सनातन के अर्थ पर विचार बहुत मुश्किल है। इसलिए भी क्योंकि हम गंवार-असत्य काल (कलियुग) में जी रहे हैं। हम उस वक्त में हैं, जब लोगों की दिमागी चेतना, बुद्धि यह भेद करने में भी असमर्थ है कि जुमलों से अमृतकाल नहीं बना होता। सोचें, भारत की इस इक्कीसवीं सदी पर! भारत के ज्ञात इतिहास में कब पहले ऐसा मूर्खकाल था जब कथित प्रगतिवादी एक वंशानुगत नेता से सुना गया कि सनातन धर्म तो डेंगू, मलेरिया जैसी व्याधियों में एक है। सनातन से असमानता है। सनातन बीमारी है और उसके कारण सामाजिक बुराइयां है। और इस पर फिर हिंदू प्रधानमंत्री का यह स्यापा कि विपक्ष सनातन विरोधी है। और यदि मैं नहीं रहा तो सनातन मिट जाएगा। गुलामी लौट आएगी। और इस पर कथित बुद्धिमना ब्राह्मणगण भी तालियां बजाते हुए!
जाहिर है आस्थाओं, धारणाओं, पूर्वाग्रहों व मूर्खताओं से भरे जुमलों का आज वह गंवारकाल है, जिसके परिवेश और काठ-कबाड़ में सत्य व समझदारी की रत्ती भर गुंजाइश नहीं है!
तभी पहली बात, यह शाश्वत सत्य कि सनातन अमिट है। वह किसी उदयनिधि से न मिट सकता है और न कोई मोदी या संघ परिवार से वह बचेगा या रक्षित होगा या संरक्षित रहेगा! हां, सनातन कालजयी है। वह न धर्म में बंधा है और न धर्म की दुकानों से या पंडितों से उसकी जय है। सनातन सत्स्वंयभू है। उसे न समय विस्मृत, विलुप्त कर सकता है और न वह सीमाबद्ध तथा रूढ़िबद्ध है! वह मानव बुद्धि का आदि प्रारंभ है और मानव अस्तित्व के अंत तक अनंत है। वह मनुष्य सत्य है। मानव चेतना है। वह मनुष्य की बुद्धि और सत्य की अनंत सतत उड़ान, असीम यात्रा का चरैवति, चरैवति है। हम होमो सेपियन की यात्रा में सनातन न नया है और न पुराना। यह तो अतीत, वर्तमान और भविष्य की वह चिरंतन यात्रा का धर्म है जो पूरी मानव सभ्यता की खोपड़ी का वैशिष्टय है। जिसके कारण इंसान 84 करोड़ योनियों के जीव जगत में खास और अलग है। और उसी की वजह से वह पशु नहीं, बल्कि मनुष्य कहलाता है।
ओशो के लिखे इन वाक्यों पर गौर करें, ‘सनातन का मतलब पुराना नहीं होता। सनातन का मतलब होता है कि, जिसका नए और पुराने का कोई अर्थ ही नहीं है, जो सदा है। पुराने का मतलब है जो कभी था। नए का मतलब है जो कभी नहीं था। सनातन का मतलब है जो सदा है। न नया है, न पुराना है। धर्म सनातन है। सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। ध्यान रखना! धर्म सनातन है, सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। क्योंकि सनातन धर्म का तो मतलब होगा कि कुछ सामयिक धर्म भी हैं। सनातन धर्म का मतलब होगा कि कुछ क्षणिक धर्म भी हैं। सनातन धर्म का मतलब होगा कि कुछ असनातन धर्म भी हैं। नहीं, सनातन धर्म जैसी कोई चीज नहीं है। धर्म सनातन है। धर्म का होना ही सनातन है। वह इटरनल है, वह सदा है’।
