लालू, नीतीश, अखिलेश कैसे रोकेंगे मोदी का तूफान

लालू, नीतीश, अखिलेश कैसे रोकेंगे मोदी का तूफान

देश के बाकि क्षत्रप नेताओं की तरह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार, अखिलेश यादवसभी इस मुगालते में हैं कि भाजपा ने राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को हराया है, ‘इंडिया’ नहीं हारी है। लालू और नीतीश का दूसरा मुगालता है कि बिहार बाकी राज्यों से अलग है, वहां नरेंद्र मोदी का जादू नहीं चलने वाला है। तीसरा मुगालता है कि जाति गणना का मुद्दा भले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में नहीं चला हो लेकिन बिहार में चलेगा। चौथा भ्रम है कि भाजपा भले कांग्रेस को हरा ले लेकिन प्रादेशिक क्षत्रपों को हराने में उसे मुश्किल आती है। पांचवां भ्रम है कि 2015 के विधानसभा चुनाव में जैसे भाजपा को हराया था उसी तरह 2024 में भी हरा देंगे। इस तरह के और भी कई भ्रम होंगे, जिनके आधार पर राजद, जदयू, कांग्रेस और लेफ्ट पार्टियों का दावा है कि कुछ भी हो जाए भाजपा बिहार में नहीं जीत सकती है। इसलिए दोनों पुराने क्षत्रप इस भरोसे में हैं कि उनको किसी की जरुरत नहीं है। वे अपने जाति गणना और आरक्षण बढ़ाने के मुद्दे पर भाजपा को हरा देंगे। इस वजह से दोनों प्रादेशिक क्षत्रप कांग्रेस को किनारे करने और तीन-चार सीटें देकर निपटाने की राजनीति कर रहे हैं। उनको लग रहा है कि जब राजद और जदयू साथ हैं तो किसी और की जरूरत नहीं है।

लेकिन क्या सचमुच ऐसी स्थिति है? क्या सचमुच बिहार बाकी राज्यों से अलग है या भाजपा प्रादेशिक पार्टियों को नहीं हरा सकती है? क्या 2015 के विधानसभा चुनाव की तरह ही 2024 का लोकसभा चुनाव लड़ा जाएगा? सबसे पहले तो लालू प्रसाद और नीतीश कुमार दोनों को यह समझना होगा कि जब लोकसभा चुनाव की बात आती है तो कोई राज्य अलग नहीं रह जाता है, खास कर उत्तर भारत में हिंदी पट्टी के राज्य। सब एक जैसी लहर में बहते हुए होते हैं। दूसरे, यह भी समझना होगा कि प्रादेशिक क्षत्रप विधानसभा चुनाव में भले भाजपा का मुकाबला कर लेते हों लेकिन लोकसभा चुनाव में मोदी और भाजपा की लहर के आगे कहीं नहीं टिकते हैं। बिहार में छह पार्टियों के गठबंधन की सरकार में शामिल पार्टियों को बिहार के आंकड़ों से ही इसे समझने की जरूरत है।

बिहार में लालू प्रसाद और नीतीश कुमार मिल कर सिर्फ एक बार 2015 में विधानसभा चुनाव लड़े थे। दोनों पार्टियां एक साथ मिल कर कभी लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ी हैं। लेकिन भाजपा एक बार जदयू से अलग होकर भी लोकसभा का चुनाव लड़ चुकी है। यह अलग बात है कि उस समय जदयू और राजद का तालमेल नहीं था। तब राजद और कांग्रेस एक साथ लड़े थे, जबकि जदयू ने लेफ्ट पार्टियों के साथ तालमेल किया था। यह दोनों गठबंधन 40-40 सीटों पर लड़ा था और कुल मिला कर 43 फीसदी वोट मिले थे। जबकि भाजपा और उसके गठबंधन को 40 सीटों पर 39 फीसदी वोट मिले थे और उसने 31 सीटें जीती थीं। इसके बाद 2019 में भाजपा और जदयू मिल कर लड़े थे, जिसमें दोनों पार्टियों ने मिल कर 40 में से 39 सीटें जीत ली थीं। पहली बार यानी 2014 में लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को 20 फीसदी और दूसरी बार यानी 2019 में सिर्फ 15 फीसदी वोट मिले थे। सोचें, राजद का दावा मुस्लिम-यादव के 30 फीसदी वोट का है लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में राजद को सिर्फ 15 फीसदी वोट मिले। जाहिर है, जब लोकसभा चुनाव की बात आती है तो लालू प्रसाद का यादव वोट टूटता है और उसका बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ जाता है। नीतीश भी भाजपा से अलग होकर लड़े थे तो 38 सीटों पर उनको 15 फीसदी वोट मिले थे, लेकिन जब भाजपा के साथ हुए तो 2019 में 17 सीटें लड़ कर ही 21 फीसदी से ज्यादा ले आए।

