वाराणसी के पीठों का लोलार्कदित्य स्थान

वाराणसी के पीठों का लोलार्कदित्य स्थान

शतपथ ब्राह्मण और महाभारत में भी लोलार्क का उल्लेख है। स्कन्द पुराण के काशी खण्ड, शिव रहस्य, सूर्य पुराण और काशी दर्शन में विस्तार से लोलार्क माहात्म्य का वर्णन अंकित है। मान्यतानुसार सूर्य के रथ का पहिया भी कभी यहीं गिरा था, जो एक कुंड के रूप में विख्यात हुआ। मान्यतानुसार भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन सूर्य की किरणें इस कुंड के जल को अत्यन्त प्रभावी बना देती हैं। इस दिन इस कुंड में स्नान करने से लोलार्केश्वर महादेव प्रसन्न होकर सन्तान प्राप्ति की कामना रखने वाले दम्पतियों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। 

9 सितम्बर -लोलार्क कुंड स्नान दिवस

वाराणसी अर्थात काशी नगरी के प्रमुख तीर्थ स्थलों में अस्सि व गंगा का संगम, दशाश्वमेघ घाट, मणिकर्णिका, पंचगंगाघाट, वरुणा व गंगा का संगम और लोलार्क तीर्थ का नाम प्रमुख है। सहस्त्राब्दियों से विख्यात दशाश्वमेघ घाट में भारशिव राजाओं ने दस अश्वमेघ यज्ञों का अनुष्ठान कर अभिषेक किया था। मणिकर्णिका को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है। पंचगंगा में पांच नदियों के धाराओं के मिलने की कथा जगत विख्यात है। नारदीय पुराण तथा शिव पुराण काशी-खण्ड के अनुसार पंचगंगा में स्नान करने वाला व्यक्ति पंच तत्वों में स्थित इस शरीर को पुनः धारण नही करता, अर्थात जीवन -मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। वरुणा-गंगा का संगम तीर्थ आदि केशव घाट अत्यंत प्राचीन है।

श्री लोलार्केश्वर महादेव मन्दिर के पास स्थित लोलार्क कुंड वाराणसी के सबसे प्राचीन व पवित्र स्थानों में से एक है। काशी के सभी आदित्य पीठों में मूर्धन्य स्थान प्राप्त सूर्य के बारह आदित्यों में से प्रथम लोलार्क आदित्य, लोलार्कादित्य वाराणसी में असिसंगम के समीप लोलार्क कुंड पर ही स्थित व स्थापित हैं। इसे काशी में स्थित समस्त तीर्थों में प्रमुख माना जाता है, क्योंकि असिसंगम पर स्थित होने के कारण लोलार्ककुंड का जल गंगा में मिल जाने के बाद ही वह जल काशी के अन्य तीर्थों में पहुंचता है। मान्यता है कि इनके द्वारा काशीवासियों का सदा योगक्षेम होता रहता है। शतपथ ब्राह्मण और महाभारत में भी लोलार्क का उल्लेख है। स्कन्द पुराण के काशी खण्ड, शिव रहस्य, सूर्य पुराण और काशी दर्शन में विस्तार से लोलार्क माहात्म्य का वर्णन अंकित है। मान्यतानुसार सूर्य के रथ का पहिया भी कभी यहीं गिरा था, जो एक कुंड के रूप में विख्यात हुआ। कालांतर में यह यहाँ स्नान करने वाले निःसंतान दंपति को संतान सुख देने वाले स्थल के रूप में लोकमान्यता को प्राप्त हो गया कि निःसंतान दंपति को सपत्नीक इस कुंड में स्नान कर लेने से उसको संतान का लाभ अवश्य ही मिलता है।

