अमेरिका में जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर का वहां के आम उपभोक्ताओं की खुशहाली से कोई रिश्ता नहीं है। बल्कि ये दोनों बातें आज विपरीत दिशा में जाती दिख रही हैं। मगर बात यहीं तक नहीं है। एक तथ्य यह भी है कि जिस समय जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर हासिल हुई है, उसी समय अमेरिका में कंपनियों का संकट गहरा रहा है। ऋण डिफॉल्ट करने का खतरा उनके सिर पर मंडरा रहा है।…तो आखिर जीडीपी और आम अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा फर्क क्यों है? यह प्रश्न सिर्फ अमेरिका के लिए ही नहीं, बल्कि बाकी पूरी दुनिया के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।
अजीब दास्ता
इस वर्ष की तीसरी तिमाही में अमेरिका की आर्थिक वृद्धि दर असामान्य और अनपेक्षित ढंग से ऊंची रही। (2023 की) जुलाई-सितंबर तिमाही में अमेरिका देश का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 4.9 प्रतिशत की दर से बढ़ा। स्वाभाविक है कि जब यह आंकड़ा जारी हुआ, तो उससे दुनिया भर के आर्थिक विशेषज्ञ चौंक गए। उचित ही इस सवाल को लेकर व्यापक दिलचस्पी बनी कि जिस समय विश्व अर्थव्यवस्था में गिरावट का दौर है और यूरोप सहित अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाएं मंदी का सामना कर रही हैं, अमेरिका ने इस चमत्कारी विकास दर को कैसे हासिल कर लिया?
अमेरिका में राष्ट्रपति जो बाइडेन का प्रशासन जब यूक्रेन में रूस के हाथों आसन्न हार और चीन से चिप युद्ध में संभावित नाकामी के साथ-साथ इजराइल की करतूतों से दुनिया भर नैतिक वैधता खोने जैसे हालात के कारण मायूसी से घिरा हुआ है, तो लाजिमी है कि इस खबर से उसकी बाछें खिल उठीं। प्रशासन ने अपना पूरी ताकत इस खबर के जरिए अमेरिका में उत्साह और उम्मीद पैदा करने में झोंक दी है।
लेकिन उसकी यह खुशी क्षणिक साबित होने वाली है। अर्थव्यवस्था के जानकारों ने इस कथित चमत्कार की हकीकत पर से परदा हटाना शुरू कर दिया है। और बात सिर्फ अर्थशास्त्रियों और विशेषज्ञों की नहीं है। दरअसल, वास्तविक अर्थव्यवस्था (अर्थव्यवस्था के उत्पादन एवं वितरण से जुड़े हिस्सों) से संबंधित कॉरपोरेट अधिकारियों की प्रतिक्रिया भी निराशा पैदा कर रही है। इनसे कुल बनी सूरत को समेटते हुए बड़ी बहुराष्ट्रीय पूंजी की प्रवक्ता मानी जाने वाली पत्रिका द इकॉनमिस्ट ने एक रिपोर्ट तैयार की है। (America’s economy is booming। Why aren’t its bosses happier? (economist।com)।
इस रिपोर्ट में कहा गया कि तीसरी तिमाही में अच्छे नतीजों के बावजूद अमेरिकी कॉरपोरेट सेक्टर में शायद ही उल्लास है। रिपोर्ट में सवाल उठाया गया कि ‘यह उदासी क्यों है?’ फिर इसका उत्तर कुछ इस रूप में दिया गया है-
- अमेरिकी उपभोक्ताओं की भावी स्थिति कॉरपोरेट अधिकारियों की सबसे बड़ी चिंता है। मॉर्गन स्टैनले बैंक के मुताबिक अमेरिकी कंपनियों की एक तिहाई आमदनी सीधे घरेलू उपभोक्ताओं के पॉकेट से होती है। ऐसे में इन अधिकारियों की प्रतिक्रिया की समझना आसान है।