तभी मानव समाज के ज्ञात इतिहास की कुल समझ और अनुभव में, मेरा मानना है कि भारत का अकेला मूल योगदान यही है जो होमो सेपियन के कृषि जीवन के प्रारंभिक पड़ाव में सिंधु नदीं घाटी के आदि ऋषियों/ विचारकों ने मानव जीवन के सत्य को शिद्दत से खोजा। उसे वेद-उपनिषदों से उद्घाटित किया। इस पृथ्वी का कोई भी अतीत खंगाले, होमो सेपियन की खेती से पहले या बाद में जहां-तहां बनी बस्तियों (फिलस्तीनी क्षेत्र में जेरिको, तुर्की में नौ हजार साल पुरानी कातलहोयुक से लेकर ‘सभ्यता के पालने’ वाले टिगरिस-फरात नदियों का मेसोपोटामिया, सीरिया, लेबनान, मिस्र, तुर्की, ईरान और सिंधु नदी घाटी के पूरे फर्टाइल क्रिसेंट में) की पूरी हकीकत जाने, तो यह सत्य दो टूक उद्घाटित होगा कि मानव चिंतन का पहला ग्रंथ ऋग्वेद है। उस काल में सिंधु नदी घाटी के लोगों ने मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों के जो सत्य बूझे, अपने व प्रकृति के अस्तित्व को जानने के लिए उन्होंने बुद्धि-दिमाग को जैसा दौड़ाया वैसा काम होमो सेपियन के किसी दूसरे सभ्यतागत पालने में नहीं हुआ। तभी दुनिया का कोई सत्यवादी, ज्ञानी वेद और उपनिषद् को नहीं नकारता। इनसे ज्ञात या तय हुए मनुष्य व्यवहार के सनातन मूल्यों का न खंडन है और न विकल्प है।
सोचें, तब ऋषियों/चिंतकों ने प्रकृति के रहस्यों को, उसके सत्य (भूमि, अग्नि, वायु, वरूण, इंद्र, ग्रह-नक्षत्र आदि) को कैसे-कैसे शब्द और नाम दिए। मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते को लेकर कैसी अविलग विश्व दृष्टि बनाई! उसका मान बनाया। उसे आह्वान किया। वह सब बिना मूर्ति पूजा के था। बिना कर्मकांडों के था। उस सतयुग के उपनिषद बाकायदा यह संशय लिए हुए हैं कि ईश्वर के संबंध में कुछ कहा नहीं जा सकता है।
जाहिर है मानव सभ्यता का वह प्रारंभ तब जीवन का अर्थ खोजने पर फोकस लिए हुए था! मतलब जीवन का क्या कोई अर्थ है? मानव क्या करे, कैसे उसका व्यवहार हो, जिससे उसका जीवन बने? तब मनुष्यों के बीच न भेद सोचा गया, न बनाया गया। लेकिन हां, मनुष्य प्रकृति का यह बेसिक सत्य उद्घाटित था कि मानव चेतना, मष्तिष्क प्रतिभा में एकरूपता नहीं होती। जीव जगत के प्राणियों में पशुओं और मनुष्यों का फर्क है कि भेड़, बकरी, भालू, गाय, शेर सभी अपनी चेतना की एकरूपता से प्रजाति के झुंड में समान चाल, गुण और व्यवहार लिए होते हैं वही मनुष्यों का दिमाग असमान मेधा की ऊंच-नीच लिए होता है। सो, व्यक्ति को उसकी तासीर, स्वतंत्रता, और विशिष्टता में जीवन जीने का मौका रहे। जो जैसा है वैसा वह धारे, अपने कर्म और व्यवहार में। वह व्यवहार में पशुओं से अलग हो। अपने खाने-पीने, सोने और भोग (सेक्स), भय में पशुओं जैसा न हो। वह पशुओं से अलग खास जीवन पद्धति लिए हुए हो।