सो, पहली बात तो यह समझने की है कि लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री चुनने के लिए मतदान करते समय जनता अलग तरह से बरताव करती है और मुख्यमंत्री चुनते समय अलग तरह से। बिहार में लोगों को पता है कि लालू प्रसाद चुनाव नहीं लड़ सकते हैं औऱ तेजस्वी यादव को प्रधानमंत्री नहीं बनना है। नीतीश कुमार भी विपक्ष की ओर से कोई प्रधानमंत्री पद के दावेदार नहीं हैं। इसलिए बिहारी अस्मिता का दांव कितना कारगर होगा यह नहीं कहा जा सकता है। दूसरे, राजद और जदयू पहली बार एक साथ मिल कर लोकसभा का चुनाव लड़ेंगे तो दोनों के बीच सीट बंटवारे को लेकर बड़ी खींचतान है। कई सीटों की अदला-बदली होनी है, जिससे जमीनी समीकरण बदलेगा, जबकि दूसरी ओर भाजपा अपने पुराने सहयोगियों के साथ लड़ेगी।

बिहार में सरकार चला रहे नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को लग रहा है कि जाति गणना का दांव रामबाण नुस्खा है। हालांकि हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में यह मुद्दा नहीं चला और कांग्रेस को वोट नहीं दिला सका। लेकिन राजद और जदयू को लग रहा है कि चूंकि उन्होंने जाति गणना कराई है और लालू, नीतीश मंडल की राजनीति के मसीहा हैं तो उनको फायदा मिलेगा।  पर मुश्किल यह है कि जाति गणना में सबसे बड़ी आबादी 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ी जातियों की है, जिसे राजद और जदयू के राज में सत्ता नहीं मिलेगी। सबको पता है कि मुख्यमंत्री नीतीश  रहेंगे और बाद में तेजस्वी बनेंगे। ध्यान रहे पिछले 33 साल से लालू परिवार से कोई मुख्यमंत्री रहा है या नीतीश रहे हैं। इन दोनों की आबादी 17 फीसदी है। इनके सिस्टम में अत्यंत पिछड़ा के लिए कोई खास जगह नहीं है। दूसरी ओर भाजपा अत्यंत पिछड़ा को चेहरा बना सकती है। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अत्यंत पिछड़ा श्रेणी में आते हैं। नीतीश कुमार ऐलान कर चुके हैं कि अगली बार तेजस्वी मुख्यमंत्री का चेहरा होंगे तो अति पिछड़ों और दलितों के साथ साथ सवर्ण मतदाताओं के मन में भी आशंका है।

यह भी ध्यान रखने की जरुरत है कि लोकसभा का चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर होगा। जनवरी में अयोध्या में राममंदिर के उद्घाटन के साथ ही हिंदुत्व का मुद्दा उभरेगा। दूसरे, भाजपा ने राष्ट्रवाद के मुद्दे को सबसे ऊपर रखा है। तीसरे नरेंद्र मोदी के मजबूत नेतृत्व का प्रचार होगा और जवाब में राहुल गांधी की चर्चा होगी। चौथे, लालू प्रसाद और नीतीश के पिछले 33 साल के राज में बिहार में विकास का नैरेटिव कभी नहीं रहा है, जबकि भाजपा का मुख्य मुद्दा विकास का होगा। पांचवां, भ्रष्टाचार का नैरेटिव ऐसा है, जिस पर राजद को जवाब देना भारी है। आने वाले दिनों में केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई भी तेज होगी। सो, जाति का समीकरण हो, राष्ट्रीय मुद्दा हो, हिंदुत्व का मुद्दा हो या विकास व भ्रष्टाचार का नैरेटिव हो, उनकी काट राजद और जदयू के पास नहीं है। कोई वैकल्पिक नैरेटिव दोनों के पास नहीं है सिवाए इसके कि जाति गणना करा कर आरक्षण बढ़ाया है।

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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