- बैंक ऑफ अमेरिका ने क्रेडिट और डेबिट कार्ड के आंकड़ों के हवाले से बताया है कि पिछले साल की तुलना में इस अक्टूबर में खरीदारी में गिरावट आई।
- तीन साल की राहत के बाद अक्टूबर के आरंभ शिक्षा ऋण का भुगतान करने की अनिवार्यता फिर लागू हो गई है। (इससे लाखों लोगों को अपनी आय का एक हिस्सा स्टूडेंट लोन के भुगतान पर खर्च करना पड़ेगा। स्टूडेंट लोन के भुगतान पर रोक कोरोना काल में लगाई गई थी।) तो कुल मिलाकर कुल वास्तविक आय की तुलना में खर्च तेजी से बढ़ रहा है। इस कारण उपभोक्ता अपनी वित्तीय स्थिति को लेकर मायूसी से भरे हुए हैँ।
एक अन्य ताजा रिपोर्ट (Americans are spending more while saving less (axios।com)) में बताया गया है कि अमेरिका निवासी अपनी आमदनी की तुलना में अधिक खर्च करने को मजबूर हो रहे हैं।
- अमेरिका के वाणिज्य मंत्रालय के हवाले से इस रिपोर्ट में कहा गया है कि बीते सितंबर में देश में निजी उपभोग कर्च में 0.7 प्रतिशत की बड़ी बढ़ोतरी हुई। अगर इस आंकड़े को मुद्रास्फीति से समायोजित किया जाए, तब भी ये वृद्धि 0.4 प्रतिशत बैठती है।
- जबकि सितंबर में औसत निजी आय में सिर्फ 0.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इस तरह खर्च योग्य कुल आमदनी (मुद्रास्फीति एवं टैक्स को एडजस्ट करने के बाद) में असल में 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई।
- नतीजा यह हुआ कि निजी बचत की दर 4 प्रतिशत से गिर कर 3.4 प्रतिशत पर आई। 2008 के बाद अमेरिका में निजी बचत दर का स्तर इतना नीचे कभी नहीं गया था।
तो यह साफ है कि चूंकि वास्तिवक आय गिर रही है, इसलिए अपने जरूरी खर्चों को पूरा करने और कर्ज संबंधी देनदारियों को निभाने के लिए अमेरिकी उपभोक्ता अपनी बचत में हाथ लगा रहे हैं। अर्थशास्त्रियों ने उचित ही ध्यान दिलाया है कि ऐसा अनिश्चित काल तक नहीं चल सकता। इसीलिए आम अनुमान यह है कि 2024 आते-आते अमेरिकी उपभोक्ताओं के खर्च करने की क्षमता जवाब दे जाएगी।
वेबसाइट axios।com की इसी रिपोर्ट में एक विशेषज्ञ का यह कहते हवाला दिया गया है- ‘पहले से की गई बचत की एक सीमा है। वह तेजी से खत्म हो रही है। विभिन्न अनुमानों में बताया गया है कि कोरोना महामारी के दौर में इकट्ठी हुई बचत की रकम अगले वर्ष की पहली छमाही तक खत्म हो जाएगी।’ (कोरोना काल में अमेरिका सरकार ने कई किस्तों में लोगों नकद रकम का भुगतान किया था। बड़ी संख्या में लोगों ने उस रकम को अपनी बचत का हिस्सा बना लिया।)
तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था का यह असल हाल है। एक तरफ सकल आर्थिक (मैक्रो-इकॉनमिक्स के) आंकड़े खुशहाली का संकेत देते हैं, लेकिन बारीक सूरत (माइक्रो-इनकॉमिक्स) मायूसी से भरी हुई है। तो सवाल है कि अगर अमेरिकी उपभोक्ताओं की कमर टूटने की प्रक्रिया में है, तो इतनी ऊंची आर्थिक वृद्धि दर असल में हासिल कैसे हुई है? यानी जीडीपी में यह बढ़ोतरी आ कहां से रही है?
