ऋग्वेद को प्राप्त करने वाले ऋषि अग्नि होते हैं, यजुर्वेद को प्राप्त करने वाले ऋषि वायु, सामवेद को प्राप्त करने वाले ऋषि आदित्य और अथर्ववेद को प्राप्त करने वाले ऋषि अंगिरा होते हैं। ये ऋषि फिर मिलकर ऋषि ब्रह्मा को इन वेदों का उपदेश देते हैं। इस प्रकार चारों वेदों के ज्ञाता ब्रह्मा पहले ऋषि होते हैं। तदनन्तर ये ऋषि अन्य ऋषियों और मनुष्यों को इस ज्ञान का उपदेश देते हैं।
संसार के सर्वप्राचीन ग्रंथ, वेदों के लिखे जाने के संबंध में अनेक विचार प्रचलित हैं।बहुत सी भ्रांतियाँ हैं। ऐसी मान्यता है कि वेद अपौरुषेय ग्रंथ हैं। इनका प्रादुर्भाव मनुष्यों के प्रादुर्भाव के साथ होता है, परंतु जिन पवित्र आत्माओं में वेदों का प्रादुर्भाव होता है, वे मनुष्य नहीं, अपितु विशेष जीव हैं, जो दिखने में तो मानव के समान ही होते हैं, परंतु उनका जन्म माता से बाल्य रूप में नहीं होता, अपितु वे युवावस्था में ही उत्पन्न होते हैं।
ऐसे चार ऋषियों के अन्तःकरण में एक-एक वेद का साक्षात्कार होता है। जिस वेद का जिसमें प्रादुर्भाव होता है, उसके अनुसार उस ऋषि का नाम पड़ जाता है। ऋग्वेद को प्राप्त करने वाले ऋषि अग्नि होते हैं, यजुर्वेद को प्राप्त करने वाले ऋषि वायु, सामवेद को प्राप्त करने वाले ऋषि आदित्य और अथर्ववेद को प्राप्त करने वाले ऋषि अंगिरा होते हैं।
ये ऋषि फिर मिलकर ऋषि ब्रह्मा को इन वेदों का उपदेश देते हैं। इस प्रकार चारों वेदों के ज्ञाता ब्रह्मा पहले ऋषि होते हैं। तदनन्तर ये ऋषि अन्य ऋषियों और मनुष्यों को इस ज्ञान का उपदेश देते हैं। धीरे-धीरे ये अद्भुत मानवरूपी ऋषि पृथ्वी पर से उठ जाते हैं, और मनु आदि मानव ऋषि इस ज्ञान परंपरा का निर्वहन करते हैं। स्वयं वेद में भी इसी परंपरा का उल्लेख है। ऋग्वेद के दशम मण्डल के 71वें सूक्त में वेद के आविर्भाव के संबंध में विस्तृत वर्णन अंकित है। ऋग्वेद 10/71 का ऋषि बृहस्पति है, और देवता अर्थात विषय- ज्ञानम्। इस सूक्त के द्रष्टा अर्थात कहने वाला बृहस्पति परमात्मा का ही रूप है। और ऋग्वेद 10/71 के प्रथम मंत्र में ही उसके दर्शन हो जाते हैं –
बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं यत् प्रैरत नामधेयं दधानाः ।
यदेषां श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत् प्रेणा तदेषां निहितं गुहाविः।।
-ऋग्वेद 10/71/1
अर्थात- हे बृहस्पति! जो आप वेदवाणी रूपी बृहत ज्ञान के भण्डार के स्वामी हो। आपने सबसे पहले अर्थात मानवसृष्टि के आदि में, पदार्थमात्र के नामों अर्थात भाषा का धारण करती हुई जिस वाणी अर्थात वेदवाणी को प्रेरित किया, जो इन (आत्माओं) में से सबसे श्रेष्ठ थे, जो सब प्रकार के पापों से रहित थे, उनकी गुहा रूपी बुद्धि में उसके ज्ञान का, आपकी प्रेरणा से आविर्भाव हुआ।
इस सूक्त में स्पष्टरूप से वेदवाणी का प्रथम अतिपवित्र ऋषियों के अन्तःकरण में सम्पूर्णतया अर्थात केवल अर्थमात्र नहीं, अपितु काव्यरूप में आविर्भाव होने का कथन अंकित है। इस प्रसंग में बृहस्पति पद द्वारा परमात्मा का सम्बोधन करते हुए उसे वेदों में अंकित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की विद्या का स्वामी तो कहा ही गया है, परमात्मा को वेदों के स्वामी व कर्ता के रूप में भी स्थापित किया गया है। सूक्त के ऋषिरूप में यह पद प्रत्येक मंत्र से जुड़कर, मंत्र में परमात्मा को उपस्थित कर देता है। इस मंत्र में वेदों द्वारा सब पदार्थों के नामकरण की बात भी कही गई है। मनुस्मृति भी इस वैदिक कथन की पुष्टि करता है-
सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक् पृथक् ।
वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक संस्थाश्च निर्ममे।।
-मनुस्मृति 1/21
अर्थात- वेद शब्दों के द्वारा ही आदि सृष्टि में पदार्थ-मात्र के नाम, कर्म व उनका विभागीकरण स्थापित हुआ।
वैदिक ज्ञान अर्थात विद्या को प्राप्त कर इन ऋषियों ने क्या किया? इसका वर्णन भी ऋग्वेद 10/71/2 में अंकित है-
सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत।
अत्रा सखायः सख्यानि जानते भद्रैषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि।।
-ऋग्वेद 10/72/2
