भारतः सब कैसा एक्स्ट्रीम!

भारतः सब कैसा एक्स्ट्रीम!

हम 140 करोड़ लोगों का सत्य क्या है, इसे भारत में न जाना जा सकता है और न सत्य स्वीकार्य होगा। उससे सीखने या सुधरने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता! इस रविवार ‘नया इंडिया’ में सत्येंद्र रंजन का लेख था। उससे सप्रमाण यह सच्चाई जाहिर हुई कि भारत में यदि कोई व्यक्ति हर महीने 25 हजार रुपए या उससे ज्यादा कमाता है, तो वह देश की सर्वाधिक आमदनी वाली टॉप दस प्रतिशत आबादी का हिस्सा हैं। मतलब कि 140 करोड़ लोगों में से 90 प्रतिशत लोग 25 हजार रुपए से कम की आमदनी पर जिंदगी गुजार रहे हैं। साल 2019-20 में कुल कमाया गया वेतन 1,869 करोड़ रुपए था। इसमें मलाई सिर्फ एक प्रतिशत लोगों ने खाई। धनी एक प्रतिशत लोगों की झोली में 127 करोड़ रुपए गए थे, जबकि निचली 10 फीसदी आबादी के हिस्से में सिर्फ 32.10 करोड़ रुपए थे। इसका मतलब निचली 10 प्रतिशत आबादी के वेतन के मुकाबले ऊपरी एक फीसदी आबादी का वेतन तीन गुना अधिक था। सोचें, 140 करोड़ भारतीयों में आमदनी की असमानता की इस खौफनाक तस्वीर पर। भविष्य कैसा भयावह होने वाला है? इस आंकड़े पर भी गौर करें- साल 1980 में जहां टॉप की एक प्रतिशत अमीर आबादी के पास भारत का छह प्रतिशत धन था, वही 2020 के आते-आते वह 22 प्रतिशत हो गया।

यह सच एक थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ कॉम्पीटीटिवनेस (आईएफएस) के अध्ययन और प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद द्वारा जारी की गई रिपोर्ट से प्रगट है। मैं ऑक्सफोम रिपोर्ट, वैश्विक सूचकांकों के आंकड़ों के हवाले लिखता आया हूं। बावजूद इसके मैं भी इस भदेस सच्चाई से झनझना गया कि 140 करोड़ लोगों में 90 फीसदी लोग मासिक 25 हजार रुपए से नीचे की कमाई पर जी रहे हैं!

अब एक दूसरी सच्चाई। और वह मेरे मन की बात। जिसके निचोड़ में दशकों से मैं अमेरिका से दोस्ती, पश्चिमी सभ्यता से भारत के साझा की पैरवी करता हूं। और हर उस सनातनी इंसान को मैं वहां जाकर बसने की सलाह देता हूं, जो वेद-उपनिषदों की बुद्धि की आजाद उड़ान के तनिक भी सनातनी संस्कार लिए हुए हैं। यह मानते हुए कि कलियुगी भारत में बुद्धि और सत्य के लिए जगह नहीं है। बात आगे बढ़ाऊं उससे पहले एक किस्सा सुनें। पंजाब के उग्रवाद में भिंडरावाले के यहां पत्रकारों का बड़ा आना-जाना था। पत्रकारों की एक टोली से भिंडरावाले की अंतरंगता भी थी। एक दिन वह टोली भिंडरावाले से गपशप करने पहुंची। टोली में चंडीगढ़ के अखबार का एक सुधी सिख था। बात-बात में उस सिख पत्रकार ने सवाल किया– संतजी, आप मानते हैं खालिस्तान बन रहा है? हां, हां बन रहा है। पत्रकार ने दूसरी बार पूछा। इस तरह दो-तीन बार अलग-अलग ढंग से गंभीरता से पत्रकार ने पूछा तो भिंडरावाले ने कुछ हैरानी-नाराजगी से पूछा– क्या बात है, तुम बार-बार क्यों पूछे रहे हो, मैं कह रहा हूं न कि बन रहा है। तब पत्रकार का जवाब था– इसलिए कि यदि बन रहा है तो मुझे विदेश जाना है। मेरे जैसा दिमागी खालिस्तान में क्या करेगा? खालिस्तान में तो बुद्धि, दलील और अखबार वाला कोई काम नहीं होना है!

