‘शरबत-ए-आज़म’ यानी कुंए का मीठा पानी

‘शरबत-ए-आज़म’ यानी कुंए का मीठा पानी

भोपाल। सचिन का फोन आया कि उनके नये नाटक का मंचन है और आपको आना है। अन्य व्यस्तताओं के कारण मेरा जाना संभव नहीं था। इस नये मौलिक नाटक का प्रमोशन सोशल मीडिया पर एक अलग अंदाज में पहले से किया जा रहा था जिससे इसे देखने की उत्सुकता तो थी लेकिन छिंदवाड़ा जा नहीं पाया और नाटक का मंचन हो गया। बात यही खत्म नहीं हुई। सचिन का फिर फोन आया और उसने एक और तारीख दी जब मैं नाटक देखने आ सकूं। वे उसी नाटक का दूसरा शो करना चाह रहे थे। तारीख तय हो गई और नाटक के दूसरे प्रदर्शन की तैयारी होने लगी। तय तारीख के एक दिन पहले मौसम के चलते जाना संभव नहीं दिख रहा था। मैंने माफी मांगने के लिये सचिन को फोन लगाया। उसने छूटते ही कहा नहीं आ पाने के अलावा आप बाकी बातें कर सकते हैं। वह कुछ सुनने को तैयार नहीं था और मेरे पास छिंदवाड़ा जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। आखिरकार मेरी उपस्थिति में नाटक का दूसरा हाउसफुल प्रदर्शन टिकट के साथ हुआ।

मध्यप्रदेश का छिंदवाड़ा शहर देश के उन बहुतेरे शहरों में से एक है जहां कोई आडिटोरियम ही नहीं है। यह शहर जिला मुख्यालय है और सांसद कमलनाथ छिंदवाड़ा को विकास के माडल के रूप में प्रचारित करते रहे लेकिन यहां आडिटोरियम बनाया जाना विकास के मापदंडों में शामिल नहीं माना गया। वैसे भी रंगमंच और संस्कृति हमारे देश की राजनीति खासकर हिन्दी पट्टी की राजनीति व सरकारों की प्राथमिकता के आखिरी पैदान पर ही रहता आया है। बावजूद इसके शहर के रंगकर्मियों की रंगमंचीय सक्रियता निरंतर बनी हुई है।

लगभग 4 दशक पहले वरिष्ठ रंगकर्मी विजय दुबे ’इप्टा’ के बेनर तले रंगमंच करते थे। नाट्य गंगा संस्था के कलाकारों ने इसी संस्था से अपने रंगमंच की शुरूआत की लेकिन वहां काम करते हुए मजा नहीं आ रहा था। बाद में उन रंगकर्मियों ने नाट्य गंगा के नाम से संस्था बनाई और पिछले दो दशक से अधिक समय से साल भर रंगमंच करते आ रहे हैं। दरअसल नाट्य गंगा की यात्रा और छिंदवाड़ा के रंगमंच की कहानी और अनुभव सिर्फ वहीं का नहीं है बल्कि देश भर के हर छोटे शहर के रंगमंच और रंगकर्मियों की यही कहानी है।

नाट्य गंगा संस्था के प्रमुख व अभिनेता निदेशक सचिन वर्मा पेशे से चार्टेर्ड एकाउंटेंट हैं लेकिन मैं उन्हें हमेशा ही रंगकर्म में सक्रिय पाया। उनकी संस्था ने एक तरफ नये-नये नाटक करना जारी रखा तो दूसरी ओर थियेटर वर्कशाप व थियेटर फेस्टिवल का सिलसिला भी चलता रहा है। नाटकों का आडिटोरियम में मंचन के साथ-साथ शहर के अलग-अलग इलाकों में जाकर नुक्कड़ नाटक भी निरंतर होता रहा जिससे नये रंगकर्मी भी तैयार होते रहे तो नया दर्शक वर्ग भी बनता चला गया। ऐसे ही एक नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन के दौरान मराठी ब्राह्मण परिवार की लड़की नीता पारसे ने नाटक करने के प्रति इच्छा जताई और नाट्य गंगा में शामिल हो गई। नाटक करते करते ही सचिन और नीता करीब आये और जीवन साथी बन गये। जाहिर है एक से दो होने के बाद सचिन की रंगमंचीय सक्रियता और बढ़ गई। नीता की दो बहनों ने भी नाटकों में काम करना शुरू किया लेकिन विवाह के बाद उनका थियेटर थम गया। सचिन की सक्रियता के चलते कोरोनाकाल में आन लाइन सेमीनार और वर्कशाप आयोजित होते रहे।

जैसा कि हर छोटे शहरों के रंगमंच की कहानी है कि रंगसंस्थाओं के रंगकर्मी ठहरते नहीं है और मौका मिलते ही बाहर चले जाते हैं। ऐसा ही नाट्य गंगा के साथ भी हुआ। संस्था के रंगकर्मी सचिन मालवीय बरास्ते भोपाल मुम्बई चले गये। चैतन्य आठले वर्धा विश्वविद्यालय, खैरागढ़ विश्वविद्यालय होते हुए भोपाल आ गये। संस्था की खुशबु चोबदार, अपूर्वा डोंगरवार, सहित चार अभिनेत्रियों का चयन मध्यप्रदेश नाट्य विद्यालय में हो गया। वहां जाने के बाद फिर वे छिंदवाड़ा वापस नहीं लौटी। कुछ महिला कलाकारों का विवाह होने के बाद रंगमंच छूट गया।

