नाटो देशों के शासक लिथुआनिया की राजधानी विल्नुस में जुटना शुरू हो गए हैं। उनकी शिखर बैठक 11 जुलाई से शुरू हो रही है। दो दिन की बैठक में कई अहम फैसले लिए जाने हैं, जिनका पूरी दुनिया पर असर पड़ेगा। बैठक में इस सैनिक जमावड़े में नए सदस्य शामिल करने पर भी विचार होगा। स्वीडन लंबे समय से नाटो का दरवाजा खटखटा रहा है।
इस बैठक का पूरी दुनिया पर इसलिए असर पड़ेगा क्योंकि इसमें यूक्रेन के बारे में कई फैसले लिए जाने हैं। यूक्रेन को नाटो में शामिल किया जाए या नहीं और यह भी कि क्या यूक्रेन को कई प्रतिबंधित हथियार देने का अमेरिका का निर्णय उचित है। ये वे हथियार हैं, जिन्हें अमेरिका के मित्र देश, कीव को नहीं देना चाहते। जाहिर है कि इन मसलों पर जो भी निर्णय लिया जाएगा वह युद्ध के भविष्य पर असर डालेगा। इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस बैठक में यह तय होगा कि अपने 31 सदस्य देशों की रक्षा करने और वैश्विक भू-राजनीतिक व्यवस्था को आकार देने के अपने सबसे अहम उद्देश्यों के बारे में नाटो एकमत है या नहीं। नए देशों को नाटो की सदस्यता देने और यूक्रेन को सैनिक सहायता उपलब्ध करवाने के मुद्दे पर नाटो के सदस्य देशों में मतभेद हैं, यह तो जगजाहिर है ही।
अमेरिका और जर्मनी यूक्रेन को नाटो की सदस्यता दिए जाने के इच्छुक नहीं हैं तो ब्रिटेन और फ्रांस उसके पक्ष में मुहिम चला रहे हैं। तुर्की चाहता है कि यूक्रेन नाटो में शामिल हो परंतु स्वीडन नहीं। यूक्रेन ने विल्नुस में इकठ्ठा नेताओं को अपनी इच्छा बता दी है। यूक्रेन की फरमाईश है कि उसे सदस्य बनने के लिए बाकायदा आमंत्रित किया जाए। हालांकि यूक्रेन को भी पता है कि उसकी यह इच्छा पूरी होना काफी मुश्किल है।
यहां यह साफ कर देना जरूरी है कि यूक्रेन तुरंत नाटो की सदस्यता नहीं चाहता। वहां के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की भी मानते हैं कि यूक्रेन को युद्ध खत्म होने के बाद ही नाटो में शामिल होना चाहिए। वे नहीं चाहते कि नाटो संधि की धारा पांच के अंतर्गत अन्य देश भी इस युद्ध में शामिल होने पर मजबूर हो जाएं। यूक्रेन चाहता केवल यह है कि उसे न्योता मिल जाए ताकि कथित “रणनीतिक अस्पष्टता” समाप्त हो सके। यह “अस्पष्टता” सन 2008 में रोमानिया के बुखारेस्ट में हुई नाटो शिखर बैठक से जारी है। उस समय नाटो ने यह तय किया था कि यूक्रेन को सदस्य बनाया जाएगा परंतु कब और कैसे यह नहीं बताया गया था। यूक्रेन की मंजिल तय थी परंतु सफर पर किस दिन निकलना है यह तय नहीं था। इस कारण यूक्रेन बुरी तरह फंस गया और अंततः पुतिन ने उस पर चढ़ाई कर दी। अब अगर यूक्रेन को न्योता भी नहीं मिलता तो उसे पुतिन की जीत समझा जाएगा। इससे ऐसा भी लगेगा कि पुतिन नाटो के विस्तार को वीटो कर सकते हैं। इससे यह संदेश भी जाएगा कि दूसरे देशों से युद्ध छेड़ने और पराई भूमि पर कब्जा करने की उनकी नीति काम करती है।
इस टालमटोल व अनिश्चितता ने बाल्टिक देशों को और सशंकित कर दिया है। फिर चीन का मसला तो है ही। ताइवान भी एक सिरदर्द है। यूक्रेन पर रूसी हमले और रूस और चीन की गहरी होती दोस्ती के चलते कई एक्सपर्ट्स और टिप्पणीकार यूक्रेन और ताइवान को एक-दूसरे से जोड़ने लगे हैं। हालांकि वे इस बारे में साफ नहीं हैं कि दोनों में से किसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए और यह भी कि वे किस प्रकार एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। कुछ ज्ञानियों का मानना है कि अमेरिका को यूक्रेन की बजाय ताइवान को ज्यादा अहमियत देनी चाहिए और यूक्रेन को मदद सीमित कर, ताइवान पर फोकस करना चाहिए। दूसरी ओर, अन्य पंडितों का कहना है कि यूक्रेन को साथ इसलिए किया जाना चाहिए क्योंकि अगर ऐसा नहीं किया गया तो चीन की हिम्मत बढ़ जाएगी और उसे लगने लगेगा कि वह ताइवान को निगल सकता है। यह विशेषकर अमेरिका के बारे में सही है क्योंकि फरवरी 2022 के पहले तक वह यूक्रेन की बजाय ताइवान के बचाव में ज्यादा खड़ा दिखता था।
इसमें कोई शक नहीं कि नाटो शिखर बैठक महत्वपूर्ण होगी। अमेरिका में अगले साल चुनाव हैं और यह डर है कि डोनाल्ड ट्रंप एक बार फिर सत्ता में आ सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो अमेरिकी विदेश नीति का पेंडुलम उलटी दिशा में खिसक जाएगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि रूस और यूक्रेन के युद्ध ने यह भी साबित कर दिया है कि यूरोप के देश अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भर हैं।
अमेरिका में चुनाव से यह तो तय होगा ही कि वो यूक्रेन को समर्थन देना जारी रखेगा या नहीं। साथ ही नवंबर 2024 में यह भी तय हो जाएगा कि खुद नाटो का भविष्य क्या होगा और अटलांटिक के दोनों छोरों के देशों में हिंद प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा संबंधी चुनौतियों से निपटने पर एकमत बन पाएगा या नहीं। शिखर बैठक में कई निर्णायक फैसले किए जाने हैं। इस हफ्ते, विल्नुस पर दुनिया की नजर होगी।