इसी के सदियों चले विचार मंथन में भारतीय सभ्यता के पालने में यह समझा गया कि सब कुछ व्यक्ति की वैयक्तिकता और व्यवहार पर निर्भर है। व्यक्ति और उसके जीने के तरीके में व्यक्ति का विवेक जो करेगा उससे ही मनुष्यों का मंगल या अमंगल है। व्यक्ति यदि बुद्धि, विद्या, सत्य को धारण कर, मनसा-कर्मणा व शरीर से साफ-सुथरा रह कर तथा संयम, धैर्य, क्षमा और अक्रोध के विवेक (बुद्धि, सत्य, विद्या, विग्रह, धृति, क्षमा, दम, शौच, अस्तेय, इंद्रिय निग्रह और अक्रोध) में जिंदगी जीयेगा तो बतौर मनुष्य उसका जीवन सार्थक होगा। वह अपने विवेक (बुद्धि) में इन मूल्यों को धारे रह कर, जिंदगी के मौके के सफर को, वर्तमान को सही बनाए रखे तो वह उसका पुण्य, उसकी सद्गति। यही जीवन का दर्शन और यही उसका धर्म। व्यक्ति की स्वतंत्रता, वैयक्तिकता के विवेक से वर्तमान का जीवन सफर ही अंततः समग्र मानव समाज का भविष्य।
यह मंथन, यह खोज, यह सनातन मूल्यवत्ता वेद-उपनिषद् काल के बाद ग्रंथों में व्यापक धर्म के रूप में उल्लेखित हुई। पर इसे कुछ भी कहें। चाहे तो सनातन मूल्य, सनातन मूल्यवत्ता, सनातन धर्म या संस्कार और वैल्यूज। कोई भले आज इस सनातन विचार को कोरोना वायरस कहे या डेंगू, मलेरिया जैसी व्याधियां। मगर दुनिया का कौन सा मनुष्य भला बुद्धि, सत्य, विद्या, विग्रह, धृति, क्षमा, दम, शौच, अस्तेय, इंद्रिय निग्रह और अक्रोध को बतौर मानव टॉनिक आत्मसात नहीं करना चाहेगा? क्या ये सभी बाद में तमाम सभ्यताओं ने नहीं अपनाए? इन्हें नकार कर, इन्हें खारिज करके कोई मनुष्य यदि जिंदगी जीयेगा तो क्या वह पशु, जंगली, राक्षस, अमानुष नहीं कहलाएगा?
आनंद कुमार स्वामी ने “हिंदुइज्म एंड बुद्धिज्म” में लिखा है, ‘भारतीय परंपरा एक प्रकार की सनातन जीवन परंपरा का एक रूप है। वह ऐसे सनातन विश्वजनीय सत्यों को आत्मसात किए हुए है, जिन्हें किसी काल में कोई भी समुदाय केवल अपना नहीं कह सकता। हिंदू इसलिए हमेशा तैयार रहता है कि उसके पवित्र ग्रंथों का उपयोग दूसरे करें और अपने सत्य के बोध के लिए अतिरिक्त एंव संभाव्य प्रसारण के रूप में इसे रखें। पर हिंदू साथ ही यह भी कहेगा कि संस्कृतियों की सहमति की बात शाश्वत सत्य की ऊंचाइयों पर ही संभव है’।
सही बात है कि ये सनातन मूल्य सभी धर्मों और सभ्यताओं ने अपनाए हैं। इसलिए क्योंकि मानव दिमाग की नींव, होमो सेपियन की चैतन्यता का पालना तो एक ही है। धर्म और समाज तो बाद में गठित है। जेरिको, कातलहोयुक, मेसोपोटामिया, सिंधु नदी घाटी के समय में धर्म नहीं था। किसी संगठित धर्म का तो खैर सवाल नहीं। मनुष्य की खोपड़ी का चैतन्य होना और उससे फिर सनातन सत्य ज्ञात होना धर्म से पहले की बात है। मनुष्य को पहले सनातन मूल्यों का बोध हुआ। फिर उन्हें धारण करने, मानने को धर्म बताया गया। वह भी स्वेच्छा से बिना सगंठित धर्म और उसके डंडे के।
सनातन, हर काल की कसौटी में खरा!