बावजूद इसके संस्था की रंगमंचीय सक्रियता में कोई कमी नहीं आई और इसका श्रेय संस्था के प्रमुख सचिन वर्मा को ही दिया जायेगा। लगातार थियेटर वर्कशाप के अलावा अलग-अलग शहरों में होने वाले वर्कशाप में संस्था के रंगकर्मी भाग लेते रहे। कुल मिलाकर रंगमंच का संस्थागत प्रशिक्षण के बिना भी इन रंगकर्मियों का प्रशिक्षण होता रहा और नये-नये रंगकर्मी संस्था से जुड़ते गये और अभिनय करने लगे। संस्था के कामों को और गति तब मिली जब जबलपुर के वरिष्ठ रंग निर्देशक बिनोद विश्वकर्मा छिंदवाड़ा में पदस्थ हुए। उनके निर्देशन का लाभ संस्था को मिला और सभी को सीखने को भी खूब मिला।

रोहित रुसिया मूलतः कवि व चित्रकार हैं। नाट्य गंगा से जुड़कर वे अभिनय करने लगे और संस्था के सक्रिय किरदार बन गये। संस्था का एक और सक्रिय किरदार है पंकज सोनी जो मूलतः नाटककार और अभिनेता हैं। हिन्दी में मौलिक नाटक तैयार करने में पंकज ने महत्वपूर्ण काम किया है। उसके द्वारा लिखित नाटक ”तितली“ और ”जहर“ का मंथन नाट्यगंगा के कलाकारों ने किया। इन नाटकों का प्रदर्शन अन्य शहरों की रंग संस्थाओं ने भी किया और यह सिलसिला अभी भी जारी है। रंगकर्मी होने के नाते उनके नाटकों की स्क्रिप्ट में ऐसी कसावट होती है कि उनका मंचन प्रभावी बन जाता है। पंकज भी टीवी सीरियल में अभिनय करने मुम्बई पहुंच गये हैं लेकिन छिंदवाड़ा और नाट्य गंगा से लगातार जुड़े हुये हैं और उनकी मौजूदगी और भागीदारी संस्था की हर गतिविधि में रहती है। नाट्य गंगा में दूसरी पीढ़ी के रंगकर्मियों को तैयार करने की प्रक्रिया निरंतर चलते रहती है। जो अभिनय के साथ निदेशन व लेखन भी करते हैं। दानिश अली, स्वाति चौरसिया, हर्श डेहरिया, अमजद खान आदि नाट्य वर्कशाप के लिये नाटक लिखते भी रहे और उनका निर्देशन भी किया।

जिस नये नाटक के मंचन के जिक्र से मैंने आलेख शुरू किया है, वह भी पंकज सोनी का लिखा हुआ है जिसमें लेखकीय सहयोग नाटक के निर्देशक सचिन वर्मा का भी हैै। फैंटेसी बुनने की कला में पंकज माहिर है और उनका नया नाटक ‘शरबत-ए-आज़म’ भी एक खूबसूरत फेंटेसी का नमूना है। यह नाटक ढोगी बाबाओं और अंधविश्वास के बाजारवादी संरचना पर चोट करता है। एक जमाखोर नेतानुमा व्यापारी शक्कर की जमाखोरी करता है लेकिन छापामारी की आशंका में रातों रात शक्कर की सारी बोरियां गांव के कुंये में फिकवा देता है जिससे कुयें का पानी मीठा हो जाता है। बाद में उस मीठे पानी को अंधविश्वास और लोगों की आस्था से जोड़ देता है। नाटक में फकीर है तो प्रेम प्रसंग भी है, जमीदार और उसके गुंडे है यानी पूरी नाटकीयता का ताना बाना है। नाटक मनोरंजक होने से दर्शकों को आकर्षित करता है लेकिन फिर भी मुझे इसमें कुछ एडिटिंग की गुंजाइश दिखी जिससे नाटक का केन्द्रीय विषय अंधविश्वास पर प्रहार अधिक तीखा हो सके।

कलाकारों का अभिनय अच्छा था। नाटक के अगले प्रदर्शनों में इसमें और निखार आयेगा। नाटक के जिस कलाकार ने मुझे अधिक प्रभावित किया, वह थी स्वाति चौरसिया। उसके चेहरे की अभिव्यक्ति खासकर आंखों के भाव, दर्शकों को बांध लेती है। स्वाति को मैंने ’तितली’ नाटक के लीड रोल में देखा था। उस नाटक में उसने कमाल का अभिनय किया था। बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के उसने अपने आपको एक बेहतरीन अभिनेत्री के रूप में निखारा है।

‘शरबत-ए-आज़म’ नाटक का प्रमोशन भी अलग तरह से किया गया। नाट्य प्रस्तुति के कुछ दिन पहले नाटक के गाने और कब्बाली को एक-एक करके सोशल मीडिया पर जारी किया गया। इन खूबसूरत गानों ने लोगों में नाटक देखने के प्रति दिलचस्पी पैदा करने का काम किया। किसी नाटक का इस तरह का प्रमोशन मैंने पहली बार देखा। इस प्रयोग को आगे बढ़ाने की जरूरत है तथा कुछ और प्रयोगों के साथ नाटक का प्रमोशन किया जाना नये दर्शक वर्ग तैयार करने में जरूर मदद करेगा और नाटक को पेशेबर बनाने की दिशा में आगे बढ़ सकेगा।

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