सोचें, उस बात में आजाद भारत में बुद्धि तथा सत्य के मतलब पर! क्या कभी बुद्धी का मान रहा है? 75 वर्ष की आजादी में भक्ति, झूठ, असमानताओं और तमाम तरह की राजनीतिक-व्यवस्थागत लाठियों में जिंदगी ढलती चली आ रही है। तभीमैं सबसे कहता हूं अपने बच्चों को बाहर भेजो। समझदार भारतीयों का मिशन होना चाहिए कि वे पढ़ने-लिखने के संस्कार के साथ बच्चों को विदेश भेजें। इसलिए इस सप्ताह वैश्विक पत्रिका ‘दि इकोनोमिस्ट’ का तथ्य-सत्य के हवाले लिखायह वाक्य अच्छा लगा कि– दुनिया में इस समय भारत का एनआरआई जितना बड़ा और प्रभावशाली है वैसा इतिहास में पहले नहीं हुआ।

बतौर प्रमाण इन आंकड़ों पर गौर करें- एनआरआई मतलब भारत में जो पैदा हुए लेकिन उससे जो बाहर रह रहे हैं (जाहिर है दो-चार पीढ़ियों से विदेश में रह रहे भारतीय मूल आबादी अलग है)। साल 2020 के आंकड़ों के अनुसार दुनिया में दो करोड़ भारतीय प्रवासी थे। दुनिया की पूरी वैश्विक प्रवासी आबादी में अकेले भारतीयों की यह खूबी है जो इनकी बुद्धि ने अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया जैसे अमीर देशों को सर्वाधिक प्रभावित किया है। इन देशों के समाज में जहां एनआरआई का मान-सम्मान है वही चाइनीज, लातीनी अमेरिकी, अरब-खाड़ी आदि देशों के प्रवासियों को ले कर कई किंतु-परंतु और शक हैं। भारतीय मूल के लोगों (दो-तीन पीढ़ियों पुरानी) की संख्या का जहा सवाल है तो अमेरिका और ब्रिटेन जैसे अमीर देशों में भारतीय मूल के लोग चीनियों से ज्यादा है। अमेरिका में 27 लाख, ब्रिटेन में 8.35 लाख, कनाडा में 7.20 लाख और ऑस्ट्रेलिया में 5.79 लाख हैं। अमीर देशों में भारत से निकली क्रीमी बुद्धि के लोग ज्यादा हैं जबकि सऊदी अरब (25 लाख) तथा यूएई (35 लाख) में भारतीय मजदूरी ज्यादा करते हुए हैं। अफ्रीकी-एशियाई-कैरेबियन देशों में अंग्रेजों के समय गए गिरमिटिया भारतीय खेतीहर मजदूर, पंजाबी और गुजरातियों की आबादी अधिक है। इनकी तासीर कुछ अलग है।

मेरा मानना है कि पिछले तीस सालों में एनआरआई भारतीयों ने बुद्धि-दिमाग तथा मानसिक कामों से दुनिया में अपना जो रोल और महत्व बनाया है वह हिंदुओं के उस सनातनी सत्य का संकेत है कि यदि कलियुगी जात-पात और गुलामी के इतिहास से मुक्ति का अवसर मिले तो अमेरिकी गरूड़ और सनातनी हंस की केमिस्ट्री से मानव सभ्यता के भविष्य की कुछ चुनौतियों के समाधान संभव हैं।

