मंगलवार यानी सात मई को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही थी तो ऐसा लग रहा था कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को जमानत मिल जाएगी। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस दिपांकर दत्ता की बेंच जमानत की शर्तें तय कर रही थी। अदालत की ओर से कहा गया कि केजरीवाल अंतरिम जमानत पर बाहर निकलेंगे तो सरकारी कामकाज नहीं करेंगे। केजरीवाल की कानूनी टीम इसके लिए तैयार थी। लेकिन उसी समय केंद्र सरकार के नंबर दो कानूनी अधिकारी यानी सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता ईडी की ओर से खड़े हुए और उन्होंने इसका विरोध किया। केजरीवाल की जमानत का विरोध करते हुए तुषार मेहता ने जो तर्क दिए वे बहुत दिलचस्प हैं। उन्होंने सर्वोच्च अदालत की इस बात का विरोध किया कि लोकसभा चुनाव पांच साल में एक बार होते हैं और यह अभूतपूर्व है कि दिल्ली के चुने हुए मुख्यमंत्री जेल में हैं। अदालत ने कहा था कि अगर चुनाव नहीं होते तो अंतरिम जमानत पर विचार ही नहीं होता।
इस पर तुषार मेहता ने कहा कि अदालत नेताओं के लिए आम लोगों से अलग श्रेणी न बनाए। उन्होंने कहा कि क्या जेल में बंद किसान को फसल का सीजन आने के नाम पर जमानत मिल सकती है या कोई कारोबारी कहे कि उसे बोर्ड की मीटिंग में शामिल होना है तो उसे जमानत मिल जाएगी? यह बिल्कुल मूर्खता की सीमा रेखा को छूने वाले तर्क हैं। यह सेब की तुलना संतरे से करने जैसा है। क्या तुषार मेहता को पता नहीं है कि विशेष स्थितियों में सभी के लिए अदालतें अपवाद बनाती हैं? अगर ताजा मामला देखें तो झारखंड हाई कोर्ट ने हेमंत सोरेन को उनके चाचा के श्राद्ध कर्म में शामिल होने के लिए जमानत दी है। दिल्ली की अदालत ने मनीष सिसोदिया को अपनी बीमार पत्नी से मिलने की इजाजत दी है। सर्वोच्च अदालत ने नरेश गोयल को इलाज के लिए जमानत दी है। सोचें, पांच साल पर होने वाले चुनाव में प्रचार के लिए एक चुने हुए मुख्यमंत्री को अंतरिम जमानत देने के मामले में तुषार मेहता कारोबारी की बोर्ड मीटिंग और किसान की फसल बुवाई की मिसाल खोज लाए! बहरहाल, तर्क तो बेकार के थे लेकिन उसी पर केजरीवाल की जमानत रूक गई।