सो, सनातन सत्य आदि ऋषियों के चिंतन-मनन, वेद-उपनिषदों से है। इन्हें यदि मैंने, आपने करोड़ों करोड़ लोगों ने सदियों से दूध में शक्कर की तरह सदा, सर्वत्र धारा हुआ है, आत्मसात किया हुआ है तो यह नैसर्गिक और कालजयी है। सही है कि बुद्ध के बाद भारत के कलियुग में देश, काल, कुल की बनी प्रचलित प्रथाओं, परंपराओं, कर्मकांडों के तात्कालिक विशेष धर्म और मान्यताओं में हम भारतीय पतनगामी हुए। हमारा भ्रष्ट-गुलाम-पुरातनपंथी व्यवहार बना। व्यक्तियों की वैयक्तिकता की जगह जात, समाज से हम भ्रष्ट हुए तो ऐसा होना सनातन मूल्यों (या सनातन शाश्वत मूल्यों के धर्म बोध) की वजह से नहीं था, बल्कि वक्त और व्यक्ति के परिवेश, क्षणिक लोक धर्म, मान्यताओं से था।
बावजूद इसके वैयक्तिक भारतीय मानस ने न्यूनतम अनुपात में ही सही सनातन व्यवहार को धारे रखा। सनातन मूल्य मिटे नहीं। भारत के लोग दूसरी मान्यताओं, दूसरे धर्मों में वैसे धर्मांतरित नहीं हुए जैसे दुनिया में बाकी जगह हुए। इसलिए क्योंकि सनातन का बीज पीढ़ी-दर-पीढ़ी चुपचाप ट्रांसफर होते हुए था। घर-परिवारों में यह आग्रह बना रहा कि बुद्धि, सत्य, विद्या, विग्रह, धृति, क्षमा, दम, शौच, अस्तेय, इंद्रिय निग्रह और अक्रोध को पकड़े रहो नहीं तो अमानुष हो जाएंगे। विधर्मियों जैसे हो जाएंगे।
सब बातों को एक तरफ करें, इतना भर सोचें कि होमो सेपियन विकास में शिकार-पशुपालन अवस्था के बाद पृथ्वी की किन बस्तियों या सभ्यताओं के मुहानों पर दिमाग, बुद्धि से जीवन के अर्थ खोजने का वह चिंतन-मनन हुआ जैसा वेद-उपनिषद् रचने का साक्ष्य है? एक सत्य और! अब्राहम की संतानों, यहूदी, ईसाई, इस्लाम से पहले की मानव बुद्धि के सत्य में मेसोपोटामिया, यूनानियों, चाइनीज के चिंतन मनन के तमाम झरने क्या किसी भी पैमाने में हिमालय की वेद-उपनिषद् गंगोत्री के आगे कहीं टिकते हैं?
वेद वेदांगों और उपनिषदों को जरा व्यवहार के धरातल पर ले जाएं। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की बस्तियों के साक्ष्य को देखें। पुरात्वविज्ञों की प्रारंभिक खोज और डीएनएजन्य ताजा वैज्ञानिक प्रमाणों से जाहिर है कि हड़प्पा-मोहनजोदड़ो की सनातन (यदि मानें तो) नगरीय व्यवस्था में न राजा था और न वर्ग-वर्ण था। सभी के नहाने का एक स्थान सामूहिक स्नानगृह था। डीएनए पड़ताल से आर्य बनाम अनार्य के कथित भेद, लड़ाई की धारणाएं अब गलत साबित हैं (दुर्भाग्य जो इस पर लिखित झूठे इतिहास पर पुनर्लेखन के लिए कोई भी समझदार ज्ञानी काम करता हुआ नहीं है)।
