उत्तर प्रदेश सरकार ने कांवड़ मार्ग में पड़ने वाली दुकानों के स्वामियों को अपने बारे में जानकारी देने का जो आदेश दिया है उसकी कई तरह की व्याख्याएं हो रही हैं। उसे धार्मिक या सांप्रदायिक विभाजन के दृष्टिकोण से देखा जा रहा है। राजनीतिक लाभ हानि की दृष्टि से भी उसकी व्याख्या हो रही है। सामाजिक संरचना पर आघात की तरह भी इसका विश्लेषण किया जा रहा है। लेकिन सबसे आश्चर्य की बात है कि जिस एक सबसे महत्वपूर्ण दृष्टिकोण से इसे देखने की आवश्यकता है उसकी अनदेखी की जा रही है। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार के आदेश को ग्राहक और दुकानदार के नजरिए से देखने की जरुरत है।
एस. सुनील
कांवड़ लेकर चल रहे लोग एक धार्मिक यात्रा पर होते हैं लेकिन जब वे किसी दुकान पर कोई सामान खरीदने जाते हैं तो वे भी एक ग्राहक होते हैं। एक ग्राहक के नाते उनके कुछ अधिकार हैं, जिनमें से एक अधिकार यह है कि उन्हें दुकान और दुकानदार के बारे में पूरी जानकारी होनी चाहिए। यह बिल्कुल उसी तरह की बात है, जैसे हर उत्पाद की पैकिंग पर यह बताना अनिवार्य होता है कि उस उत्पाद में क्या क्या मिलाया हुआ है। जिस तरह से उत्पाद के बारे में जानना ग्राहक का अधिकार है उसी तरह दुकानदार के बारे में जानना भी उसका अधिकार है।
तभी 2006 में मनमोहन सिंह की सरकार ‘खाद्य सुरक्षा अधिनियम’ लेकर आई थी। इसे पांच अगस्त 2011 से लागू किया गया। इस कानून में प्रावधान किया गया है कि खाने पीने के सामान बेचने वाले दुकानदारों को अपना फूड लाइसेंस दुकान में ऐसी जगह लगाना होगा, जहां ग्राहक उसे आसानी से देख सके। उसमें लाइसेंसधारक का नाम, पता तो होता ही है साथ ही लाइसेंस जारी होने और समाप्त होने की तिथि भी लिखी होती है। इस कानून में प्रावधान है कि अगर किसी के पास लाइसेंस नहीं है और वह खाने पीने की चीजें बेच रहा है तो उसके ऊपर 10 लाख रुपए तक का जुर्माना हो सकता है। यह प्रावधान इसलिए किया गया ताकि ग्राहक दुकानदार और उत्पाद दोनों के बारे में जागरूक हो। उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार का मौजूदा आदेश मनमोहन सिंह की सरकार में बने कानून का ही एक रूप है। चूंकि इसे कांवड़ यात्रा के समय अनिवार्य रूप से लागू करने का आदेश दिया गया है इसलिए इसमें धार्मिक और सांप्रदायिक पहलू जुड़ गया है।
ग्राहक को दुकानदार और उसके उत्पादों के बारे में सारी जानकारी मिलनी कितनी आवश्यक है इसका एक उदारहण तो खुद देश और दुनिया का मुस्लिम समाज है। भारत सहित पूरी दुनिया में यह अभियान चल रहा है कि खाने पीने से लेकर पहनने और सौंदर्य प्रसाधन से लेकर बाह्य इस्तेमाल तक की सभी चीजों पर हलाल प्रमाणित होने का प्रमाणपत्र लगा हुआ होना चाहिए। एक अनुमान के मुताबिक पूरी दुनिया में हलाल प्रमाणित उत्पादों का बाजार दो ट्रिलियन डॉलर यानी भारत के सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी के आधे से कुछ ज्यादा का हो गया है। मुस्लिम धर्मगुरू अपने समाज के लोगों को हलाल प्रमाणपत्र वाले उत्पाद ही