छेद 51(अ) के अंतर्गत नागरिकों के कुछ दायित्व भी निर्धारित करता है। कोई भी खुद्दार राष्ट्र ऐसे किसी वक्तव्य और कृत्य को कैसे बर्दाश्त कर सकता है, जो उसके वजूद, सार्वभौमिकता और अखंडता को चुनौती दें। लक्ष्मण-रेखा को पार करने वालों को कीमत तो चुकानी पड़ेगी— वह चाहे बुकर पुरस्कार विजेता अरुंधति रॉय ही क्यों न हो।