दूसरा सत्य। ओशो की इन पंक्तियों पर गौर करें, ‘हमने जैसा मनुष्य की चेतना को चमकाया था और हमने जैसे दीये उसके भीतर जलाए थे, जैसे फूल हमने उसके भीतर खिलाए थे, जैसी सुगंध हमने उसमें उपजाई थी, वैसी दुनिया में कोई भी नहीं कर सका था। यह कोई दस हजार साल पुरानी सतत साधना है, सतत योग है, सतत ध्यान है। हमने इसके लिए और सब कुछ खो दिया। हमने इसके लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया।…भारत है एक अभिप्सा, एक प्यास..सत्य को पा लेने की। उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। वह जो हमारा होकर भी हमसे भूल गया है। उसका पुनर्स्मरण, उसकी पुनरुद्घोषणा भारत है।…..भारत में सत्य की एक परिभाषा है—जो काल में टिके। तीन काल में टिके। तीन काल में जिसका खंडन न हो। जो पहले भी था, अब भी है, और फिर भी होगा, वही सत्य है। जो कल नहीं था, अब है, और फिर नहीं होगा, भारत उसे असत्य कहता है’।
तो क्या न मानें कि जो पहले भी था, अब भी है, और फिर भी होगा, वही सनातन और सत्य है। दरअसल सनातनता वह बौद्धिक अनु्ष्ठान है, जिसमें हर व्यक्ति, हर मनुष्य अपने विवेक में अपना सत्य, अपने सनातन बीज अंकुरित किए हुए होता है। ऐसा सहस्त्राब्दियों से होता हुआ है तभी सिर्फ हम हैं इस पृथ्वी पर जिनकी हस्ती मिटी नहीं। और मेरा मानना है यही वह सत्व-तत्व है, जिसकी वजह से समय और परिस्थितियों से जनित प्रथाओं, परंपराओं से सत्यानाश के बावजूद वैयक्तिक व्यवहार सनातन मूल्यों की चिरंतन पटरी से उतरा नहीं।
यहा मेरा जोर ‘व्यक्ति’ और उसके सनातन मूल्यों के उन बौद्धिक अनुष्ठानों पर है जो समाज, धर्म याकि विशेष धर्म, हिंदू धर्म, प्रथाओं-कर्मकांडों-परंपराओं से परे के प्रारंभिक विचारकों-ऋषि-मुनियों की साधना से है, जिन्होने व्यक्ति और जीवन के मायनों के सत्य जानने की अलख जगाई। कोई माने या न माने सनातन परंपरा के प्रारंभिक बौद्धिक बीजारोपणों का ही नतीजा है जो बकौल ओशो, ‘भारत है एक अभिप्सा, एक प्यास..सत्य को पा लेने की। उस सत्य को, जो हमारे हृदय की धड़कन-धड़कन में बसा है। उस सत्य को, जो हमारी चेतना की तहों में सोया है। वह जो हमारा होकर भी हमसे भूल गया है। उसका पुनर्स्मरण, उसकी पुनरुद्घोषणा भारत है’। वही बकौल टीएस एलियट, ‘भारतीय दार्शनिकों की चिंतन बारीकियों के आगे यूरोप के अधिकांश महान दार्शनिक स्कूल के बच्चों जैसे लगते हैं’। (Indian philosophers subtleties make most of the great European philosophers look like school boys.)