मान्यता है कि इस स्थान पर सहस्त्रों वर्षों पूर्व आकाश से भयानक आवाज करते हुए एक उल्का पिंड गिरा था। आग की लपटों में घिरी उल्का ऐसा भान करा रही थी कि मानों सूर्य पिंड ही पृथ्वी पर गिरा रहा है। उल्का पिंड के पृथ्वी पर गिरने के कारण ही लोलार्क कुंड का निर्माण हुआ था। लोलार्क कुंड के संबंध में काशी खण्ड में अंकित कथा के अनुसार जब काशी में दिवोदास के उसके राज्य से उद्वासन हेतु भगवान शिव द्वारा भेजी गई योगिनीमण्डल भी प्रत्यावर्तित न हो सकी, तब काशी का समाचार जानने की इच्छा से शिव ने सूर्यदेव को काशी भेजते हुए कहा कि हे सूर्य! आप तो संसार में सभी जंतुओं की चेष्टाओं को जानते हैं। इसी कारण आप जगच्चक्षु कहे जाते हैं। इसलिए आप इस कार्यसिद्धि के लिए काशी जायें। शिव की आज्ञा पाकर सूर्यदेव ने काशी की ओर गमन किया। मुक्तिदायिनी रम्यपुरी काशी की दर्शन-लालसा से अत्यंत उत्सुक सूर्यदेव ने काशी पहुंचकर कर भीतर और बाहर दोनों ही ओर विचरण किया, लेकिन उन्हें राजा के विषय में कोई अधर्म नहीं दिखा। सूर्यदेव अनेक रूप धारण करके काशी में रहते हुए उस धर्मनिष्ट राजा के राज्य में एक वर्षपर्यन्त भी कोई भी दोष नहीं पा सके। अन्ततोगत्वा सूर्यदेव मन्दराचल पुनरागमन के स्थान पर काशी में अपनी बारह मूर्तियां बनाकर स्थापित हो गए। आदित्य भगवान का मन काशी के दर्शन में अत्यंत लोन हो गया था। इसलिए वहाँ सूर्यदेव का नाम लोलार्क पड़ गया। इस कुंड को सूर्य कुंड के नाम से भी जाना जाता है।

मान्यता है कि भाद्रपद्र के शुक्ल पक्ष की पष्ठी वाले दिन लोलार्क कुंड से लगे कूप से आने वाले जल में सूर्य की रश्मियों के पड़ने से संतान उत्पत्ति का योग बनता है। इस काल में महिलाओं के स्नान करने से उन्हें संतान प्राप्त होती हैं। खगोलीय व वैज्ञानिक मान्यता के आधार पर लोलार्क कुंड की बनावट कुछ इस तांत्रिक विधि से की गई है कि भाद्रपद मास की षष्ठी तिथि को सूर्य की किरणें इस कुंड के स्थान पर अत्यंत प्रभावी बन जाती है। इस दिन यहां स्नान करने के उपरान्त कोई फल क्रय कर उसमें सूई चुभाई जाती है, जिसे सूर्य की रश्मि का प्रतीक भी माना जाता है। एक अध्ययन के अनुसार यह भारत का एकमात्र ऐसा कुंड है, जिसकी चारों दिशाएं पूर्ण रूपेण खगोलीय मानकों पर आधारित हैं। इसके उत्तर की ओर पोल कॉस्मिक नॉर्थ है, अर्थात खगोल विज्ञान के मानकों पर सटीक उत्तर की दिशा। लोलार्क षष्ठी पर सूर्य की किरणें इसके उत्तरी पोल से गुजरती हैं। ये किरणें उल्टे पिरामिड के आकार की सीढ़ियों और पोल से जैसे-जैसे नीचे जाती हैं, उनकी तीव्रता बढ़ती जाती है। गंगा के जल और किरणों की ओज से शरीर को जो ऊर्जा मिलती है, वह गर्भाधान में सबसे ज्यादा फायदेमन्द होती है।

