भोपाल। 1952 में हुए पहले आम चुनावों में प्रचार पैदल या साइकिल अथवा रिक्शा और तांगे से हुआ करता था। सभी पार्टियों की मत पेटियां उनके चुनाव चिन्ह के साथ एक बड़ी सी मेज पर रखी जाती थी। ये मतपेटियां दफ्ती की होती थी। चुनाव में गहमा – गहमी से भाषणबाजी और बिल्ले बाँट कर उम्मीदवार मतदाताओं से वोट का सहयोग मांगता था। उस समय सड़कों पर नारे लगाते एक दो नौजवान और उनके पीछे बच्चे उन नारों को दुहराते या हामी भरते थे। 1952, 1957, 1962, 1967 तक माहौल शांतपूर्ण ही था आजकल की परिभाषा से।
1967 में राज्यों में काँग्रेस नेत्रत्व और सरकारों में विद्रोह फूटा, उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिह ने बिहार में महामाया प्रसाद सिंह ने विश्वनाथ प्रसाद मुख्य थे। मध्यप्रदेश में गोविंद नारायान सिंह ने कमान सम्हाली। इन लोगो ने काँग्रेस विरोधी दलों को मिला कर एक संगठन बनाया नाम था संयुक्त विधायक दल। जिसको संविद कहा और लिखा गया। इस गठबंधन में तत्कालीन जनसंघ, सोसलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी शामिल थी। बिहार में शायद फारवर्ड ब्लॉक भी था, यह सुभाष बाबू द्वारा स्थापित संगठन था।
सभी प्रदेशों में इस की अगुवाई भूतपूर्व कांग्रेसियों ने ही की थी। 1972 के चुनावों तक यह गठबंधन बिखर सा चुका था। इसलिए आम चुनावों सत्ता से बाहर हुए कुछ लोगों ने मतदान को ही हिंसक प्रयास से निशाना बनाया। 1977 में हुए लोकसभा चुनावों में वोटरों को लुभाने के लिए खाने – पीने का बंदोबस्त और कंबल आदि बांटने की वरदातंे हुई। काँग्रेस पराजित हुई यूं कहें कि उत्तर भारत से तो जड़ ही उखाड़ गयी। चरण सिंह की पार्टी लोकदल के चुनाव चिन्ह पर लड़े गए। इस चुनाव से जनता दल बना। मुरारजी पहले कोङ्ग्रेस्सी थे जिनहोने गैर कोङ्ग्रेस्सी गठबंधन का नेत्रत्व किया। इस आंदोलन के प्रणेता बाबू जयप्रकाश नारायण भी काँग्रेस की ही दें थे। 1977 के चुनावों में छात्र हिंसा की शुरुआत –गुजरात के छात्र आंदोलन जिसकी अगुआई अरुण जेटली कर रहे थे, बिहार मंे लालू यादव और नितीश कर रहे थे। उत्तर प्रदेश के विभिन्न भागों में छात्र अगुवाई कर रहे थे। इन आम चुनावों में काँग्रेस समर्थकों से जनता दल के युवा इकाई के लोगों से संघर्ष हुए थे। मेरा मानना है की चुनावी हिंसा या तोड़फोड़ अथवा मतदान केन्द्रों पर हमला इसी चुनाव से शुरू हुआ।
तब लोहे की मतपेटियां बनी और एक मतपत्र जिस पर सभी उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिन्ह हुआ करते थे -मनपसंद प्रत्याशी के नाम के आगे मुहर लगाई जाती थी। तब नारा भी लगता था ……..मुहर लगेगी फलाने पर।
फिर 1982 में वोट की गोपनियता को लेकर एक प्रयोग के तौर पर केरल मे पेरियार विधान सभा क्षेत्र में इसका इस्तेमाल हुआ। तब कहा गया था कि केरल में साक्षरता शत प्रतिशत है इसलिए यह प्रयोग किया गया। परंतु सुप्रीम कोर्ट ने इस तरीके को विश्वसनीय नहीं माना और उस चुनाव परिणाम को शून्य कर दिया था ! फिर संसद में लोक प्रतिनिधित्व कानून में संशोधन किया गया जिससे ईवीएम मशीन को प्रयोग के रूप में राजस्थान आदि राज्यों में इसका इस्तेमाल हुआ। अखिल भारत स्तर पर इस का इस्तेमाल सन 2000 में शुरू हुआ। कहा गया कि इससे उन मतदान केन्द्रों को चिन्हित नहीं किया जा सकेगा जहां से किसी विशेष उम्मीदवार को वोट मिले हैं! क्यूंकि बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात में मत पेटियो को छिनने और तोड़ने की घटनाएं हुई थी। जो किअधिकतर गैर कोंग्रेसी दलों द्वारा की गयी थी|
अब इवीएम मशीन के आने के बाद इस चुनाव में पहली बार हुआ है कि पार्टी विशेष के उम्मीदवार का ही हरण कर लिया गया वह भी केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा ! वैसे नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात में सूरत के काँग्रेस उम्मीदवार नीलेश कुंभादि, जिन्होंने बीजेपी उम्मीदवार मुकेश दलाल से सांठ-गांठ करके अपना उम्मीदवारी का पर्चा खारिज करवा लिया। बाकी के उम्मीदवार ने भी नाम वापस लेकर दलाल को बिना चुनाव लड़े सांसद बनवा दिया !
इंदौर में भी काँग्रेस के अक्षया कान्ति बम ने अपना नामजदगी का पर्चा खारिज कराया। और बीजेपी के उम्मीदवार का रास्ता साफ कर दिया। यह खेल खजुराहो में भी दोहराया जा सकता है, आखिर पैसे में बड़ी ताकत होती है। मुरैना में 6 बार के काँग्रेस विधायक के बीजेपी में शामिल होने से यह सीट अब मोदी पार्टी के लिए सुरक्षित हो गयी है। इंदौर के काँग्रेस उम्मीदवार के खिलाफ 17 साल से चल रहे शांति भंग के मामले में नामजदगी के दो दिन बाद ही मजिस्ट्रेट ने धारा 307 लगाने की पुलिस की अर्जी को मंजूरी देते हुए 10 मई को अदालत में हाजिर होने का हुकुम दिया। बम के अनेक शिक्षा संस्थानो में सरकार ने गड़बड़ी का आरोप लगा कर जांच और गिरफ्तारी की मंशा जाता दी थी ! फिर होना क्या था धंधा बचाने के लिए राजनीति कुर्बान !
मुरैना भी काँग्रेस के रामनिवास रावत के भी शिक्षण संस्थानो और व्यापारिक संस्थानों की जांच और सज़ा का भय दिखा कर, मिला लिया अपनी ओर ! परंतु बीजेपी को उसके कर्मो का फल बंगाल में मिला जहां वीरभूम से उसके उम्मीदवार देवशीस धर के नामांकन पत्र को खारिज किए जाने के रिटर्निंग अफसर के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने मंजूरी दे दी है। अब अगर दो निर्वाचन क्षेत्रों में काँग्रेस बिना उम्मीदवार के है तो दीदी के राज में बीजेपी की एक सीट तो गयी।