अनास्था और अव्यवस्था के दर्शन होते हैं। श्रद्धालुओं के हाल इतने बुरे होते हैं कि आस्था और श्रद्धा डगमगा जा सकती हैं। काशी, अयोध्या और उज्जैन की तरह वृंदावन में भी व्यवस्थित गलियारा क्यों नहीं बनाया जा सकता? क्या इसलिए कि वृंदावन में अलगाव और सत्ता के खेल की गुंजाईश नहीं है? मान लिया वृंदावन कृष्ण जन्मस्थली नहीं है। लेकिन मान्यता है कि वृंदावन कृष्ण की स्नेहस्थली, लीलास्थली और समाज के लिए उनकी सेवा-स्थली रही।
पंथ-जमात की भीड़ में भी निभाना तो स्वधर्म ही पड़ता है। पंथ में या जमात में जन्म लेने भर से धर्म या स्वधर्म तय नहीं होता। स्वधर्म तो माता-पिता, भाई-बंधु, सगे-संबंधी और आस-पड़ोस यानी अपने समाज की समभाव सेवा से ही तय होता है। भीड़ पंथ की हो या जमात की, आपा तो खोती ही है। अक्सर भीड़ का स्वभाव उन्माद ही होता है। भीड़तंत्र की राजनीति के समय में आस्था के तीर्थ अशांति के गढ़ बन रहे हैं। क्या भीड़ जुटाने की होड़ में लगने वाला राजनीतिक नेतृत्व, जुटने वाली भीड़ का ध्यान और सम्मान करना भूल गया है?
पिछले दिनों वृंदावन जाना हुआ। हरीदर्शन के लिए जुटी अनंत भीड़ के अशांत दर्शन भी हुए। प्रथा रही है कि चतुर्मास का श्रावण महिना चारधाम यात्रा का पुण्य देता है। बांके बिहारी के दर्शन के लिए हर शनिवार-रविवार वृंदावन में हुजूम व जमघट लगता है। संकरे रास्ते और भयावह भीड़ के कारण आस्था का संकल्प आत्मरक्षा के विकल्प में बदल जाता है। आए दिन भीड़ से भगदड़ मचती है और श्रद्धालु कुचले जाते हैं।
अनास्था और अव्यवस्था के दर्शन होते हैं। श्रद्धालुओं के हाल इतने बुरे होते हैं कि आस्था और श्रद्धा डगमगा जा सकती हैं। काशी, अयोध्या और उज्जैन की तरह वृंदावन में भी व्यवस्थित गलियारा क्यों नहीं बनाया जा सकता? क्या इसलिए कि वृंदावन में अलगाव और सत्ता के खेल की गुंजाईश नहीं है?
मान लिया वृंदावन कृष्ण जन्मस्थली नहीं है। लेकिन मान्यता है कि वृंदावन कृष्ण की स्नेहस्थली, लीलास्थली और समाज के लिए उनकी सेवा-स्थली रही। पुरुषोत्तम राम की जन्मस्थली अयोध्या में विशाल मंदिर गलियारा बन रहा है, भोले शिव की नगरी काशी में भव्य गलियारा बन सकता है तो वैष्णव कृष्ण की प्रेमनगरी में स्नेह गलियारा क्यों नहीं बनाया जा सकता? क्यों हर सप्ताह श्रद्धालुओं को भीड़ की धक्का-मुक्की में कुचले जाने का खतरा बना ही रहता है? इसका कारण क्या देश के राजनीतिक नेतृत्व में समाज के प्रति स्नेह, सद्भाव और समभाव की कमी है? जब देश में अपनी जड़ों से जुड़ने की होड़ जगाई जा रही हो, पंथ-जमात का डंका बजाने के लिए उकसाया जा रहा हो तब क्यों विश्व प्रेम और मानव सम्मान का वृंदावनी गलियारा नहीं बनाया जा सकता?
मंदिर नगरी वृंदावन के हाल बेहाल का कारण वहां चलायी जा रही नासमझ सरकारी व्यवस्था और स्वार्थी समाज का अभद्र व्यवहार है। संकरे रास्ते पर बाज़ार का अतिक्रमण सभी मानदंडों को दरकिनार करता है। श्रद्धा की जमीन पर लालसा का खेल चलने दिया जाता है। भीड़ में जकड़े भोले भक्त अपनी अंधश्रद्धा में कठिनाई को पुण्याई मानने पर मजबूर हो जाते हैं। जिस देश में आस्था के खड़ाऊ के भरोसे रामराज्य स्थापित करने की परिकल्पना रही, वहीं के वृंदावन में श्रद्धालुओं के चप्पल-जूतों के कारण भगदड़ मचती है। बड़े-बूढ़ों के लिए यह दृश्य भयावह होता है। क्यों गुरुद्वारों की तरह यहां चप्पल-जूते सहेजने की सुचारू व्यवस्था नहीं बनाई जा सकती? क्यों वृंदावन में पानी से भरी और खाली प्लास्टिक बोतल का भयावह मंजर दिखता है? मंदिरों के आसपास गंदगी फैलाने का जिम्मा हम तीर्थ के बहाने पर्यटन करने वालों पर भी आता है। वृंदा (तुलसी) के वन में प्रकृति से विकास का सामंजस्य बैठाने वाली हरियाली और पेड़-पौधों की संस्कृति को आज की सीमेंटी सभ्यता ने लील लिया है। आज प्रेम, समभाव और समर्पण के वन में कंक्रीट के जंगल हैं। कृष्ण की रासलीला के केन्द्र में कंस की सत्ता लीला चल रही है।
बढ़ती आबादी और फैलती अंधश्रद्धा ने केवल समाज के आध्यात्मिक बोद्ध को और सामाजिक समझ को दूषित किया है। समाज में दुख पसरा है। अगर भीड़ में होने से श्रद्धालुओं का दम घुटता है तो भीड़ में घिरने से बांके बिहारी का दम क्यों नहीं घुटता होगा? और क्यों बिहारी जी वृंदावन से श्रीमुख नहीं कर सकते?
इसलिए वृंदावन की कुंज गलियों में से ही श्रद्धा का गलियारा निकालना होगा।