खरीदने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हैरानी है कि खाने पीने की चीजों पर तो हलाल प्रमाणपत्र दिया ही जा रहा है प्रसाधन और कपड़े लत्ते पर भी इस तरह का प्रमाणपत्र दिया जा रहा है। भारत में भी जहां 80 फीसदी आबादी हिंदू है वहां भी इस तरह के उत्पादों की भरमार हो गई है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश के कई बड़े रेस्तरां शृंखला वालों ने अपने लिए हलाल प्रमाणित सामान बेचने का प्रमाणपत्र हासिल किया है। यह एक बड़ा मामला है, जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जा रहा है।
पिछले साल एक ट्रेन यात्री का वीडियो वायरल हुआ था, जिसने इंडियन रेलवे के अधिकारियों से इस बात पर आपत्ति जताई थी कि ट्रेन में हलाल सर्टिफायड चाय दी जा रही है। उस व्यक्ति को जो चाय दी गई वह हलाल सर्टिफायड थी। उसने सवाल उठाया कि उसे यह चाय क्यों दी जा रही है। संयोग से वह भी सावन का ही महीना था। सोचें, मुस्लिम ग्राहकों की संवेदनशीलता को देखते हुए खाद्य उत्पाद बनाने वाले और बेचने वाले हलाल सर्टिफायड का प्रमाणपत्र ले रहे हैं और यहां कांवड़ मार्ग में दुकानदार का नाम लिखने के आदेश भर से लोगों की भावनाएं आहत होने लगीं!
बहरहाल, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड सरकार के आदेश से सहज रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि इसका मकसद मुस्लिम समाज के दुकानदारों का बहिष्कार सुनिश्चित करना है। हालांकि यह हर समुदाय के दुकानदार के लिए अनिवार्य किया गया है। इस मसले पर राजनीति करने वाले खासतौर पर भाजपा विरोधी इंडी गठबंधन के इकोसिस्टम के लोग मुस्लिम के साथ दलित भी जोड़ रहे हैं और कह रहे हैं कि मुस्लिम व दलित का बहिष्कार करने का माहौल बनाया जा रहा है। यह इस आदेश की दुर्भावनापूर्ण व्याख्या है। इस बात का कोई वास्तविक प्रमाण नहीं है कि व्यापक हिंदू समाज मुस्लिम नाम देख कर दुकानों या व्यक्तियों का बहिष्कार करता है। मुस्लिम नाम वाले तमाम दुकानों पर बड़ी संख्या में हिंदू ग्राहक जाते हैं। दिल्ली से लेकर मुंबई, कोलकाता और हैदराबाद में मुस्लिम नाम वाले अनेक मशहूर होटल और रेस्तरां हैं, जो दशकों से चल रहे हैं और जहां बड़ी संख्या में हिंदू ग्राहक जाते हैं। इसलिए पहले ही यह निष्कर्ष निकालना कि कांवड़िए लोग मुस्लिम दुकानदारों का बहिष्कार करेंगे, गलत होगा। अगर दुकान पर साफ सफाई हो, बैठने की अच्छी व्यवस्था हो, उत्पाद की गुणवत्ता अच्छी और कीमत प्रतिस्पर्धी हो तो हो सकता है कि ग्राहक भेदभाव नहीं करें। इसी तरह मुस्लिम नाम देख कर बहिष्कार की बात भी मिथ्या है क्योंकि अगर ऐसा होता तो एक सौ करोड़ हिंदू आबादी वाले देश में सुपरस्टार शाहरूख और सलमान खान नहीं होते। जहां तक दलित का पहलू जोड़ने की बात है तो उसका भी कोई आधार नहीं है क्योंकि कांवड़ उठाने वालों में बड़ी संख्या पिछड़े, दलित और वंचित समाज के लोगों की होती है।
