भोपाल। मंच पर रोशनी होती है और नाटक की नायिका प्रवेश लेती है। प्रवेश लेते ही वह दर्शकों से एकालाप करने लगती है। लगभग डे़ढ़ घंटे तक न रोशनी बंद होती है और न नायिका का एक्जिट होता है। एक ही कास्ट्यूम में वह अपनी कहानी धाराप्रवाह सुनाती रहती है। ‘गुडम्बा’ नामक इस एक पात्रीय नाटक में नायिका लुबना सलीम ने अभिनय का हर अध्याय को बेहद कुशलता के साथ प्रस्तुत कर दिया। salim arif gudamba
मध्यमवर्गीय परिवार की 18 साल की लड़की से 42 साल की उम्र में सास बनने के बाद तक के जीवन के हर पहलू को उन्होंने इतनी खूबसूरती से पेश किया कि दर्शकों के लिये पलक झपकाना भी मुिश्कल हो रहा था। उसकी जीवन यात्रा के अलग-अलग मोड़ पर पिता है, पति है, सास है, ननद है, ससुर है, दोस्त है और भी पात्र हैं और इन सब पात्रों को लुबना ने ऐसा जिया है कि हर पात्र मंच पर उपस्थित नहीं होते हुए भी सजीव उपस्थित लगता है।
अमीना के बालिग यानी 18 साल की होते ही उसके पिता उसकी शादी तय कर देते हैं। शादी करने नहीं करने को लेकर बाप बेटी में छोटी तकरार होती है जो इतनी दिलचस्प है जो नाटककार के सिद्धहस्त होने को दिखाता है। पूरा नाटक चुटीले लेकिन बेहद अर्थपूर्ण संवादों के साथ आगे बढ़ता है। अमीना पहले तो शादी करने से इंकार करती है लेकिन अपनी सहेली दीपा की मदद से अपने होने वाले शौहर माजिद को देखकर उस पर इतनी मोहित हो जाती है कि उसमें उसे अपना सलमान खान दिखता है। उसका वैवाहिक जीवन वैसा खुशहाल नहीं रहता जैसा उसने सोचा था। अपनी पसंद से शादी करने के कारण उसकी ननद से उसके ससुराल वाले उससे नाता तोड़ लेते हैं और वह त्रासदभरा जीवन जीती है। पति माजिद किसी और लड़की से इश्क करने लगता है। अमीना का लड़का भी माँ-बाप को बताये बिना शादी कर बहू घर ले आता है। अमीना कहती है ”मुझे 42 साल की कमसिन उम्र में ही सास बना दिया।“
यह नाटक मध्यमवर्गीय परिवार में घरेलू हालातों को जीती हुई अमीना के जरिये समाज में महिलाओं की स्थिति और बदलते सामाजिक मूल्यों से उपजी विसंगतियों का तर्कपूर्ण समाधान प्रस्तुत करता है। नाटककार बहू से सास बनी अमीना के जरिये सास बहू के रिश्तों के तनाव और समझदारी के साथ उससे उबरने का बेहतरीन रास्ता दिखाता है। साथ ही महिला सशक्तीकरण के नाम पर हो रहे ढोंग की पड़ताल करते हुए समाज में महिलाओं की स्थिति की वास्तविकता को उजागर करता है। सबसे अच्छा यह कि नाटककार यह सब बिना किसी उपदेष, नारे या फतवे के, बेहद दिलचस्प स्थितियों का निर्माण करते हुए चुटीले संवादों के माध्यम से कर जाता है।
नाटक का नाम ’गुडम्बा’ चैंकाता है यह ’गुडम्बा’ क्या होता है। सलीम भाई ने जब फोन पर बताया कि भारतरंग महोत्सव में श्रीराम सेंटर दिल्ली में गुडम्बा नाटक प्रदर्षित होगा तब मैं भी इसका अर्थ नहीं समझ पाया था और नाटक देखने का मेरा आकर्षण और बढ़ गया था। सास के मुंह से यह नाम सुनकर अमीना भी चैंक जाती है। तब सास समझाती है कि गुड़ या शक्कर की चासनी में कच्चे आम को पकाने से बनने वाली यह एक रेसिपी है जो न मीठा होता और न खट्टा। नाटककार ने मध्यम वर्गीय परिवार की महिलाओं को गुडम्बा के प्रतीक में ढालकर यह नाटक तैयार किया। नाटक की नायिका अमीना कहती है कि क्या हम लोगों की जिंदगी गुडम्बा की तरह नहीं है? और यही नाटक समाप्त होता है। एक रेसिपी को प्रतीक बनाकर मध्यवर्गीय परिवार का बेहद वास्तविक चित्रण जावेद सिद्धीकी जैसे सिद्धहस्त नाटककार ही कर सकते हैं। नाटक के संवादों को सुनते हुए हर एक दर्षक महसूस करता है कि यह तो उसके अपने घर परिवार की कहानी है। यह नाटक उन्होंने विषेष रूप से अपनी बेटी लुबना सलीम के लिये लिखा और उन्होंने इसे उसके जन्म दिन पर उपहार के रूप में दिया था।