अर्थशास्त्रियों ने इस रहस्य पर से भी परदा हटा दिया है। कुल सूरत यह है कि तीसरी तिमाही में दर्ज हुई आर्थिक वृद्धि दर को अगर सालाना रूप (annualised) दें- यानी इस आधार पर साल भर की जीडीपी वृद्धि दर का अनुमान लगाएं, तो यह दर 4.9 प्रतिशत बैठती है। इस वर्ष की दूसरी तिमाही (अप्रैल-जून) की तुलना में यह वृद्धि 1.2 प्रतिशत ज्यादा रही। अगर ताजा आंकड़े की तुलना पिछले वर्ष की तीसरी तिमाही से करें, तो दर्ज हुई वृद्धि 2.9 प्रतिशत बैठती है। तो फिर सवाल वही है- यह वृद्धि आ कहां से रही है?
अर्थशास्त्री माइकल रॉबर्ट्स ने अपने ब्लॉग (US economy expanding? – Michael Roberts Blog (wordpress।com)) में इसका राज़ खोला है। उनके मुताबिक,
- तीसरी तिमाही में सबसे तेज वृद्धि का स्रोत स्वास्थ्य, सामान्य उपयोग की वस्तु एव संवाएं और कंज्यूमर ड्यूरेबल्स रहे। (महंगाई के कारण इन सब पर उपभोक्ताओं को अधिक खर्च करना पड़ा, जिनसे कंपनियों की आय बढ़ी और उसकी गणना जीडीपी में हुई।)
- दूसरा स्रोत तैयार माल के भंडार (stocks of inventories) में इजाफा रहा। (यह इस बात का सूचक है कि भंडार में माल की बढ़ी मौजूदगी की कीमत जीडीपी में जोड़ी गई है। लेकिन अगर भंडार बढ़ा है, तो यह संकेत है कि बिक्री घटी है। अनुमान लगाया जा सकता है कि उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति कमजोर पड़ने के कारण बिक्री घटी है।)
- और तीसरा स्रोत सरकारी खर्च रहा। (बीते दो साल में जो बाइडेन प्रशासन के इन्फ्लेशन रिडक्शन ऐक्ट और चिप उद्योग को दी जा रही भारी सब्सिडी के कारण अर्थव्यवस्था में सरकार का पूंजीगत निवेश तेजी से बढ़ा है।)
उपरोक्त विश्लेषण से यह साफ है कि अमेरिका में जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर का वहां के आम उपभोक्ताओं की खुशहाली से कोई रिश्ता नहीं है। बल्कि ये दोनों बातें आज विपरीत दिशा में जाती दिख रही हैं। मगर बात यहीं तक नहीं है। एक तथ्य यह भी है कि जिस समय जीडीपी की ऊंची वृद्धि दर हासिल हुई है, उसी समय अमेरिका में कंपनियों का संकट गहरा रहा है। ऋण डिफॉल्ट करने का खतरा उनके सिर पर मंडरा रहा है। (Debt distress – Michael Roberts Blog (wordpress।com))
इसका बड़ा कारण ब्याज दरों में हुई भारी बढ़ोतरी है। एक अनुमान के मुताबिक बीते दो साल में अमेरिकी कंपनियों के लिए ऋण लेना औसतन तीन गुना महंगा हो चुका है। ड्यूश बैंक ने तो अनुमान लगाया है कि अमेरिका में कंपनियों के डिफॉल्ट करने की दर 11.3 प्रतिशत तक पहुंच सकती है। 2008 की भीषण मंदी के समय यह दर 12 प्रतिशत तक गई थी। यानी उससे मिलते-जुलते हालात बनते दिख रहे हैं।
इस घटनाक्रम ने तथाकथित जॉम्बी कंपनियों को फिर से चर्चा में ला दिया है। जॉम्बी उस कंपनी को कहा जाता है, जिसके ऊपर उसके संभावित मुनाफे से अधिक ऋण का बोझ हो जाता है। अमेरिका में ऐसी कंपनियों की संख्या तेजी से बढ़ने का अनुमान है।