और चिंतन का कोर था क्या करणीय और क्या अकरणीय? प्रेय या श्रेय? जवाब में दारोमदार मनुष्य के वैयक्तिक जीवन पर। अर्जुन क्या करें और क्या न करें? परिवार, वंश, समाज, देश बाद की बात पहले व्यक्ति पर यह विचार- किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः (करणीय क्या अकरणीय क्या?) सो, ‘हिंदू चितना यह है कि यह तुम्हारा संकल्प है। न तुम्हारा पाप है, न किसी ने तुम्हें दंड दिया है, न कोई दंड देने वाला बैठा है’।
इस चिंतन में जहां वेद-उपनिषद् के रचियता थे तो आस्तिक बनाम नास्तिक जीवन दर्शन, भौतिकवादी वृहस्पति, चार्वाक (धर्म हिमायती और धर्म विरोधी) भी थे। उनके बाद फिर तमाम तीर्थकरों, बुद्ध से लेकर मध्यकाल के कबीर से पिछली सदी के महर्षि रमण, अरविंद, जे कृष्णमूर्ति, ओशो आदि असंख्य चिंतकों का सतत-चिरंतन मंथन इसी धुरी पर हुआ है कि मनुष्य चेतना वह विराट क्षेत्र है, जिसमें विचारों का फैला है, खेला है। सो, समझो, बूझो कि जीवन को कैसे जीयें, ऐसे जीयें या वैसे! ऐसा बाकी सभ्यताओं में बाद में हुआ और फिर संगठित धर्म के खांचों में व किसी एक पैगम्बर के कहे से हुआ। सामूहिक भेड़ व्यवस्थाएं बनी। कथित भाईचारा, ब्रदरहुड भेडों का बाडा और उसे गडरियों द्वारा हांका जाना। सचमुच बाकी मानव सभ्यताओं का विकास या तो सगंठित धर्म की सेना वाला था या अनुचरों, प्रचारकों, प्रसारको का। वे हमलावर हुए और सदा-सदा के लिए जीवन को जेहाद और जन्नत के मशीनी ख्यालों में ऐसे गुजारा या गुजार रहे हैं कि भविष्य की मशीनी बुद्धि भी संभवतया ऐसा नहीं करने वाली।
विषयांतर हो रहा है। पते की बात है कि सनातन को धारे रखने वाले हम लोग गुलामी की दीन-हीन अवस्था के बावजूद उस वैयक्तिक स्वतंत्रता में जीते आए हैं, जिसके चलते हम संगठित धर्म की आज्ञाओं, फरमानों, फतवों और अनुशासनों से आजाद रहे हैं। शायद यही वह वजह थी, जिससे जीने की हमारी जीवन पद्धति के आगे बाहरी धर्म की तलवारें निष्प्रभावी हुईं!
बात व्यापक हो गई है। मेरा आग्रह है हम भारतीय अपने प्रत्यक्ष वंशानुगत अनुभवों पर सोचें। सोचें हम कैसे अपने आप जीवन का सनातन व्यवहार व धर्म धारे होते हैं। मैं अपनी चार पीढ़ी के वंशानुगत सनातनी व्यवहार का गवाह हूं। मेरे दादा दामोदर शास्त्री संस्कृत अध्यापक थे। 1947 से पहले उन्होंने रायला गांव से काशी जा कर संस्कृत पढ़ी। वे मालवा में कथावाचन करते थे। सरकारी स्कूल में अध्यापक हुए। समय और परिवेश से घोर कर्मकांडी व पुरातनपंथी थे। बावजूद इसके स्थान व सुविधा न होते हुए भी चारों बेटों को शिक्षा दिलाई। डंडे मार कर पढ़ाने के आदी थे। बावजूद इसके दिमागी भिन्नता में चारों का भिन्न स्वतंत्र वैयक्तिक जीवन बना। एक संस्कृत शिक्षक और कांग्रेसवादी। दूसरा मजिस्ट्रेट और घर से बागी। तीसरे मेरे पिता प्राइवेट कंपनी में नौकरीपेशा और पहले लोकसभा चुनाव में रामराज्य परिषद् की राजनीति करते हुए। खुद ने भी परिषद् की ओर से सूर्य के निशान पर चुनाव लड़ा। चौथा भाई गांव में पंडिताई का संतोषी जीवन जीने वाला। मैंने अपने पिता को कभी जनेऊ पहने नहीं देखा। मेरा यज्ञोपवित संस्कार ननिहाल में हुआ। मेरी व मेरे पिता की समय चेतना और व्यवहार में जनेऊ जैसे विलुप्त हुई, जैसा कर्मकांडविहीन जीवन व्यवहार बना, उस पर आज मैं जब सोचता हूं तो हैरानी होती है कि परंपरावादी कुनबे में सब कैसे वक्त की धारा में अनजाने में बदला। पोशाक बदली, शौच-संध्या बदली, समुद्र यात्रा मान्य हुई। विदेश जा बसे।