बेहद प्रतिभाशाली अभिनेत्री लुबना अपने तीन दषक की रंगयात्रा में पौराणिक से लेकर आधुनिक तक कई तरह की भूमिका निभा चुकी थी। वह अब कुछ नया चरित्र करना चाहती थी जो आज का हो। कुछ नाटककारों से उन्होंने इस बावत बात भी की और आखिर में उन्हें वह मनचाहा चरित्र वाला नाटक पिता जावेद सिद्दीकी साहब से मिला। नाटक की मुख्य पात्र अमीना की कहानी उसके किषोरवय में विवाह से शुरू होती है। एक खुशहाल जिंदगी का सपना संजोये अमीना की जिंदगी में खुशहाली के बजाय तरह-तरह के मोड़ आते हैं लेकिन खुशहाली नहीं मिलने पर वह रोती कलपती नहीं है बल्कि अपने आप में बदलाव लाते हुए आधुनिक व परिपक्व होती है। वह यह मानने लगती है कि हर महिला का अपना अस्तित्व है, अपने विचार हैं और उसे बदलने के बजाय उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। यही महिला की स्वतंत्रता, उसका सशक्तीकरण है। अमीना का चरित्र निभाना वह भी एकल अभिनय में, बेहद चुनौती पूर्ण था।
अमीना के चरित्र में निरंतर बदलाव होता रहता है जो उसे क्रमषः किषोरी से परिपक्व महिला बनाते है। चरित्र के हर बदलाव को लुबना सलीम ने संपूर्णता के साथ सहज रूप से जिया है। उनकी भावाभिव्यक्ति और संवाद अदायगी ने नाटक को अद्वितीय बना दिया। जो रवानगी नाटक के संवादों में है वही रवानगी लुबना के अभिनय में दिखता है। नाटक की प्रस्तुति में सेट, लाइट, म्युजिक, कास्ट्यूम सभी की महत्वपूर्ण भूमिका होती है लेकिन एक्टर का अभिनय लुबना सलीम जैसा हो तो दर्षक इन सबको छोड़ अभिनय में खो जाता है। लुबना के अभिनय मंे इतना वेरियेशन, इतनी सहजता, इतना आकर्षण कि था उस पर से निगाहें हटाना संभव नहीं था।
यह नाटक तीन बेहद प्रतिभाषाली सृजनकर्ताओं का संगम है। फिल्मों के लेखक और पटकथाकार जावेद सिद्दीकी साहब जैसा नाटककार मुझे लगता है शायद ही कोई और हो। आमतौर पर नाटककार नाटक लिखता है लेकिन जावेद साहब नाटक की पटकथा लिखते हैं, यानी नाट्य मंचन वाला नाटक लिखते हैं। यह नाटक भी उसी शैली में लिखा है। उन्होंने एक दर्जन से अधिक नाटक दिये हैं जिनका मंचन दुनिया भर में होता रहा है। एनएसडी से निकले सलीम आरिफ पिछले तीन दशक से अधिक समय से नाट्य निदेशन, अभिनय और डिजाइन करते रहे हैं और ’गालिब नामा’ आपकी सोनिया, ताजमहल का उद्घाटन, दिले नादान, विरासत, श्यामरंग जैसे कई बेहतरीन नाटक उन्होंने रंगमंच को दिया है।
लुबना बचपन से ही रंगमंच से जुड़ी रही है और कई नामी निदेशकों के नाटकों में काम करते हुए पिछले तीन दषक से सलीम आरिफ के निदेशन में नाटक कर रही है। किसी नाट्य संस्थान से अभिनय का औपचारिक प्रशिक्षण उन्होंने नहीं लिया लेकिन इंटर कालेज ड्रामा कांपिटिषन में लगातार हिस्सा लेती रही और एक ही साल में तीन एवार्ड पाने वाली वह एकमात्र अभिनेत्री हैं। यह वही कांपिटिशन है जहां से अनेक नामी रंगकर्मी और फिल्म कलाकार निकले हैं।
इस नाटक को मैंने तीन सृजनकारों का संगम कहने के पीछे एक बड़ा कारण तीनों के बीच नाटक को लेकर गहन मंथन भी है। लुबना जिस तरह के चरित्र को नाटक में प्रस्तुत करना चाहती थी उसे समझते हुए उनके बाबा जावेद साहब ने यह नाटक लिखा। किसी एक्टर को केन्द्र में रखकर फिल्मों की कई कहानियां लिखी गई लेकिन एक्टर केन्द्रित नाटक लिखना संभवतः यह पहली बार हुआ। नाटक के निदेशक सलीम आरिफ का अपनी पत्नी लुबना तथा नाटककार जावेद साहब से नाटक की पटकथा और उसकी प्रस्तुति को लेकर लंबा व लगातार संवाद होता रहा। जब एक्टर, डायरेक्टर और राइटर एक वेवलेंथ पर हों तो उस नाटक को अद्वितीय तो होना ही था और यही ’गुडम्बा’ के साथ हुआ। यही इस नाटक की आत्मा है जो दर्शकों को ऐसा सम्मोहित करता है कि उस सम्मोहन से बाहर आना आसान नहीं होता।
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