विषयांतर हो रहा है। बहरहाल सलाम पश्चिमी सभ्यता को, पीवी नरसिंह राव और डॉ. मनमोहन सिंह को, जिनसे सनातनी हिंदुओं के अवसर बने। भारतीयों का दुनिया में रूतबा बना। ‘दि इकोनोमिस्ट’ की मानें तो दुनिया की टॉप 500 कंपनियों में से आज 25 टॉप कंपनियों के सीईओ एनआरआई हैं। दस साल पहले 11 थे। एडोब, अल्फाबेट (गूगल की कॉरपोरेट पैरेंट कपंनी), आईबीएम व माइक्रोसॉफ्ट की कमान भारतीय मूल के लोगों के पास है। हार्वर्ड बिजनेस स्कूल सहित पांच प्रमुख बिजनेस स्कूलों में से तीन के डीन भी एनआरआई हैं। ब्रिटेन के हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रधानमंत्री ऋषि सुनक सहित भारतीय मूल के 19 लोग सासंद-नेता हैं। ऑस्ट्रेलिया की संसद में छह और अमेरिकी कांग्रेस में पांच भारतीय मूल के सांसद हैं। तमिल ब्राह्मण महिला की बेटी अमेरिका की उप राष्ट्रपति है। पुणे में जन्मे सिख अजय बंगा पिछले महीने विश्व बैंक के अध्यक्ष बने।

रिसर्चरों का निकाला सत्य है कि साल 2010 में जिन छात्रों ने भारत में आईआईटी जैसी संस्थाओं की दाखिला परीक्षा दी थी उससे निकले हजार सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वालों में से 36 प्रतिशत नौजवान विदेश उड़ लिए वही इनमें जो 100 टॉपर थे उनका 62 प्रतिशत विदेश में बसा। इन दिनों दुनिया में एआई उर्फ कृत्रिम बुद्धिमत्ता का हल्ला है। और इसमें अमेरिकी रिसर्च के टॉप के बीस प्रतिशत लोगों की पहली डिग्री भारत की है।

सोचें, आजाद भारत से पश्चिमी देशों की और दिमाग-बुद्धि-कौशल का जाना कितना बड़े पैमाने पर हुआ है? निश्चित ही भारत से ज्ञान-विज्ञान का सनातनीमाइंड लगातार भागता हुआ है। कब से? मेरा मानना है तमिलनाडु में ब्राह्मण, बुद्धि, दिमाग के खिलाफ जब नायकर-द्रविड़ आंदोलन शुरू हुआ और ज्यों-ज्यों कथित सामाजिक न्याय के नाम पर आरक्षण के बवंडर बने त्यों-त्यों पहले दक्षिण भारतीय फॉरवर्डों (ब्राह्मण, अय्यर, अयंगर, चेटियार आदि) परिवारों में विदेश जा कर पढ़ाई-नौकरी के अवसर के लिए उड़ान बनी। इसके बाद आंध्र के रेड्डी, राव और फिर उत्तर भारत के मध्यवर्गी फॉरवर्ड परिवारों में बेटे-बेटियों की विदेश पढ़ाई का सपना बना। मेरे अपने परिवार, मेरे पड़ोस से लेकर समवर्ती पत्रकारों के बेटे-बेटियां पिछले पंद्रह वर्षों में जिस तरह अमेरिका, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा जा कर बसे हैं और अकेलेपन, कंपीटिशन, मुश्किलों के बावजूद ये जात-पात, आरक्षण की रोजमर्रा की असभ्य-जंगली व्यवस्था से आजाद हो सुकून-सुरक्षित जिंदगी जी रहे हैं तो इसके बाईप्रोडक्ट में सनातनी बुद्धि के मिजाज, स्वभाव की पॉजिटिविटी की अपने आप वैश्विक धमक भी बनती हुई है।

