इस आम चुनाव में जो माहौल दिख रहा है वो पक्ष को सत्ता खोने का डर, और विपक्ष को सत्ता पाने की निडरता में देखा जाना चाहिए। आम चुनाव 2024 के बारे में एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता इस बार एक मजबूत विपक्ष चुन रहा है।सुस्त दिख रहा मतदान फेस-दर-फेस चुस्त होता जा रहा है और होता जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मतदाता के बीच सीधे तौर पर चल रहे आम चुनाव अप्रत्याशित, अद्भुत और मजेदार हो गए हैं। जनता को रोज नए नारे-ताने और जमे-जमाए जुमलों से लोकतंत्र में मतदान के मायने समझाए जा रहे हैं। असत्य की पगडंडी से सत्य की सड़क नापने की कोशिश हो रही है। बातों के बवंडर से मतदाता को भावुकता में बहकाने की मशक्कत चल रही है।
कही गयी बातों को नकारा जा रहा है। प्रचार करने और जनता को बनाते रहने के नए हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। लेकिन क्या आज के डिजिटल समय और सोशल मीडिया के समाज में विचारों का यूटर्न बिना विवाद के संभव है? और क्यों जनसेवक मान बैठे हैं कि लोक के तंत्र में रमे आम लोग सत्ता के तंत्रकी असलियत को समझते नहीं?
सभी तरह के सत्तातंत्र राज्य व्यवस्था के सभ्य, सामाजिक व्यवहार से चलते आए है। समाज में संसदीय प्रणाली के सोचे जाने, रचे जाने व रमे जाने से भी पहले से समरस व्यवहार की राज्य व्यवस्था कुशलता से चली आ रही है। एकात्मक राज्य प्रणाली तो पहले भी आती-जाती रही होगी। लेकिन हिन्दुस्तान की जनता ने ही पारंपरिक तौर पर चली आ रही संसदीय प्रणाली के प्रकार को ही अपने सामाजिक उत्थान के लिए चुना। और लगातार चुनती आ रही है।
इसलिए इस आम चुनाव में जो माहौल दिख रहा है वो पक्ष को सत्ता खोने का डर, और विपक्ष को सत्ता पाने की निडरता में देखा जाना चाहिए। आम चुनाव 2024 के बारे में एक बात तो निश्चित तौर पर कही जा सकती है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का मतदाता इस बार एक मजबूत विपक्ष चुन रहा है।
एक अखबार में ‘भारत जोड़ो अभियान’ के शोधकर्ताओं ने अभी तक हुए मतदान का आकलन किया है। उनका मानना है की सुस्त दिख रहा मतदान फेस-दर-फेस चुस्त होता रहा है। और होता जाएगा। चुनाव खत्म होने तक 2019 और 2024 के मतदान प्रतिशत में कोई खास अंतर नहीं रहने वाला। यह भी की मतदान में पक्ष या विपक्ष की कोई लहर नहीं चल रही है। न ही कोई खास तरीके से मतदान हो रहा है।
मतदान राष्ट्रव्यापी से ज्यादा राज्यव्यापी हो रहे हैं। स्थानीय मुद्दे ही जनता का मत बनाने में हावी हैं। जनता इस बार अपने जनसेवक को आड़े हाथों ही लेने वाली है। यानी अलग अलग राज्यों में दलों के प्रत्याशी अपने-अपने किए-धरे व बोले-बरते को ही भुनाने-गंवाने की परिस्थिति में दिख रहे हैं। जगह-जगह इस बार एक-मात्र को ही जीताने का सिलसिला नहीं दिख रहा है।
सवाल है क्या इन आम चुनाव में सत्ता विरोध की लहर हैं? अंग्रेजी में जिसे एंटी-इंकम्बेंसी कहते हैं, वह है क्या? इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि जनता अपने जनमत के प्रति जितनी जागरूक रही है उतने सजग उनके जनसेवक नहीं रहे हैं। राज की नीति में लगे जनसेवक जन के तंत्र को भूल चुके थे। घर-घर में चुनावी जनमत की जंग चल रही थी।
आम चुनाव में अयोध्या के रामलला मंदिर बनने से हिन्दू पंथ के पुनर्जागरण की आशा लगायी जा रही थी। बेशक हिन्दू पंथ जागा है। लेकिन घर चलाने का ईंधन भावना के मंजन से नहीं चलाया जा सकता। हिन्दुस्तान की जनता यह अच्छे से जानती है की सच्चा विकास तो समाज में समरस व्यवहार के सामुहिक उत्थान से ही हो सकता है।
इसलिए आज सारी परंपरा व इतिहास की झंडाबरदारी समयकाल की आर्थिकी के सामने घुटने टेकने पर मजबूर है। बेलगाम महंगाई व बढ़ती बेरोजगारी पर लटकते अलगाववाद ने न तो समाज का विकास किया न सत्ता दलों का। पंथ और जमात के बीच बोए गए भावना-भ्रम के संघर्ष से किसी को भी छुटकारा नहीं मिला है।
चुनाव का माहौल देख कर चुनावजीवी मोदी जी अपने असली रूप में आ गए हैं। एक जगह कहे को दूसरी जगह भूलते देखे जा सकते हैं। जमाए गए टीवी इंटरव्यू में भी जमा पसीना पोंछते देखे जा सकते हैं। किए गए कार्यों पर रोते देखे जा सकते हैं। दस साल पहले सत्ता पाने के लिए फैलाए गए अलगाव के पछतावे में पड़े देखे जा सकते हैं। मगर जनता का फैसला अभी भी आना बाकी है।