मान्यतानुसार भाद्रपद शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के दिन सूर्य की किरणें इस कुंड के जल को अत्यन्त प्रभावी बना देती हैं। इस दिन इस कुंड में स्नान करने से लोलार्केश्वर महादेव प्रसन्न होकर सन्तान प्राप्ति की कामना रखने वाले दम्पतियों की मनोकामना पूर्ण करते हैं। इसलिए भदैनी मुहल्ले में स्थित लोलार्क कुंड में भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष षष्ठी अर्थात अमावस्या के छठे दिन स्नान करने के लिए भारी संख्या में श्रद्धालु यहाँ आते हैं, जो एक विशाल मेला का रूप ले लेता है। इस दिन श्रद्धालु जन मनोकामना पूर्ति के लिए लोलार्कादित्य की पूजन-अर्चन कर मनोवांछित फल की कामना करते हैं। भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि का यह दिन लोलार्क छठ के नाम से प्रचलित है। मान्यता के अनुसार इस दिन इसमें स्नान करने से बांझ अर्थात संतानोत्पत्ति में असमर्थ महिलाओं को भी संतानोत्पत्ति होती है। चर्म रोगियों को लाभ मिलता है। इसलिए.संतान की कामना से बड़ी संख्या में श्रद्धालु देश के कोने-कोने से खीचें चले आते हैं। मनोकामना पूर्ण होने वाले लोग यहाँ अपने बच्चों का मुंडन करवाते हैं, दान देते हैं। जिन कपड़ों में श्रद्धालु स्नान करते हैं, उन कपड़ों को वहीं पर छोड़ देने की प्रथा है। कुंड स्नान पश्चात पीछे मुड़कर नहीं देखा जाता। कहा जाता है इस लोलार्क कुंड का संपर्क अन्दर ही अन्दर गंगा नदी से भी है।

भगवान सूर्य भी इस कुंड में स्नान करने आते हैं। इस कुंड में फल छोड़ने से भगवान सूर्य की कृपा होती है, संतान रत्न की प्राप्ति होती है। फल दान कर उस फल को वर्ष पर्यंत ग्रहण न करने का संकल्प लिया जाता है। भाद्रपद मास में यहाँ लक्खा मेला लगता है। पौराणिक मान्यतानुसार अगहन मास के किसी आदित्यवार को सप्तमी अथवा षष्ठी तिथि को लोलार्क की वार्षिक यात्रा करने से मनुष्य को समस्त पापों से मुक्ति प्राप्त होती है। असिसंगम पर स्नान कर पितर और देवताओं का तर्पण तथा श्राद्ध करने से पितृ-ऋण से मुक्ति मिलती है। माघ मास की शुक्ल सप्तमी के दिन गंगा और असि के संगम पर लोलार्क कुंड में स्नान करने से मनुष्य अपने सात जन्म के संचित पापों से मुक्त हो जाता है।

पौराणिक व ऐतिहासिक विवरणियों के अनुसार कालान्तर में इन्दौर की महारानी अहिल्‍याबाई होल्‍कर ने इस कुंड के चारों तरफ कीमती पत्‍थरों से सजावट करवाई थी। मिस्र के उल्टे पिरामिड जैसे आकार का यह कुंड करीब 50 फीट गहरा और 15 फीट चौड़ा है। इसके बगल में स्थित एक कूप से इसे जल मिलता है। वाराणसी में लोलार्कादित्य लोलार्क कुंड और तुलसी घाट के समीप स्थित स्थित मंदिर का उल्लेख गाहड़वाल ताम्रपत्रों में भी मिलता है। बावड़ी का मुंह दोहरा है, एक में पानी इकट्ठा होकर दो कुओं में जाता है। यह कुएं पत्थर के बने हैं और उन पर जगत बना हुआ है। दोनों जगतों के मध्य प्रदक्षिणा पथ है। कालांतर में इसके निर्माण में अहिल्याबाई, अमृतराव तथा कूच विहार के महाराजा आदि का सहयोग भी समय- समय पर मिलता रहा था। इस कुंड के एक ताखे पर भगवान सूर्य का प्रतीक चक्र बना हुआ है। अकबर और जहांगीर के काल तक इस कुंड को वाराणसी का नेत्र माना जाता था। उस युग में यहाँ लोलार्क नाम का एक मुहल्ला भी था।

Published by अशोक 'प्रवृद्ध'

सनातन धर्मं और वैद-पुराण ग्रंथों के गंभीर अध्ययनकर्ता और लेखक। धर्मं-कर्म, तीज-त्यौहार, लोकपरंपराओं पर लिखने की धुन में नया इंडिया में लगातार बहुत लेखन।

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