तो आखिर जीडीपी और आम अर्थव्यवस्था में इतना बड़ा फर्क क्यों है? यह प्रश्न सिर्फ अमेरिका के लिए ही नहीं, बल्कि बाकी पूरी दुनिया के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। व्यापक सामाजिक हित के प्रति संवेदनशील अर्थशास्त्री अब इस बात की लगातार चर्चा कर रहे हैं कि वित्तीय पूंजीवाद के दौर में जीडीपी का आम आबादी के हाल से पूरी तरह संबंध विच्छेद हो चुका है, जबकि असल अर्थव्यवस्था (real economy) से संबंध कमजोर होता जा रहा है। वैसे तो यह समझ लंबे समय से विकसित हो रही थी, लेकिन कोरोना काल में दिखे ट्रेंड ने इस बारे में रहे-सहे भ्रम को भी मिटा दिया।
साल 2020 में जिस समय लगभग पूरी दुनिया में लॉकडाउन के कारण अर्थव्यवस्थाएं ठप थीं, उस समय शेयर बाजारों में असामान्य, अप्रत्याशित, और सबको चौंका देने वाली तेजी देखने को मिली। इस फर्क को समझने में विशेषज्ञों को कुछ समय लगा, लेकिन जल्द ही वे इस निष्कर्ष पर आ गए कि वॉल स्ट्रीट और मेन स्ट्रीट अब एक दूसरे की विपरीत दिशा में जा रहे हैँ। भारत के संदर्भ में हम इसे दलाल स्ट्रीट (मुंबई में शेयर बाजार का स्थल) और मेन स्ट्रीट कह सकते हैं। यहां मेन स्ट्रीट से मतलब असल अर्थव्यवस्था (real economy) से है।
असल अर्थव्यवस्था का मतलब उत्पादन और वितरण की प्रक्रियाओं से है, जहां रोजगार पैदा होता है और जिस अर्थव्यवस्था की वृद्धि के साथ सामाजिक खुशहाली बढ़ती है। दूसरी तरफ शेयर बाजार, ऋण कारोबार, बॉन्ड मार्केट आदि की एक अलग अर्थव्यवस्था बन गई है, जहां पैसे से पैसा बनाया जाता है। लेकिन यह काम वही लोग कर सकते हैं, जिनके पास पहले से पैसा है। इसलिए इसे रेंट आधारित अर्थव्यवस्था कहा जाता है।
ऋण कारोबार का तो असर यह होता है कि उसमें मुनाफा आम लोगों की मुसीबत बढ़ाने की कीमत पर बढ़ता है। जबकि वह बढ़ोतरी भी जीडीपी में गिनी जाती है। इस उदाहरण पर गौर कीजिएः मान लें, लाखों लोगों ने क्रेडिट कार्ड पर ऋण लिया। लेकिन महंगाई बढ़ने या रोजगार जाने जैसी स्थितियों के कारण बहुत से लोग उस कर्ज को समय पर नहीं चुका पाए। तो क्रेडिट कार्ड कंपनी उन पर जुर्माना लगा देगी। इस कारण बिना नया कर्ज लिए उन लोगों को अधिक रकम चुकानी होगी। दूसरी तरफ जब वे लोग क्रेडिट कार्ड बिल का भुगतान करेंगे, तो बिना कोई नया कर्ज दिए क्रेडिट कार्ड कंपनी का मुनाफा बढ़ जाएगा। यह मुनाफा जीडीपी में गिना जाएगा। ऐसे उदाहरण आज की अर्थव्यवस्था में भरे पड़े हैं। तो समझा जा सकता है कि कैसे लाखों लोगों का मुसीबत में फंसना देश के जीडीपी के चमकने का कारण बन जाता है।
इसीलिए यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि जीडीपी बढ़ रही है, तो आखिर यह वृद्धि आ कहां से रही है? यह वृद्धि असल अर्थव्यवस्था से आ रही है, रेंट आधारित कारोबार वाली अर्थव्यवस्था से?