निश्चित ही पहला श्रेय पश्चिमी सभ्यता को है। उसने यदि ऋषि सुनक, कमला हैरिस को अवसर दिया है तो ऐसा हो सकना पश्चिमी व्यवस्था की मजबूती, उसके आत्मविश्वास और समान अवसरों, सिस्टम के चेंक-बैलेंस तथा नागरिकों की गरिमा-स्वतंत्रता के मान-सम्मान से है। सोचें, भारतीय क्यों चीन, रूस या तानाशाही देशों में जा कर नहीं बसते? इसलिए क्योंकि बुनियादी तौर पर हिंदू जीवन सनातनी सहजता में जीने की वृत्ति-प्रवृत्ति लिए हुए है। तथ्य है कि एनआरआई में भी बुद्धि और उसकी धुन वाले रिसर्चकर्ताओं का ही जलवा क्यों? क्यों व्यापारी मिजाज के गुजराती एनआरआई या सिख-पंजाबी वहां अभी भी परंपरागत धंधों में ही रमे दिखते है? तथ्य है सन् 1965 से अमेरिका ने दिमागी काबिलियत को न्योतने का वीजा सिस्टम बनाया और फिर नरसिंह राव के समय बिल क्लिंटन ने नए वीजा तथा डॉ. मनमोहन सिंह के समय राष्ट्रपति बुश ने भारत को एटमी क्लब में शामिल करके एच-1बी वीजा आदि से ‘विशेष प्रोफेशनल’ की कैटेगरी में बुद्धि को न्यौता तो अपने आप यह हुआ कि एच-1बी वीजा का 73 फीसदी हिस्सा भारत के स्कूली-कॉलेज लड़के-लड़कियों ने जीता है। ये बच्चे कौन थे? वे जिन्हें भारत के जात केंद्रित आरक्षण, देश की व्यवस्था में अवसर समझ नहीं दिख रहा था। जिनके अभिभावकों ने कोचिंग करा-करा कर आईआईटी-मेडिकल-आईआईएम में बच्चों के दाखिले कराए।

कोई न माने या न माने इस बात को, लेकिन मैं कोचिंग के गढ़ राजस्थान की हकीकत में तथ्य जानता हूं कि आरक्षित जातियों के परिवार अपने बच्चों में केवल और केवल सरकारी नौकरी की ललक पैदा करते हैं। वही ब्राह्मण-बनिया-कायस्थ आदि फॉरवर्ड परिवार कोचिंग करा कर आईआईटी-इंजीनियरिंग-मेडिकल-आईआईएम में दाखिलों का दिमागी टारगेट बनवाते हैं या सीधे विदेश में दाखिले के लिए पैसा जुटाते हैं। कोई आश्चर्य नहीं जो आईआईटी की क्रीमी लेयर का दिमाग फॉरवर्ड जातियों का हिट है तो ये ही फिर सर्वाधिक अमेरिका जाने वाले। यह आंकड़ा नहीं है कि आरक्षित क्षेणी की उच्च शिक्षा कैटेगरी में से कितने एससी-एसटी छात्र अमेरिका जा कर नाम कमाए हुए हैं। इस मामले में ‘द इकोनोमिस्ट’ की पूरी रिपोर्ट में अकेला एक यह आंकड़ा है कि वाशिंगटन डीसी में एक थिंक-टैंक के सर्वे ने पाया कि प्रवासियों में 17 प्रतिशत  ने खुद को निचली जाति के रूप में वर्णित किया। सोचें, ऐसा असंतुलन क्यों? जबकि आईआईटी, आईआईएम, मेडिकल में इन जातियों का आरक्षण पचास प्रतिशत छूता हुआ है तो इसी अनुपात में ही आरक्षित जातियों का शिक्षित दिमाग भी अमेरिका, सिलिकॉन वैली के कंपीटिशन में जलवा बनाए हुए होना चाहिए था? क्या नहीं?

पर बुद्धि, दिमाग और मनुष्य की कुशाग्रता, उसकी काबिलियत दरअसल कंपीटिशन में खिलती है। इसलिए मेरा मानना है कि आजादी ने भारत को गंवार बनाने का इकोसिस्टम दिया। बुद्धि और कंपीटिशन को वनवास भेजा। रेवड़ियों की हरामखोरी बनवाई। संघ-भाजपा के कमंडल और वीपी सिंह-नीतीश के मंडल से लेकर नेहरू और आंबेडकर के समाजवाद व समतावाद या नरेंद्र मोदी की लाठी व बनियाई चुतराईयों से भारत 75 वर्षों में भटका चला आ रहा है। भारत ने वह गंवाया है, जिसका नाम है माइंड, ब्रेन और सत्य। तभी आश्चर्य नहीं जो भारत का गंवाना अमेरिका, सिलिकॉन वैली, व्हाइट हाउस व लंदन के व्हाइट हॉल की प्राप्ति है, पश्चिमी देशों का उत्तरोत्तर विकास (पूरी दुनिया से बुद्धि न्योतते हुए) है! बहरहाल, अपने लिए संतोष की बात है कि शिक्षा के सनातन महत्व के भारतीय बीज कहीं तो लहराते हुए हैं।

Published by हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

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