अर्थात- इन धीरों, या अतिशय बुद्धिमान ऋषियों, ने ध्यान में मग्न होकर उस वेदवाणी को, चालनी से सत्तू को शोधे जाने की भांति शोधते हुए अपनी बुद्धि में प्रकट किया। अर्थात अपने किसी विचार से परमात्मा की वाणी का संयोग न होने देते हुए, परमात्मा की वाणी को शुद्ध रखा। ऐसा करते हुए, वे जो वह वाणी बता रही है, जो उसके पदों व वाक्यों के अर्थ हैं, उसका साक्षात्कार कर लेते हैं, और उस वाणी में निहित अर्थ के लक्षण को जान लेते हैं।
ऋग्वेद 10/72/2 में वेदों के साक्षात्कार करने की प्रक्रिया का विवरण अंकित है, और यह भी बताया गया है कि शब्दों का उनके अर्थों से सम्बन्ध कैसे उनमें पहले से ही विद्यमान है? जिससे कभी उनके अर्थों का लोप हो जाने पर पुनः ध्यान-प्रक्रिया से उनको ढूंढा जा सके।
परमेश्वर ने वेदभाषा को जनाया, और धर्मात्मा, योगी, महर्षि लोग जब-जब जिस-जिसके अर्थ को जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए, तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ जनाए। यही कारण है कि वेदों को नित्य और उनके शब्द व अर्थों को भी नित्य कहा गया है। उनका सर्वथा लोप असम्भव है। इस मंत्र में लक्ष्मी पद में श्लेषालंकार है, जहां उससे एक ओर लक्षण का ग्रहण होता है, वहीं दूसरी ओर उससे वेदवाणी में निहित अपार ज्ञान की निधि भी कहा गया है।
इस सम्पूर्ण सूक्त में सखा, सखाय पदों का प्रयोग हुआ है। लौकिक भाषा में इनका अर्थ मित्र व मैत्री होता है, परंतु इनके यौगिक अर्थ कहीं गहरे हैं। जिन दो वस्तुओं का समान ख्यान अर्थात वर्णन होता है, उनको सखा कहते हैं, और सखा के भाव को सखाय। लोक में मित्र भी ऐसे होते हैं। मित्रता उससे ही होती है, जो हमारे जैसा हो, जिसकी सोच, जिसकी रुचि, जिसका चाल-चलन हमसे मिलता हो। अर्थात जिसका वर्णन हमारे समान हो।
इस सूक्त में सर्वत्र वेदमंत्रों से सखाय का वर्णन है। यह इसलिए है कि वेदवाक्यों को समझने के लिए वाणी में निहित अर्थों को इस प्रकार समझना होता है, जैसे कि वे हमारे समक्ष खड़े हों। इसे ही मंत्रों का साक्षात्कार कहा जाता है। यही मंत्रों का सखाय है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कि वेदमंत्रों से मित्रता करने से ही उनके अर्थों, उनके प्रयोजन को समझ जा सकता है। इस विषय को आगे बढ़ाते हुए ऋग्वेद 10/71/3 कहता है-
यज्ञेन वाचः पदवीयमायन् तामन्वविन्दन्नृषिषु प्रविष्टाम् ।
तामाभृत्या व्यद्धुः पुरुत्रा तां सप्त रेभा अभि सं नवन्ते ।।
-ऋग्वेद 10/71/3
अर्थात- यज्ञरूपी परमात्मा द्वारा वाणी पदों को प्राप्त होती है, शब्दों में परिणत होती है। उपरिकथित ऋषिजन उसको जब ढूँढने बैठते हैं, तो वह उनमें प्रविष्ट हो जाती है। उसको सम्पूर्णतया धारण करके, वे उसे अनेक स्थानों में प्रसारित करते हैं। सात छन्दों में बद्ध वेदवाणी को लक्ष्यीकृत्य करके, वे उसकी स्तुति करते हैं।
ऋग्वेद 10/71/3 में यज्ञ का अर्थ मानसयज्ञ अर्थात ध्यान भी सम्भव है, जिससे प्रथम पाद का अर्थ बनेगा – ऋषिजन ध्यान में मग्न होकर वेदवाणी के पदों के अर्थों को प्राप्त करते हैं। इस मंत्र में पुनः यह संकेत है कि ईश्वर से ही वेदों की उत्पत्ति हुई है। उल्लेखनीय है कि वेद के प्रत्येक पद का अपना विशेष महत्त्व है और जिन छन्दों में वे वाक्य बद्ध हैं, वे भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि वेद परमात्मा के महान कृत्य हैं, इसीलिए उसको इस मंत्र में यज्ञ के नाम से संबोधित किया गया है। वेदमंत्रों के अर्थों को समझने वाले वेदों और उनके कर्ता परमात्मा की स्तुति किए बिना नहीं रह सकता।
यही कारण है कि ब्राह्मण, आरण्यक उपनिषद, दर्शनशास्त्र आदि सभी प्राचीन ग्रंथ में वेदों की स्तुति की गई है। वेदों का प्रचार-प्रसार सभी वेदज्ञाताओं का परम कर्तव्य है। मानव के सच्चे मित्र वेद विपत्ति और संपति दोनों का ही ज्ञान कराते हैं।
इसे त्यागने वाले के वाणी में कुछ भी सार नहीं होता। वह मानव जीवन के मार्ग से विचलित रहता है। ऐसा व्यक्ति जो कुछ सुनता है वह सब कुछ व्यर्थ ही होता है, उससे जीवन का निर्माण और उत्थान नहीं होता। ऐसे व्यक्ति को अपने कर्तव्य कर्मों का बोध नहीं होता। वेद हमारा जीवन धन है। वेद हमारा सर्वस्व है। वेद सब प्रकार का ज्ञान प्राप्त कराता है।