अगर अधिकांश वृद्धि शेयर बाजार, ऋण बाजार, और बॉन्ड बाजार से आ रही हो, तो जाहिर है, उसका आम जन की खुशहाली से कोई संबंध नहीं होगा। असल में उस वृद्धि का एक हिस्सा आम जन की मुसीबत बढ़ने की कीमत पर आएगा।
इसीलिए आज दुनिया भर में जीडीपी के जरिए किसी देश की आर्थिक मजबूती और खुशहाली को मापने के नजरिए पर सवाल उठाए जा रहे हैं। वैसे भी जीडीपी की अवधारणा एक खास संदर्भ में सामने आई थी। तब अमेरिका 1929 से शुरू हुई महामंदी से उबरने की कोशिश कर रहा था। दूसरी तरफ दूसरे विश्व युद्ध खतरा मंडराने लगा था। तब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलीन डिलेनो रुजवेल्ट ने संख्यिकी विशेषज्ञ अर्थशास्त्री सिमोन कुजनेट्स से घरेलू अर्थव्यवस्था की स्थिति को मापने का एक पैमाना तैयार करने का आग्रह किया था।
कुजनेट्स ने अर्थव्यवस्था पर महामंदी के प्रभाव का आकलन किया और उससे उबरने की दिशा में हो रही प्रगति को मापने के लिए देश में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन मूल्य की गणना करने का एक तरीका विकसित किया, जिसे जीडीपी के रूप में जाना गया। लेकिन कुजनेट्स ने आगाह किया था कि जीडीपी आर्थिक नीति निर्माण के लिहाज से एक कमजोर पैमाना है। (Stakeholder Capitalism: A brief history of GDP and its use | World Economic Forum (weforum।org))
कुजनेट्स ने 1934 में अमेरिकी कांग्रेस (संसद) को संबोधित करते हुए चेतावनी दी थी कि सरकार सकल राष्ट्रीय आय या जीडीपी पर अपना ध्यान अति केंद्रित ना करे। उन्होंने कहाः राष्ट्रीय आय मापने के किसी पैमाने के जरिए किसी देश में आम खुशहाली की स्थिति शायद ही समझा जा सकता है। बहरहाल, दूसरे विश्व युद्ध के दौर में एक आर्थिक पैमाने के तौर पर जीडीपी को अंतरराष्ट्रीय मान्यता मिल गई।
विश्व युद्ध के बाद के तीन दशकों को पूंजीवाद का स्वर्णिम युग कहा जाता है। उस दौर में अमेरिका में वास्तविक जीडीपी (मुद्रास्फीति समायोजित) वृद्धि की दौर औसतन पांच प्रतिशत बनी रही। अमेरिका ने इस उपलब्धि को अपनी व्यवस्था के अधिक कुशल और कारगर होने के सबूत के तौर पर दुनिया भर में प्रचारित किया।
लेकिन तब वित्तीय पूंजीवाद अमेरिका या अन्य विकसित देशों की अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा नहीं था। वहां उस समय उत्पादन और वितरण का मजबूत तंत्र था, जिससे आर्थिक वृद्धि के साथ लोगों की आय और जीवन स्तर में भी बढ़ोतरी हो रही थी। मगर नव-उदारवाद के दौर में यह ट्रेंड पलट गया है। इस दौर में आरंभ से ही वास्तविक अर्थव्यवस्था और रेंट आधारित वर्गों की वित्तीय अर्थव्यवस्थाएं अलग-अलग दिशा में जाने लगीं। कोरोना काल में यह फर्क अपने चरम बिंदु पर पहुंच गया। (1980 के बाद के दौर को नव-उदारवाद का काल कहा जाता है।)
इसलिए आज जब भारत जैसे देश में सबसे तेज गति से उभर रही अर्थव्यवस्था की बात होती है, तो उसे उपरोक्त तथ्यों और जीडीपी के बनी नई समझ की रोशनी में ही समझना चाहिए। सर्वाधिक तीव्र वृद्धि गति वाली अर्थव्यवस्था में अगर आम उपभोग गिर रहा है, बहुसंख्यक जनता का जीवन स्तर गिरता जा रहा है, गैर-बराबरी बढ़ रही है, और गरीबी रेखा से ऊपर आए बहुत से लोग फिर से गरीब हो रहे हैं, तो इस कुछ भी असामान्य नहीं है। यह अंतर्विरोध आम वैश्विक ट्रेंड के अनुरूप ही है। अमेरिका से लेकर भारत तक हर जगह एक ही कहानी है।