सरकार के आदेश को धार्मिक, सांप्रदायिक या ध्रुवीकरण कराने के उद्देश्य के तौर पर देखने वालों को अपनी राजनीतिक विचारधारा से ऊपर उठ कर इसके बारे में विचार करना होगा। उन्हें इसे ग्राहक और दुकानदार के संबंध के तौर पर देखना होगा और उसमें ग्राहक के अधिकार को सर्वोपरि रखना होगा। आखिर महात्मा गांधी ने कहा है कि किसी भी दुकानदार के लिए ग्राहक सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति होता है। अगर वह महत्वपूर्ण व्यक्ति दुकानकार या उसके उत्पादों के बारे में जानना चाहता है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह समझने की है कि कांवड़ यात्रा एक बेहद पवित्र यात्रा होती है, जिसमें कांवड़ के साथ साथ यात्रियों की पवित्रता और शुचिता बहुत महत्व रखती है। अगर इस यात्रा की शुचिता और पवित्रता सुनिश्चित करने के लिए कोई अतिरिक्त कदम उठाया जाता है तो उसके अंध विरोध की बजाय उसकी आवश्यकता पर विचार करना चाहिए।
तीसरी, बात यह है कि पिछले कुछ समय से सोशल मीडिया में कई ऐसे वीडियो वायरल हुए हैं, जिनमें दुकानदार को खाने पीने की चीजों में थूकते या उसे जूठा करते दिखाया गया है। कई बार दावा किया जाता है कि थूकने का नहीं, बल्कि दुआ फूंकने का वीडियो है। हो सकता है कि दुआ फूंकने का वीडिया हो लेकिन किसी पवित्र यात्रा पर निकले लोगों को इससे अपनी यात्रा की पवित्रता और शुचिता भंग होने की चिंता हो सकती है। इस तरह की भी कई घटनाएं लोगों के संज्ञान में आई हैं, जिनमें मुस्लिम दुकानदारों ने अपनी दुकान का नाम हिंदू देवी देवताओं के नाम पर रखा हुआ था। यह अपना धंधा चमकाने के लिए ग्राहक से धोखाधड़ी है। सामान्य स्थितियों में भी यह धोखा है और ऐसा नहीं होना चाहिए लेकिन कांवड़ यात्रियों के साथ इस तरह का धोखा अक्षम्य माना जाना चाहिए। यह तर्क दिया जा रहा है कि मुस्लिम बहुल देशों में हिंदू प्रवासी बहुत हैं और वे वहां कारोबार करते हैं। यह सही है लेकिन कहीं से भी यह शिकायत नहीं आई है कि कोई हिंदू दुकानदार मुसलमानों के धर्म प्रतीकों के नाम पर दुकान का नाम रख कर सामान बेचता हो और मुस्लिम ग्राहकों को धोखा देता हो। इसलिए किसी धार्मिक या सांप्रदायिक, राजनीतिक या सामाजिक विभाजन वाले तर्क में जाने की बजाय इस आदेश को ग्राहक और दुकानदार के दृष्टिकोण से देखने की जरुरत है।
जो लोग कांवड़ यात्रा के बारे में जानते हैं उनको पता है कि इसमें पवित्रता का कितना ध्यान रखना होता है। रास्ते में कहीं भी कांवड़ अपवित्र हो या कांवड़िया अपवित्र हो तो उसे वापस हरिद्वार लौटना होगा और नए सिरे से गंगाजल उठा कर आना होगा। हालांकि कुछ कांवड़िए ऐसे भी होते हैं, जो इतने नियमों का पालन नहीं करते हैं लेकिन बहुसंख्यक ऐसे होते हैं, जो पूरी श्रद्धा के साथ यात्रा करते हैं और उन्हें कांवड़ की पवित्रता का बहुत ध्यान रखना होता है। इसलिए पूरी यात्रा में कांवड़ और कांवड़ियों की पवित्रता सुनिश्चित करने के सारे प्रयास किए जाने चाहिए। अगर सरकार के एक आदेश से अतिरिक्त सुरक्षा सुनिश्चित होती है तो उसका अंध विरोध करने की आवश्यकता नहीं है।
(लेखक सिक्किम के मुख्यमंत्री प्रेम सिंह तमांग (गोले) के प्रतिनिधि हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)