इसे चाहे आधुनिक बनना कहें, धर्मभ्रष्टता कहें लेकिन मेरे समाने परिवार की दूसरी पीढ़ी ही वह बहुत कुछ छोड़ बैठी जो पहली पीढ़ी के हिंदू होने के लक्षण थे। मेरे नाना, दादा, पिता ने और मैंने अपने बेटे-बेटी से कभी यह जिद्द नहीं की कि मंदिर जाओ, व्रत-उपवास करो। जनेऊ पहनो, चोटी रखो। ऐसे खाओ, वैसा व्यवहार करो। छुआछूत करो या ऊंच-नीच का ध्यान रखो। कोई न माने इस बात को लेकिन मेरा जाति बोध दिल्ली आ कर, राजनीति का हिसाब-किताब जान कर बना। कॉलेज के वक्त मुझे यह कतई बोध नहीं था कि कॉलेज की राजनीति का सोलंकी राजपूत है और वह खटीक पहलवान दलित! मेरी मां बहुत धर्मपरायण और आस्थावान थी। खूब व्रत-उपवास करती थी। लेकिन मेरे अंतःकरण ने कभी इन बातों को आत्मसात नहीं किया लेकिन मन उन सभी बातों में ढला रहा, जिनका सनातन आग्रह है।
मेरी जिंदगी पढ़ने-लिखने व पत्रकारिता में रमी। दिल्ली रह कर दिल्ली और दुनिया देखी पर मुझे कभी जंचा नहीं कि मैं शराब पींऊ, नॉनवेज खांऊ। वह कुछ करूं जो दामोदार शास्त्री के परिवार के सनातनी जीवन में पहले कभी नहीं हुआ। मैंने अपने बेटे-बेटी को पढ़ने-खेलने के लिए विदेश भेजा। श्रुति ने ब्रिटेन में सेंट एंड्रूयज में पढ़ कर मास्टर किया। अभी भी विदेशी सहपाठियों से उसकी सर्वाधिक अभिन्नता है। पर इस सबके साथ सबका वह भाव है, वह व्यवहार है जो सनातन धर्म के सहज-सरल मूल्य है। जीवन का स्पंदन वह स्वंयस्फूर्त सनातन है, जिसमें किसी से वैर नहीं, हर विचार, हर धारा का सम्मान। न मुझे मंदिर जाना है और न आस्था दिखानी है और न परंपरा और प्रथा से चिपके रहना है।
और ऐसा हर उस भारतीय के साथ है जो वंशानुगत सनातनी परिवेश में पला और बढ़ा हुआ है। वह ऋषि सुनक हो या अमेरिका का कोई एनआरआई सीईओ या प्रोफेसर, सभी का जीवन सनातन सहजता से खिला हुआ और बेगाने समाज में भी स्वीकार्यता बनवाए हुए है। सोचें, नरेंद्र मोदी और ऋषि सुनक के फर्क पर! किसका व्यवहार सनातन मूल्य का सहज बोध करवाता है? सहज सनातन चैतन्यता समय, परिवेश और परिस्थितियों में किसी भी भारतीय को परदेश में किसी भी मायने में असमर्थ, कुंठित नहीं बनाती बल्कि आत्मविश्वास से भरापूरा बनाती है। वह बेधड़क बड़ी-बड़ी कंपनियों की कमान का सामर्थ्य बनाती है। मेरा मानना है कि ऐसा हर उस मनुष्य परिवार का व्यवहारगत अनुभव होगा जो संगठित धर्म और समाज से ऊपर उठा जीवन जीता है। इनका जीवन वेद, स्मृति, सदाचार और अपनी आत्मा याकि बुद्धि, सत्य, विद्या की मनभावकता के सनातन मूल्यों को धारे होता है,आत्मसात किए हुए होता हैं। और वह मनुष्यता का उनका साक्ष्य है। पशुओं से उनकी भिन्नता है। तभी किसी सनातनी को रत्ती भर यह चिंता नहीं करनी चाहिए की किसी उदयनिधि से उसका सनातन धर्म, व्यवहार खत्म होगा या किसी नरेंद्र मोदी से उसकी सनातनता बचेगी।